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रविवार, 1 मार्च 2009

सामाजिक हिंसा का क्या हो निदान ?

साठ साल पहले जिस देश की जनता ने सत्य और अहिंसा के बल पर आज़ादी हासिल की थी। उसी देश की जनता में हिंसा की प्रवृति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। भले ही वो हिंसा वैध समस्याओं के निदान हेतु ही क्यों न हो। अहिंसात्मक आंदोलन का जो मंत्र राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने दिया था, ऐसा लगता है कि लोगों ने उसे पूरी तरह से भुला दिया है। लोकतांत्रिक मान्यताओं के मुताबिक शांतिपूर्ण और वैधानिक उपायों के ज़रिए किसी भी समस्या का अहिंसक तरीके से सर्वमान्य हल निकाला जा सकता है। लेकिन इसके ठीक विपरीत लोकतांत्रिक देशों में हिंसक संघर्ष तेजी से बढ़ रहे हैं। पाकिस्तान और म्यांमार में हिंसा की कई और वजहें भी है। मसलन धार्मिक कट्टरता, आतंकवाद और तानाशाही व्यवस्था। लेकिन भारत और श्रीलंका में बढ़ती हिंसक घटनाओं ने लोकतंत्र के साथ साथ बदलते सामाजिक सरोकार एवं लोगों की बदलती मानसिकता की एक नई तस्वीर ज़माने के सामने पेश की है। यह एक ऐसी तस्वीर है जिसे देखकर सीधे-सीधे किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता है। आतंकवादी हिंसा और आपराधिक हिंसा पर तो पूरी दुनिया में चिंता जताई जाती है। लेकिन समाज के अंदर पिछले कुछ वर्षों में हिंसक गतिविधियों में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। लेकिन इस सामाजिक हिंसा पर कोई भी गंभीरतापूर्वक ध्यान नहीं देता है। छोटी-छोटी बातों पर लोगों की जान ले ली जाती है। ऐसी घटनाएं वाकई में चौकाने वाली है। आखिर समाज का ये कौन सा रूप है जो एकाएक जमाने के सामने हिंसक रुप लेकर खड़ा हो गया है। हाल की घटनाएं इस बात की गवाह है कि हिंसक घटनाओं में सिर्फ वयस्क ही शामिल नहीं होते है बल्कि अब छोटे छोटे बच्चे भी हिंसक गतिविधियों में शामिल हो गए है। दिल्ली में एक छह साल के लड़के ने चार साल के लड़के की जान ले ली। गुंड़गांव में एक नामी स्कूल के छात्र ने अपने साथी की स्कूल परिसर में ही गोली मारकर हत्या कर दी। यानि अब समाज में हिंसा इस हद तक फैल चुकी है कि इसका बुरा असर बच्चों पर भी दिखाई देने लगा है। यहीं वजह है कि अब बच्चे भी हिंसक होते जा रहे हैं। कहा जाता है कि मारपीट और किसी की हत्या कर देना, इस काम को अशिक्षित और मानसिक रूप से बीमार लोग अंजाम देते हैं। लेकिन भारत का पढ़ा लिखा तबका या आधुनिक समाज इतना क्रूर क्यों होता जा रहा है। वैसे हिंसक गतिविधियों के मामलों में भारतीय समाज का अतीत ठीक नहीं रहा है। भारतीय समाज में बुद्ध, महावीर और गांधी जैसे लोगों का होना ही यह साबित करता है कि यहां हिंसा का बोलबाला रहा है। भारतीय समाज ने हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता में संघर्ष के साथ साथ सह अस्तित्व को भी विकसित किया है और इसे भी एक जीवन मूल्य के रूप में स्थापित किया है। लेकिन आज़ादी के बाद के वर्षों में सहअस्तित्व की भावना धीरे धीरे हमारे समाज से खत्म होती जा रही है। आंतरिक हिंसा में बढ़ोत्तरी का यह एक मुख्य कारण है। इस सबके अलावा बाज़ार का उन्मादक होते जाना और उपभोक्तावाद का सांस्कृतिक स्तर पर आक्रामक होना भी इस बढ़ती हुई हिंसा की एक प्रमुख वजह है। आज़ादी के बाद हमने कोई नए मूल्य तो अर्जित नहीं किए, बल्कि जो मूल्य विकसित हो रहे थे उन्हें भी हमने खो दिया है। अब लोगों के पास कोई मूल्य नहीं होता है, बस एक लक्ष्य होता है और उसे पाने के लिए कोई कुछ भी करने को तैयार रहता है। इस कुछ भी में हिंसा भी शामिल है। भारत में लोकतंत्र की जड़ें इतनी मजबूत होने के बावजूद अगर हिंसक आंदोलन इतनी तेजी से फैल रहे हैं, तो हिंसा के इस नए ट्रेंड की गहराई से जांच पड़ताल होनी चाहिए। वैसे तो आधुनिक समाज में बढ़ती हुई हिंसा के लिए किसी एक वजह को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता है।

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

प्राथमिक शिक्षा की अनदेखी कब तक?

