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मंगलवार, 3 जनवरी 2017
साइकिल के जरिए सत्ता की खातिर समाजवादियों की जंग
लखनऊ में शुरू हुई समाजवादी पार्टी के कुनबे की कलह ने पहले परिवार में दरार पैदा की। उसके बाद समाजवादी पार्टी को दो हिस्सों में बांटा और अब समाजवादियों की लड़ाई दिल्ली में चुनाव आयोग के दफ्तर में लड़ी जा रही है। पहले मुलायम सिंह यादव, शिवपाल यादव, अमर सिंह और जयप्रदा की टोली ने सोमवार को चुनाव आयोग के सामने चुनाव चिन्ह साइकिल पर अपने दावे को लेकर अपना पक्ष रखा। आज सीएम अखिलेश यादव खेमे के नेता नरेश अग्रवाल, किरणमय नंदा और रामगोपाल यादव ने भी चुनाव आयोग के सामने अपना पक्ष रखा और कहा कि 90 फीसदी पार्टी के कार्यकर्ता सीएम अखिलेश यादव के साथ है, लिहाजा विधानसभा चुनाव में साइकिल कि सवारी करने का हक उन्हें ही मिलना चाहिए। सूत्रों के मुताबिक अखिलेश यादव ने प्लान बी भी तैयार कर रखा है। इसके अनुसार अगर उन्हें साइकिल चुनाव चिन्ह नहीं मिला तो वह साइकिल की दोनों टायर पंचर भी कर सकते हैं यानि चुनाव आयोग से लेकर अदालत तक में इस बात को लेकर गुहार लगा सकते हैं कि साइकिल चुनाव चिन्ह को फिलहाल फ्रीज कर दिया जाए। हालांकि ज्यादातर विशेषज्ञों का भी यहीं मानना है कि चुनाव की तारीख बेहद करीब है ऐसे में इस तरह के मामलों की सुनवाई और उस पर अंतिम फैसला देने में करीब-करीब 6 महीने का वक्त लग जाता है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त वाइ एस कुरैशी ने भी तेलगु देशम पार्टी के मामले में एनटीआर औऱ चंद्रबाबू नायडू के मामले का हवाला देते हुए कहा कि उस वक्त इसलिए फैसला दिया जा सका क्योंकि चुनाव सिर पर नहीं था। दूसरी बात उन्होंने यह कही कि लोकतंत्र में संख्या का बड़ा ही महत्व होता है। लिहाजा विधायक, सांसदों और पार्टी कार्य़कर्ताओं की संख्या जिसके पास ज्यादा होगी, असल में पार्टी पर उसी का हक ज्यादा बनता है। इस लिहाज से देखें तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का दावे में भी दम नज़र आता है। मुलायम खेमा यह दावा कर रहा है कि अखिलेश और रामगोपाल यादव को पार्टी में वापस लेने की घोषणा तो की गई लेकिन इस बारे में औपचारिक तौर पर कोई आदेश नहीं जारी किया गया। लिहाजा ऐसे में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और राज्यसभा सांसद रामगोपाल यादव को समाजवादी पार्टी के नाम पर आपात राष्ट्रीय महाधिवेशन बुलाने का कोई हक़ नहीं है। लेकिन रामगोपाल यादव का कहना है कि महाधिवेशन बुलाने की घोषणा उन्होंने तब की थी जब वह समाजवादी पार्टी में बतौर महासचिव काम कर रहे थे और उन्हें उस वक्त पार्टी से नहीं निकाला गया था। और जब वह महाधिवेशन में हिस्सा ले रहे थे उससे एक दिन पहले समाजवादी पार्टी में उनकी वापसी हो चुकी थी। ऐसे में उन्होंने जो कुछ भी किया वह समाजवादी पार्टी के संविधान के अनुसार ही है। लेकिन मुलायम खेमा और अखिलेश खेमा दोनों एक दूसरे के दावों को नकार रहे हैं।
पिछले तीन महीने से समाजवादी पार्टी में जारी घमासान में हर दिन परिवार से लेकर पार्टी तक में तकरार, दरार और दंगल की खबरें लगातार आ रही है। कुछ लोगों के लिए यह रोचक हो सकता है। लेकिन ज्यादातर लोगों का मानना है कि यह बाप और बेटे के बीच की लड़ाई है। कभी पिता पुत्र पर भारी दिखाई देता है तो कभी बेटा इस लड़ाई में दो कदम आगे दिखाई देता है। इस मामले में अंदरुनी जानकारी रखने वालों का कहना है कि पूरे फसाद की जड़ कहीं और है। इस मामले का सबसे अहम पहलू मुलायम सिंह यादव के परिवार में उनकी दूसरी पत्नी साधना गुप्ता, दूसरी पत्नी का बेटा प्रतीक यादव और उनकी पत्नी अपर्णा यादव हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक अखिलेश यादव के बढ़ते कद से मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता, बेटे प्रतीक यादव और उनकी पत्नी अपर्णा यादव को परेशानी हो रही थी। इनसभी लोगों को यह लग रहा था कि जिस तरीके से अखिलेश मुलायम सिंह यादव के बेटे है उसी तरीके से प्रतीक भी है। लेकिन हकीकत में मुलायम सिंह की राजनीतिक विरासत का असली वारिस तो अखिलेश यादव बनते जा रहे हैं। यहीं सही वक्त है कि अखिलेश को आगे बढ़ने से रोका जाए। अगर ऐसा अभी नहीं किया गया तो आगे चलकर अखिलेश यादव को रोकना किसी के लिए भी संभव नहीं होगा। इस बात की भनक जैसे ही शिवपाल और अमर सिंह को लगी। दोनों बेहद खुश हुए। क्योंकि उन्हें तो जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई। उन्हें ऐसे ही मौके की तलाश थी। दोनों ने मिलकर साधना गुप्ता के जरिए मुलायम सिंह का ब्रेनवाश किया और पहले अमर सिंह सांसद बने, फिर परिवार में साधना गुप्ता और प्रतीक यादव को आगे बढ़ाने के नाम पर सीएम अखिलेश यादव के लिए मुश्किले खड़ी करने के खेल की शुरुआत कर दी गई।

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