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रविवार, 1 मार्च 2009

सामाजिक हिंसा का क्या हो निदान ?

साठ साल पहले जिस देश की जनता ने सत्य और अहिंसा के बल पर आज़ादी हासिल की थी। उसी देश की जनता में हिंसा की प्रवृति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। भले ही वो हिंसा वैध समस्याओं के निदान हेतु ही क्यों न हो। अहिंसात्मक आंदोलन का जो मंत्र राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने दिया था, ऐसा लगता है कि लोगों ने उसे पूरी तरह से भुला दिया है। लोकतांत्रिक मान्यताओं के मुताबिक शांतिपूर्ण और वैधानिक उपायों के ज़रिए किसी भी समस्या का अहिंसक तरीके से सर्वमान्य हल निकाला जा सकता है। लेकिन इसके ठीक विपरीत लोकतांत्रिक देशों में हिंसक संघर्ष तेजी से बढ़ रहे हैं। पाकिस्तान और म्यांमार में हिंसा की कई और वजहें भी है। मसलन धार्मिक कट्टरता, आतंकवाद और तानाशाही व्यवस्था। लेकिन भारत और श्रीलंका में बढ़ती हिंसक घटनाओं ने लोकतंत्र के साथ साथ बदलते सामाजिक सरोकार एवं लोगों की बदलती मानसिकता की एक नई तस्वीर ज़माने के सामने पेश की है। यह एक ऐसी तस्वीर है जिसे देखकर सीधे-सीधे किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता है। आतंकवादी हिंसा और आपराधिक हिंसा पर तो पूरी दुनिया में चिंता जताई जाती है। लेकिन समाज के अंदर पिछले कुछ वर्षों में हिंसक गतिविधियों में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। लेकिन इस सामाजिक हिंसा पर कोई भी गंभीरतापूर्वक ध्यान नहीं देता है। छोटी-छोटी बातों पर लोगों की जान ले ली जाती है। ऐसी घटनाएं वाकई में चौकाने वाली है। आखिर समाज का ये कौन सा रूप है जो एकाएक जमाने के सामने हिंसक रुप लेकर खड़ा हो गया है। हाल की घटनाएं इस बात की गवाह है कि हिंसक घटनाओं में सिर्फ वयस्क ही शामिल नहीं होते है बल्कि अब छोटे छोटे बच्चे भी हिंसक गतिविधियों में शामिल हो गए है। दिल्ली में एक छह साल के लड़के ने चार साल के लड़के की जान ले ली। गुंड़गांव में एक नामी स्कूल के छात्र ने अपने साथी की स्कूल परिसर में ही गोली मारकर हत्या कर दी। यानि अब समाज में हिंसा इस हद तक फैल चुकी है कि इसका बुरा असर बच्चों पर भी दिखाई देने लगा है। यहीं वजह है कि अब बच्चे भी हिंसक होते जा रहे हैं। कहा जाता है कि मारपीट और किसी की हत्या कर देना, इस काम को अशिक्षित और मानसिक रूप से बीमार लोग अंजाम देते हैं। लेकिन भारत का पढ़ा लिखा तबका या आधुनिक समाज इतना क्रूर क्यों होता जा रहा है। वैसे हिंसक गतिविधियों के मामलों में भारतीय समाज का अतीत ठीक नहीं रहा है। भारतीय समाज में बुद्ध, महावीर और गांधी जैसे लोगों का होना ही यह साबित करता है कि यहां हिंसा का बोलबाला रहा है। भारतीय समाज ने हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता में संघर्ष के साथ साथ सह अस्तित्व को भी विकसित किया है और इसे भी एक जीवन मूल्य के रूप में स्थापित किया है। लेकिन आज़ादी के बाद के वर्षों में सहअस्तित्व की भावना धीरे धीरे हमारे समाज से खत्म होती जा रही है। आंतरिक हिंसा में बढ़ोत्तरी का यह एक मुख्य कारण है। इस सबके अलावा बाज़ार का उन्मादक होते जाना और उपभोक्तावाद का सांस्कृतिक स्तर पर आक्रामक होना भी इस बढ़ती हुई हिंसा की एक प्रमुख वजह है। आज़ादी के बाद हमने कोई नए मूल्य तो अर्जित नहीं किए, बल्कि जो मूल्य विकसित हो रहे थे उन्हें भी हमने खो दिया है। अब लोगों के पास कोई मूल्य नहीं होता है, बस एक लक्ष्य होता है और उसे पाने के लिए कोई कुछ भी करने को तैयार रहता है। इस कुछ भी में हिंसा भी शामिल है। भारत में लोकतंत्र की जड़ें इतनी मजबूत होने के बावजूद अगर हिंसक आंदोलन इतनी तेजी से फैल रहे हैं, तो हिंसा के इस नए ट्रेंड की गहराई से जांच पड़ताल होनी चाहिए। वैसे तो आधुनिक समाज में बढ़ती हुई हिंसा के लिए किसी एक वजह को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता है।

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