आओ चलो स्कूल चले हम। प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा देने के मकसद से तैयार किया यह विज्ञापन वाकई में प्रेरणादायी है। लेकिन सरकार की ओर से तैयार कराया गया यह विज्ञापन जितना दमदार है सरकारी स्कूलों की हालत उतनी ही खराब। वास्तव में प्राथमिक विद्यालयों का प्रदर्शन काफी निराशाजनक है। महानगरों और शहरी स्कूलों को छोड़ दे तो ग्रामीण इलाके के स्कलों की हालत देखकर आप देश में प्राथमिक शिक्षा की बदहाली का सहज ही अंदाजा लगा सकते है। देश में प्राथमिक शिक्षा की हकीकत इस सरकारी विज्ञापन में कहीं गई बातों से बिलकुल मेल नहीं खाती है। स्कूल का मतलब सिर्फ स्कूल भवन, किताबें और नियमित उपस्थिति ही नहीं है, इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग तो बच्चे हैं। वस्तुत यह एक ऐसा समय होता है जब बच्चे तेजी से आगे बढ रहे होते है और कई मनोवैज्ञानिकों के अनुसार यह प्रारंभिक काल किसी व्यक्ति के भावी जीवन के लिए बड़ा ही निर्णायक होता है। इसलिए यह जानना बड़ा ही महत्वपूर्ण हो जाता है कि बच्चे खुद इस संबंध में क्या सोचते हैं। क्योंकि अगर बच्चे पढ़ाई से घृणा करते हों और स्कूल जाने को सिर्फ एक अरूचिकर अनुष्ठान मानते हो तो उन्हें स्कूल भेजने का कोई फायदा नहीं है। आखिरकार बच्चा जब तक चाहेगा नहीं तब तक उसे प्रभावकारी शिक्षा कैसे दी जा सकती है। इस संबंध में प्रो रामकृष्णन रिपोर्ट से एक दिलचस्प बात सामने आती है। रिपोर्ट के अनुसार स्कूल छोड़कर काम में लगने वाले अधिकांश बच्चे स्कूल की पढ़ाई से अधिक शारीरिक परिश्रम को पसंद करते हैं और स्कूल वापसी की उनकी कोई इच्छा नहीं है। तो क्या बच्चे सीखने की प्रवृति खो चुके है। नहीं ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि इसे मानना समूचे बाल विज्ञान को नकारने के बराबर होगा। जिसके अनुसार सीखना बच्चे की जन्मजात प्रवृति है और सबसे अच्छी तरह से वे तब सीखते हैं जब वे अपने कृत्य का आनंद लेते हुए सीखते हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण उनके द्वारा मातृभाषा का सीखना है जिसे वे तुतलाते तुतलाते सीख डालते है। प्रख्यात शिक्षाविद मारिया मांटेसरी एवं जान हाल्ट के अनुसार जिज्ञास बच्चे की जन्मजात प्रवृति है। पर जिस ढंग की शिक्षा आज हम बच्चों को दे रहे हैं उससे उनकी मूल प्रवृति पर कुठराघात हो रहा है। शिक्षक और माता पिता पढ़ाई में बच्चों की सफलता और असफलता को क्रमश पारितोषिक और दंड से जोड़ देते हैं जिससे जिज्ञासा का स्थान चिंता ले लेती है। उपर से स्कूल की ओर से अभिभावक को भेजा गया प्रोग्रेस रिपोर्ट तो बच्चों को और आतंकित करता है। बच्चों की गलतियों की बजाए अनदेखी करके उन्हें प्रोत्साहित करने के, गलतियों की ओर उनका ध्यान आकृष्ट कराया जाता है, जिससे शिक्षा के प्रति उनमें अरूचि पैदा होती है। इसका दूसरा महत्वपूर्ण कारण हमारा जर्जर प्राथमिक शिक्षा तंत्र है जिसमें संरचनागत खामियों की भरमार है। हमारे न तो पर्याप्त संख्या में