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शनिवार, 28 मार्च 2015

बच्चों की शिक्षा से खिलवाड़ कब तक?

देश के बेहतर कल के लिए स्कूलों में शिक्षा नीति कैसी होनी चाहिए। इस बात को लेकर आज़ादी से लेकर आज तक मंथन का दौर जारी है। लेकिन सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर बेहद खराब है। इस बात का खुलासा खुद दिल्ली के उप मुख्यमंत्री ने किया। लेकिन शिक्षा नीति को लेकर मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने पूरी तरह से चुप्पी साध रखी है। यहां तक कि मनीष सिसोदिया समेत कई दूसरे नेताओं की ओर से पत्र भेजकर सभी बच्चों को पास करने की नो डिटेंशन नीति को लेकर सवाल उठाए जाने के बाद भी अभी तक स्मृति ईरानी ने किसी भी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। यह जानते हुए भी कि सवाल देश के करोड़ों स्कूली बच्चों के भविष्य से जुड़ा है। ऐसे में अगर दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर ठीक नहीं है तो देश के दूर-दराज के स्कूलों की हालत क्या होगी। इस बात का बेहतर अंदाजा लगाया जा सकता है। देश में बुनियादी शिक्षा और खासकर गांव में शिक्षा के प्रचार प्रसार को लेकर अनगिनत योजनाएं बनाई गई। इन्हीं में से एक नाम है सर्व शिक्षा अभियान। इस पर करोड़ों रुपये खर्च किए गए। लेकिन कोई ठोस परिणाम निकल कर सामने नहीं आया। गांवों में स्कूली शिक्षा को लेकर राज्यों के शिक्षा विभाग की अपनी अलग-अलग राय है। दिल्ली सरकार के मुताबिक स्कूली शिक्षा के गिरते स्तर के लिए टीचर और स्कूल प्रबंधन से ज्यादा देश की शिक्षा नीति जिम्मेदार है। वर्तमान में देश में लागू नो डिटेंशन पॉलिसी यानि सभी बच्चों को पास करने की नीति के कारण कक्षा आठ तक बच्चों की पढ़ाई को लेकर कोई चेक बैलेंस नहीं है। दिल्ली में स्कूली शिक्षा से संबंधित एक आंकड़े के मुताबिक पिछले 3 साल का रिकॉर्ड यह बताता है कि करीब 25 फीसदी अपने उस क्लास की परीक्षा में फेल हो जाते हैं लेकिन नो डिटेंशन पॉलिसी यानि सभी बच्चों को पास करने की नीति के तहत सभी बच्चों को पास करना पड़ता है। इस आंकड़े के मुताबिक 2012 में अपने क्लास में फेल होने का आंकड़ा 14 प्रतिशत, जबकि 2013 में यह आंकड़ा 20 प्रतिशत और 2014 में यह आंकड़ा तकरीबन 24 फीसदी तक पहुंच चुका है, यानि करीब 25 फीसदी बच्चे हर साल फेल होते हुए भी पास होते हैं। यह चौकाने वाला आंकड़ा दिल्ली के स्कूलों का है तो देश के दूसरे पिछड़े राज्यों के स्कूली बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। आज भी ग्रामीण इलाको में कई ऐसे स्कूल है जहां शिक्षक नहीं है। अगर शिक्षक है तो स्कूल में बच्चों को बैठने के लिए क्लास रुम नहीं है। बच्चे पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ाई करते हैं। ऐसे में सभी बच्चों को बिना उचित शिक्षा और बगैर किसी मापदंड के सीधे-सीधे पास करना किस हद तक उचित है। इससे बच्चों में पढ़ने की जिज्ञासा कम होती जा रही है। शिक्षकों में जिम्मेदारी की भावना में कमी आ रही है, क्योंकि सभी बच्चों को पास करना है, लिहाजा शिक्षक भी गंभीरता से बच्चों को नहीं पढ़ाते हैं। पूरे पाठ्यक्रम को लेकर बच्चों में पढाई के प्रति उदासीनता का भाव