मेक्सिको के कानकुन शहर में दो सप्ताह तक चले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में तीखे मतभेदों के बावजूद अंतत: एक सर्वमान्य समझौता हो ही गया। संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में हाल ही में सम्पन्न हुए इस समझौते का लाभ भारत जैसे विकासशील देशों को किस प्रकार और किस सीमा तक मिल सकता है, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। कानकुन सम्मेलन के दौरान वास्तव में विकासशील देशों की घेराबंदी करने की ही कोशिश हुई है। यह ठीक है कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर इस समझौते को आगे की दिशा में एक सार्थक और सकारात्मक कदम कहा जा सकता है। कोपेनहेगन के अनुभव के कारण यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि कानकुन में भी कोई नतीजा नहीं निकलेगा, लेकिन संतोष की बात है कि सम्मेलन की समाप्ति एक आम सहमति के साथ हुई।
इस सम्मेलन में दो ऐसे निर्णय हुए जिन्हें कानकुन की उपलब्धि कहा जा सकता है। जब भी कार्बन गैसों के उत्सर्जन में कटौती का मुद्दा उठा, विकासशील देशों की यह मांग रही कि इसके लिए उन्हें वित्तीय सहायता दी जाये। साथ ही उनकी मांग रही है कि विकसित देश उन्हें स्वच्छ तकनीक मुहैया कराएं। कानकुन में विकसित देश इस बात के लिए राजी हो गये हैं। उन्होंने विकासशील देशों की सहायता के लिए एक खरब डॉलर का कोष बनाने की रजामंदी दे दी है। यह कोष कब तक बनाया जायेगा, यह अभी स्पष्ट नहीं हुआ है। वे हरित अर्थात स्वच्छ तकनीक उपलब्ध कराने के लिए भी सहमत हुए हैं। परंतु इसके साथ सबसे बड़ा पेच यह है कि इसे बौद्धिक संपदा अधिकार के दायरे से बाहर नहीं रखा गया है। यानी इस तकनीक को हासिल करने के लिए विकासशील देशों को भारी भरकम शुल्क चुकाना होगा। इसके साथ ही, निर्धन देशों में वन संपदा की अंधाधुंध कटाई को रोकने के उपायों को भी समझौते में शामिल किया गया है। एक विशेष समिति जलवायु संरक्षण योजना के क्रियान्वयन में लगे देशों की सहायता करेगी। यह समिति उत्सर्जन में आई कमी का हिसाब किताब भी रखेगी। वहीं विकासशील देशों की यह शर्त भी मान ली गई है कि उत्सर्जन कटौती की अंतररष्ट्रीय निगरानी तभी संभव हो पायेगी जब कटौती के एवज में विकसित देश अधिक सहायता मुहैया करायेंगे। इससे पहले भारत और चीन समेत कई देश इसका विरोध करते आ रहे थे और इस शर्त को संदेह की दृष्टि से देखते थे। इस समझौते को लेकर एक अहम प्रश्न यह उठाया जा रहा है कि कानकुन सम्मेलन के समझौते का क्रियान्वयन क्या अंतरराष्ट्रीय रूप से बाध्य होगा?
सम्मेलन में सबसे विवादास्पद मुद्दा ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती को कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाने का ही था। प्रारंभ से ही स्पष्ट था कि इस पर आम राय नहीं बन सकती। एक ओर जहां जापान और रूस जैसे देश क्योटो संधि से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर विकासशील देशों को बाध्यकारी समझौता मंजूर नहीं था। केवल द्वीपीय देश ही इस प्रयास में लगे थे कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती का ऐसा कोई फार्मूला तैयार किया जाये जिसको मानना सभी के लिए जरूरी हो। धरती के तापमान में वृद्धि से सबसे अधिक खतरा भी इन्हीं देशों को है। समुद्र के जल स्तर में वृद्धि से इनके अस्तित्व पर ही संकट आ सकता है। द्वीपीय देशों की नाराजगी मोल लेने की हद तक जाना कोई बुद्धिमानी नहीं होगी, यही सोचकर बेसिक समूह (ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत एवं चीन) के दो सदस्य ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका लचीला रूख दिखा रहे थे, लिहाजा भारत ने भी यह बात मान ली और समानता के आधार पर फार्मूला तय किये जाने की अपनी मांग छोड़ दी। इस तरह विकसित और विकासशील देशों ने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में एक निश्चित अवधि के भीतर कटौती की जरूरत मान ली है। इसीलिए कानकुन सम्मेलन को कोपेनहेगन सम्मेलन से बेहतर नतीजा देने वाला सम्मेलन माना जाता है।
कानकुन सम्मेलन में भारत की भूमिका काफी रचनात्मक रही। भारत के पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश ने सम्मेलन में जो भूमिका निभाई, उसकी सराहना जर्मनी जैसे उन्नत देश और मालदीव जैसे द्वीपीय देशों ने भी की है। जर्मनी की चांसलर सुश्री एंगेला मर्केल ने जहां श्री रमेश की रचनात्मक भूमिका की सराहना करते हुए कहा कि उन जैसे लोगों के योगदान के कारण ही ‘कानकुन’ विफल नहीं हो सका, वहीं मालदीव के पर्यावरण मंत्री श्री मोहम्मद असलम ने कहा कि श्री रमेश ने विकसित और विकासशील देशों के बीच खाईं को पाटने में अहम भूमिका निभाई है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री श्री रमेश ने समझौते को ऐतिहासिक करार देते हुए कहा है कि इससे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के आगे के रास्ते खुल गये हैं। उन्होंने कहा कि कानकुन में सभी हारे और सभी जीते। समझौते में ऐसी कई बातें हैं जिनके बारे में भारत समेत कई देशों को आपत्तियां भी हैं, फिर भी उन्होंने उम्मीद जताई कि अगले वर्ष डरबन (दक्षिण अफ्रीका) में होने वाले सम्मेलन तक अधिकांश मुद्दों को हल कर लिया जायेगा।
कानकुन सम्मेलन अपेक्षाओं पर भले ही खरा न उतरा हो, परंतु नाकाम होने से बच गया, तो इसका बहुत कुछ श्रेय मेजवान देश की विदेश मंत्री सुश्री पेट्रीशिया एस्पीनोसा को भी जाता है। हरित कोष और हरित तकनीक की मदद के विषय पर विकसित देशों को मनाने की उनकी कोशिशें अंतत: रंग लाईं और अमेरिका, जापान तथा रूस के शुरूआती नकारात्मक रूख के बावजूद कानकुन में सहमति का दायरा बढ़ सका। इसीलिए यह उम्मीद जगी है कि अगले वर्ष इसी महीने जब डरबन में जलवायु परिवर्तन पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होगा, तब ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करने वाले देशों का नकारात्मक रवैया समाप्त हो जायेगा। वास्तव में जलवायु परिवर्तन के खतरनाक परिणामों से बचने के लिए दोनों ओर से ईमानदार कोशिश की जरूरत है।
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