स्कूल है और न ही उचित संख्या में शिक्षक। जो स्कूल है भी उनमें से अधिकांश एक कमरों वाले हैं या फिर पेड़ों के नीचे चलते हैं। इन स्कूलों में ब्लैकबोर्ड और पेयजल जैसी मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं है। जब नई शिक्षा नीति के तहत ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड लागू किया गया था तब सरकार ने यह वादा किया था कि प्रत्येक एक किलोमीटर की परिधि में एक स्कूल खोला जाएगा। इसमें दो कमरे और दो शिक्षक होंगे, जिनमें से एक महिला होगी। तब ब्लैकबोर्ड और खेल सामाग्री सहित पठन-पाठन के आवश्यक उपकरणों के मुहैय्या कराने की बातें भी की गई थी। हलांकि सरकारी आंकड़ों में यह दावा किया गया है कि 64 फीसदी स्कूलों में ये सारी आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध करा दी गई है। लेकिन एनसीईआरटी की एक रिपोर्ट में सरकारी दावे का खोखलापन स्पष्ट हो जाता है। रिपोर्ट के मुताबिक 50 फीसदी से अधिक प्राथमिक स्कूलों के पास अपना भवन नहीं है, 40 प्रतिशत स्कूल फर्निचर और ब्लैकबोर्ड रहित है, 54 प्रतिशत स्कलों में रखरखाव की सुविधाएं नहीं है और 35 प्रतिशत स्कूल ऐसे है जहां सिर्फ एक ही शिक्षक है। जो शिक्षक है भी उनमें से अधिकांश अप्रशिक्षित है। नतीजा यह है कि वे बच्चों को प्रेरित करने के बदले उन्हें भयभीत कर देते हैं, जिससे बच्चे स्कूल को भय की दृष्टि से देखते है। प्राथमिक शिक्षा की बदहाली का एक महत्वपूर्ण कारण वित्तीय संसाधनों की कमी भी है। प्रथम पंचवर्षीय योजना में सकल उत्पाद का 7.86 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया गया था, जिसमें से 56 प्रतिशत खर्च प्राथमिक शिक्षा पर था। सातवीं पंचवर्षीय योजना आते आते यह राशि घटकर क्रमश 2.55 प्रतिशत और 29 प्रतिशत हो गई। आठवीं पंचवर्षीय योजना में यह राशि और भी कम हो गई। यही सिलसिला आगे भी जारी है। प्राथमिक शिक्षा पर कुल खर्च का 96 प्रतिशत तो सीधे सीधे शिक्षकों और शिक्षकेतर कर्मचारियों के वेतन पर खर्च हो जाता है। शेष बची राशि से प्राथमिक शिक्षा की स्थिति में सुधार की आशा नहीं की जा सकती। कोहारी आयोग ने 1986 तक शिक्षा के क्षेत्र में (बढ़ते हुए क्रम में) 6 प्रतिशत निवेश की बात कही थी। लेकिन सरकार ने इस पर सही तरीके से ध्यान नहीं दिया। गरीबी की वजह से खासकर ग्रामीण क्षेत्रों बच्चों के पास न तो किताबें होती है और न ही कॉपियां। जो किताबें उनके पाठ्यक्रम में शामिल की जाती है वे इतना पाण्डित्यपूर्ण होती है कि बच्चे बोर हो जाते हैं। शिक्षाविदों के अनुसार किसी भी क्रिया-कलाप के प्रति बच्चे लगातार 15 मिनट से अधिक देर तक आकर्षित नहीं रह सकते हैं। लेकिन पूरे 45 मिनट तक कक्षा में बैठने हेतु उन्हें विवश किया जाता है, जिससे उनमें पढाई के प्रति ऊब पैदा होती है। खेल आदि की सुविधा न होने के कारण उनकी रचनात्मकता पर बुरा असर पड़ता है। अत: जब तक पठन-पाठन को आनंददायक नहीं बनाया जाएगा तब तक शिक्षा प्रभावकारी नहीं हो सकती।