देखने को मिलता है। इसकी वजह यह है कि उन्हें पता है कि पास तो होना ही है। हमारे यहां पूरी शिक्षा व्यवस्था परीक्षा पद्धति पर आधारित है। लेकिन सबको पास करने की नीति की वजह से अब बच्चों में पढ़ाई के साथ ही परीक्षा को लेकर भी उदासीनता बढ़ती जा रही है। बावजूद इसके बच्चे आसानी से आठवीं क्लास तक तो पास कर जाते हैं। लेकिन 9वीं क्लास में आते ही उनके सामने मुसीबत खड़ी हो जाती है। यही कारण है कि 9वीं क्लास में सबसे ज्यादा बच्चे फेल हो रहे हैं। इससे नई पीढ़ी को ज्यादा नुकसान उठाना पड़ रहा है। साथ ही देश और समाज में भी ऐसे बच्चों की संख्या बढ़ती जा रही है जो पढ़ लिखे तो है लेकिन समझदार नहीं है। लिहाजा शिक्षा के अधिकार कानून में बदलाव लाने की ज़रुरत है, जिसके तहत सभी बच्चों को पास करने की नीति तीसरी क्लास तक ही लागू रहनी चाहिए। इसके बाद चौथी क्लास से शिक्षा के गुणवत्ता के स्तर पर विशेष ध्यान देने की ज़रुरत है। इस बात को ध्यान में रखकर यूपीए सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून में बदलाव करने की तैयारी की थी। लेकिन अभी तक इस दिशा में कुछ भी नहीं किया गया है। केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की एक सब-कमेटी ने इस मामलों में कुछ सिफारिशें की थी। इस सब कमेटी की अध्यक्ष हरियाणा की पूर्व शिक्षा मंत्री गीता भुक्कल थी। लेकिन इस सब-समिति की सिफारिशों पर मोदी सरकार का मंथन जारी है। यूपीए सरकार ने मार्च 2010 में शिक्षा का अधिकार कानून लागू किया था। इस कानून में पहली से लेकर आठवीं तक के छात्रों के लिए फेल नहीं करने की नीति लागू की गई थी। इसके बाद छात्रों में पढ़ाई के प्रति बढ़ती लापरवाही को कम करने के लिए पंजाब जैसे राज्यों में दो बार बच्चों को मूल्यांकन परीक्षा से गुजरना होगा। हलांकि ऐसे मूल्यांकन के जरिए भी छात्रों को फेल नहीं किया जाएगा। लेकिन इसके जरिए यह जानने की कोशिश की जाएगी कि बच्चों में पढ़ाई का स्तर क्या है। हाल के सालों में देखने में आया है कि पहली से आठवीं कक्षा तक सभी बच्चों को पास करने की नीति अपनाने के बाद शिक्षक और छात्र पढ़ाई के प्रति गंभीर नहीं हो रहे हैं। इसका असर दसवीं और बारहवीं कक्षा के परिणाम पर भी पड़ा है। पहले जहां दोनों कक्षाओं का वार्षिक रिजल्ट 70 से 75 प्रतिशत तक रहता था, वह अब 50 से 60 फीसदी के बीच पहुंच गया है। देश में शिक्षा के गिरते स्तर को लेकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय भी अच्छी तरह से वाकिफ है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता को बेहतर करने की कोशिशें केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से हाल के दिनों में की गई है। लेकिन उससे भी कही ज्यादा ज़रुरी प्राथमिक स्कूलों में बच्चों की पढ़ाई के गिरते स्तर को सुधारने की है। हलांकि सेंट्रल एडवाइजरी बोर्ड तो नो-डिटेंशन पॉलिसी की विफलता को देखते हुए दोबारा से पांचवीं और आठवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा शुरू करने की सिफारिश तक कर चुका है। लेकिन देखना है कि सरकार बच्चों की शिक्षा से जुड़े इस संवेदनशील मुद्दे पर कब कारगर कदम उठाती है।

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