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

स्कूल के प्रति बच्चों में बढ़ती बेरूखी के लिए जिम्मेदार कौन ?

जहां अधिकांश बच्चे स्कूल छोड़ने का कारण शिक्षक का भय बताते है, वहीं अधिकांश शिक्षक इसका दोष माता-पिता की उदासीनता और लापरवाही पर मढ़ते हैं। जब यही प्रश्न मातापिता से पूछा जाता है तो उनमें से अधिकांश का कहना है कि उनके बच्चे पढने में सक्षम नहीं है इसलिए उन्होंने स्कूल छोड़ दिया। लेकिन एक बात साफ है कि बच्चे सीखने में अक्षम नहीं होते हैं। वस्तुत स्कूल छोड़ने वाले अधिकांश बच्चों के माता पिता अशिक्षित ग्रामीण होते हैं, जिन्हें शिक्षा के उदेश्यों के बारे में पता नहीं है। वे इस स्थिति में भी नहीं होते है कि स्कूलों के ठीक से चलने की मांग कर सके। वे शिक्षा की अनिवार्यता को समझने हेतु बच्चे पर उसका स्पष्ट असर देखना चाहते हैं। सच पूछिए तो वे अपने बच्चों को स्कूल भेजते भी है तो सिर्फ इसलिए कि समाज में जो अच्छे लोग है वे पढ़े-लिखे है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक मातापिता के दिमाग में यह बात बैठाई जाय कि उनका बच्चा पढ़ सकता है। जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि प्रत्येक बच्चे को अवश्य पढ़ना चाहिए। यह काम सिर्फ सरकारी प्रयासों से संभव नहीं, इसमें स्वयंसेवी संगठनों का योगदान भी अपेक्षित है। अब रही बात शिक्षकों की तो भारत में प्राथमिक शिक्षा की जो स्थिति है उसमें एक शिक्षक की गांवों में पहले जैसी इज्जत नहीं रह गई है। वे महसूस करते है कि प्रोन्नति के रूप में उनकी महत्वकांक्षा के फलीभूत होने की संभावनायें भी क्षीण हैं। ज्यादा से ज्यादा वे अपने कैरियर के अंतिम चरण में कुछ समय के लिए प्राधानाध्यापक बन सकते हैं। इससे उनका उत्साह ठंडा पड़ जाता है। दूसरे अधिकांश स्कूलों में सिर्फ एक ही शिक्षक होने से उनपर काम का बोझ ज्यादा रहता है। तमिलनाडु जैसे राज्य में जहां स्कूल में बच्चों को दोपहर का पौष्टिक आहार और मुफ्त पुस्तकें भी दी जाती है, शिक्षकों पर प्रशासनिक बोझ भी बढ जाता है। फिर अधिकांश शिक्षक अप्रशिक्षित होते हैं, जो प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षक भी होते है उनका प्रशिक्षण अपर्याप्त होने के कारण वे कक्षा को प्रभावकारी ढ़ंग से संचालित नहीं कर पाते हैं। रिफ्रेशर कोर्स आयोजित करने का अनुष्ठान भी बहुत फलदायी सिद्ध नहीं हो पा रहा है। रही-सही कसर शिक्षकों की लापरवाही से पूरी हो जाती है। स्कूल से गायब रहने की प्रवृति उनमें बढ़ती ही जा रही है। गांवों के अभिभावकों के अशिक्षित होने के कारण उनपर कोई सामाजिक अंकुश नहीं रह गया है। इसलिए स्थिति में सुधार हेतु अभिभावक-शिक्षक संघ मंचों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। साथ ही कई संचरनागत परिवर्तन भी करने होंगे। जैसे-स्कूलों और शिक्षकों की संख्या में वृद्धि, बेहतर प्रशिक्षण व्यवस्था, पाठ्यक्रम निर्माण में शिक्षकों की भागीदारी आदि। अगर ये सारे सुधार समय रहते नहीं किए गए तो जब दुनिया के देश मंगल और बृहस्तपति पर पहुंचकर शोध कर रहे होंगे हम दुनिया के निरक्षरों की सबसे बड़ी फौज को साक्षर करते हुए अनौपचारिक शिक्षा के कार्यक्रम चला रहे होंगे। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि प्राथमिक शिक्षा को एक बार फिर से राष्ट्रीय एजेंडे का केंद्रबिंदु बनाया जाए जैसा कि 1990 में नई शिक्षा नीति की समीक्षा के लिए गठित समिति ने सिफारिश की थी। रिपोर्ट में इसके लिए व्यवहारिक सुझाव भी दिए गए है पर सरकार बजाए उस पर अमल करने के अनुच्छेद 45 की मनमानी व्याख्या करके अपनी जिम्मेदारी को कक्षा 1 से 8 तक के बच्चों की शिक्षा देने तक सीमित करती जा रही है। उल्लेखनीय है कि रिपोर्ट में की गई सिफारिश के अनुसार 6 वर्ष तक की आयु के बच्चों की शिक्षा को भी निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के दायरे में शामिल किया जाए। अब देखना यह है कि मानव संसाधन मंत्री इस चुनौती को किस रूप में लेते हैं और अनुच्छेद 45 के संवैधानिक निर्देश को किस तरह पूरा करते हैं।

रविवार, 11 जनवरी 2009

शिक्षा के मौलिक अधिकार की अनदेखी देश के लिए घातक

अभी हाल ही में गैर-सरकारी संगठनों के साथ राष्ट्रीय परामर्श की एक रिपोर्ट में बाल-अधिकारों की पुष्टि में सरकार की निर्णायक भूमिका को रेखांकित किया गया है। रिपोर्ट में चौदह साल तक की आयु के सभी बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की बात पर जोर दिया गया है।
ब्रिटिश शासन से मुक्ति के वक्त सर्वव्यापी प्राथमिक शिक्षा को राष्ट्रीय लक्ष्य के रुप में देखा गया था। तब यह भी महसूस किया गया था कि इसके बिना देश का विकास संभव नहीं है। यहीं वजह थी कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 45 स्पष्ट शब्दों में राज्य को निर्देशित करता है कि संविधान लागू होने के दस वर्षों के भीतर(अर्थात सन 1960 तक) चौदह वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों को निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था की जाए। वर्ष 1993 में उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (कैपीटेशन फीस केस) में अनुच्छेद 45 की व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक एतिहासिक निर्णय दिया। कोर्ट ने कहा कि चौदह वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार है। अत राज्य के लिए इसकी व्याख्या करना अनिवार्य है। इसी वर्ष दिसंबर में नौ सर्वाधिक जनसंख्या वाले देशों के सबके लिए शिक्षा शिखर सम्मेलन में जारी दिल्ली घोषणा पत्र में सन 2000 ई. तक इस लक्ष्य को पाने की कसमें खाई गई और इस हेतु प्राथमिक शिक्षा को सर्वव्यापी बनाने की बातें की गई। कहना न होगा कि मेजबान होने के नाते भारत ने कुछ ज्यादा ही ऊंची आवाज़ में कसमें खाईं।
लेकिन अनुच्छेद 45 जैसे स्पष्ट संवैधानिक प्रावधान, उसपर आधारित उपरोक्त फैसले, विभिन्न रिपोर्टों और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सरकारी कसमों वादों के बावजूद लोकव्यापी प्राथमिक शिक्षा एक स्वप्न ही साबित हो रही है। सरकार बजाए सर्वव्यापी प्राथमिक शिक्षा के अपने वादे को पूरा करने के अनौपचारिक शिक्षा एवं साक्षरता अभियानों पर ही जोर दे रही है, जैसाकि नई शिक्षा नीति के दस्तावेज से भी पता लगता है। यद्यपि स्कूल में नामांकन लेने वाले बच्चों का प्रतिशत बढ़ा है, फिर भी स्कूल तक नहीं पहुंचने वाले बच्चों की कुल संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। वर्ष 1989-90 तक 6 से 11 वर्ष के आयुवर्ग में कुल 12.20 करोड़ बच्चों में 9.70 करोड़ ने नामांकन लिया जबकि 11 से 14 वर्ष के आयु वर्ग के कुल 7.30 करोड़ बच्चों में से सिर्फ 3.20 करोड़ बच्चों ने ही दाखिला लिया। इस तरह देश के करीब एक चौथाई बच्चे स्कूल में कभी कदम ही नहीं रखते हैं।
आकड़े बताते हैं कि लड़कियां, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत ही कम दाखिला ले पाती है। अधिकांश राज्यों में जबकि 80 प्रतिशत लड़के नामांकन लेते है, मात्र 50-55 प्रतिशत लड़कियां ही नामांकन ले पाती है। ये तो हुई प्राथमिक शिक्षा की बात। उच्य विद्यालयों तक तो मात्र 15-16 प्रतिशत लड़कियां ही पहुंच पाती है। इसका मूल कारण हमारी रूढिगत सामाजिक मान्यताएं है, जिनके चलते आज भी लड़कियों को घर की चारदीवारी के अंदर कैद करके रखने की प्रवृति हावी है। यही वह बिंदु है जहां सामाजिक आंदोलनों और शिक्षा का संबंध महत्वपूर्ण हो जाता है। सच पूछिए तो दोनों में अन्योन्याश्रय संबंध है। अगर सामाजिक आंदोलनों द्वारा लोगों का रूढिवादी नज़रिया बदल दिया जाए तो लड़कियां अधिकाधिक संख्या में स्कूल जाएंगी। दूसरी ओर, अगर स्त्री शिक्षा का प्रसार होगा तो सामाजिक परिवर्तन भी तेजी से होंगे। केरल इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। जहां तक अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बच्चों का प्रश्न है। इस संबंध में कोई स्पष्ट आंकड़े उपलब्ध नहीं है। लेकिन एक अनुमान के मुताबिक इस वर्ग के लगभग 70 प्रतिशत बच्चे स्कूलों में नामांकन से वंचित रह जाते हैं। यह गहन सामाजिक विषमता का द्योतक है और इसके बड़े भयंकर दुष्परिणाम हो सकते हैं। समकालीन इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब भी किसी देश का कोई वर्ग विशेष सामाजिक, आर्थिक या शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ेपन का शिकार हुआ है तो उसमें व्यवस्था के प्रति अविश्वास पैदा हुआ है और इसके परिणामस्वरूप अलगाववादी आंदोलनों का जन्म हुआ है। अत समस्या के इस पहलू पर गंभीरता से विचार किए जाने की आवश्यकता है। आमतौर पर 5-6 वर्ष की अवस्था में बच्चे स्कूल पकड़ते हैं। लेकिन उनमें से कितने 14 वर्ष की आयु तक शिक्षा जारी रख पाते है। आंकड़े बताते हैं कि नामांकन लेनेवालों में से सिर्फ 52 प्रतिशत बच्चे पांचवी कक्षा तक की पढ़ाई पूरी कर पाते हैं जबकि आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई पूरी करने वालों का प्रतिशत मात्र 35 है, और लड़कों की तुलना में लड़कियां ज्यादा स्कूल छोड़ती है। अनुसूचित जाति और जनजाति में तो ऐसे बच्चों की संख्या और अधिक है। 6-11 वर्ष के आयुवर्ग के अनुसूचित जाति जनजाति के स्कूल छोड़ने वाले बच्चों में लड़के और लड़कियों का प्रतिशत क्रमश 43.28 एवं 49.42 है।
प्रो रामकृष्णन रिपोर्ट के अनुसार स्कूल छोड़ने की अधिकांश घटनाएं पहली कक्षा में ही होती है और ऊपरी कक्षाओं में जाने के साथ-साथ घटती जाती है। कुछ अन्य रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि बच्चा अगर एक साल तक स्कूल जाने का दम रखता है तो उसके प्राथमिक शिक्षा पूरी करने की संभावना अधिक है बशर्ते कि अन्य बातें पूर्ववत रहें।
सवाल उठता है कि आखिर ये बच्चे स्कूल क्यों छोड़ते हैं। इसी से जुड़ा हुआ एक और प्रश्न यह है कि वे स्कूल खुद छोड़ते हैं या माता-पिता द्वारा छुड़ा दिए जाते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर पाना मुश्किल है, क्योंकि अधिकांश मामलों में जहां स्कूल छोड़ने वाले बच्चे घर के कामों या रोजी-रोटी कमाने में लगाए जाते हैं, यह स्पष्ट नहीं है कि उन्हें स्कूल छोड़ने के कारण काम पर लगाया गया है या उनसे काम लेने के लिए उन्हें स्कूल से अलग किया गया है। स्कूल छोड़ने वाले बच्चों के माता-पिता के निरपवाद रुप से निरक्षर या अशिक्षित होने से यह अंतर कर पाना और कठिन हो जाता है।
आमतौर पर शिक्षाविद यह मानते है कि ऐसा आर्थिक मजबूरियों के कारण होता है। लेकिन प्रो रामकृष्णन रिपोर्ट समस्या की कुछ दूसरी ही तस्वीर पेश करती है। रिपोर्ट के मुताबिक स्कूल छोड़ने वाले दो-तिहाई बच्चे मजदूरी कमाने के बजाए अन्य कारणों से ऐसा करते हैं। इसलिए इसे मात्र आर्थिक पिछड़पेन का मुद्दा मानकर रद्द नहीं किया जा सकता। इसमें संदेह नहीं है कि आर्थिक मजबूरियां निर्णायक कारण हो सकती है लेकिन प्रो रामकृष्णन रिपोर्ट के आलोक में इस समस्या पर नए दृष्टिकोण से विचार करने की आवश्यकता है।

International Conference on Communication Trends and Practices in Digital Era (COMTREP-2022)

  Moderated technical session during the international conference COMTREP-2022 along with Prof. Vijayalaxmi madam and Prof. Sanjay Mohan Joh...