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बुधवार, 22 दिसंबर 2010

उड़िया फिल्म निर्माण के 75 वर्ष : पृष्ठभूमि पर एक नजर

28 अप्रैल, 1936 को मोहन सुंदर देब गोस्वामी द्वारा प्रथम बोलती उड़िया फिल्म सीता बिबाह का प्रदर्शन दीर्घकालीन फिल्म आन्दोलन की दिशा में एक विशेष क्षण था और इसने स्थानीय पहचान की अभिव्यक्ति को एक नया आयाम दिया। लंबे समय के संघर्ष के बाद, इसी वर्ष 1 अप्रैल को भाषा विज्ञान के क्षेत्र में एक राष्‍ट्रीय विचारधारा के गठन से ठीक पहले यह महत्वपूर्ण कार्य हुआ। भारतीय राजतंत्र में बाद के वर्षों में देश के भाषा विषयक राज्यों के लिए यह एक अग्रदूत थी।
ऐतिहासिक 1 अप्रैल से सिर्फ एक सप्ताह पूर्व, सीता बिबाह का 12 रीलों वाला प्रथम प्रिंट पहले से 25 मार्च को तैयार हो चुका था और 29 मार्च को कोलकाता के भ्रमणकारी सिनेमा में दिखाया गया। हालांकि, फिल्म मात्र 29,781 रूपए और 10 आना के छोटे-से बजट में ही तैयार हुई थी और औपचारिक रूप से 28 अप्रैल को ओडीशा के पुरी में लक्ष्मीटाकी में प्रदर्शित की गई।
आज जब हम फिल्म निर्माण के पिछले 75 वर्षों को देखते हैं तो बहुत सी चींजें धुंधली हो सकती हैं पर फिर भी यह एक विशिष्ट उड़िया पहचान का स्पष्ट प्रभाव देती हैं।
व्यापक रूप में, उड़िया फिल्म निर्माण से जुड़े वर्षों को 25 वर्षों के तीन बराबर चरणों में विभाजित किया जा सकता है-पहला चरण संघर्ष और विकास का था, द्वितीय स्वर्णिम समय रहा और तृतीय एक भरपूर निर्माण के साथ गुणवत्तापूर्ण मानकों और सौन्दर्यपरकता से भी समझौते का समय था।
दूसरी उड़िया फिल्म ललिता 1949 में बनी और इसके बाद 1960 के दशक की शुरूआत तक करीब 1 दर्जन फिल्में बनाई गईं। यदि हम पिछले एक वर्ष में फिल्म निर्माण पर गुणात्मक दृष्टि डालते हैं तो अंतिम चरण में पिछले वर्षों में फिल्म निर्माण की संख्या एकल अंक से बढ़कर दो अंकों में पहुंच गई है।
पिछले ढाई दशकों में, 1960 से 1985 के बीच, मनीकजोड़ी (प्रभात मुखर्जी, 1964), अम्दाबता (अमर गांगुली, 1964), अभिनेत्री (अमर गांगुली, 1965), मालान्जन्हा;(निताई पलित, 1965), मैत्रा मनीषा (मृणाल सेन, 1966), अरूंधति (प्रफुल्ल सेनगुप्ता, 1967), काई कहारा (निताई पलित, 1968), अदिना मेघ (अमित मैत्रा, 1970), घर बहुधा, (सोना मुखर्जी, 1973), धरित्री, (निताई पलित, 1973), जाजाबारा, (त्रिमूर्ति, 1975), गापा हेले बी साता (नागेन रे, 1976), शेष श्रवण (प्रशांत नंदा, 1976), अभिमान, (साधु मेहर, 1977), चिल्का टायर (बिप्लब रॉय चौधरी, 1978), सितारती, (मनमोहन महापात्रा, 1983), माया मृग, (निरद महापात्रा, 1984) और धारे अलुआ, (सगीर अहमद, 1984) जैसी फिल्में कलापूर्ण श्रेष्ठता और व्यवसायिक रूप से परिपूर्ण थीं और इन्होंने स्वर्णिम युग कहे जाने में अपना योगदान दिया ।
अस्सी के दशक में, उड़िया सिनेमा के कलापूर्ण और सौन्दर्यपरक विषयों ने अपने आप को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में ढाल लिया। 1984 में, निरद महापात्रा की फिल्म माया मृग राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने वाली फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ रही और विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में भी इसे आधारिक तौर पर शामिल किया गया। हालांकि राष्ट्रीय पहचान पाने में इसे एक और दशक लगा। 1994 में, सुसान्त मिश्रा की इन्द्रधर्नुर छाई पर राष्ट्रीय स्तर पर जूरी का विशेष ध्यान गया और कान फिल्म महोत्सव के अन-सरटेन रिगार्ड सैक्शन में यह प्रतिस्पर्धात्मक दौर में रही। फिर इसे रूस के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव एसओसीएचआई में ग्रैंड प्रिक्स हासिल हुआ।
फिर से करीब 15 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद, प्रशांत नंदा की जिंन्ता भूटा ने 2009 में पिछले वर्ष पर्यावरण श्रेणी में राष्ट्रीय पुरस्कार जीता। इस प्रकार से राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय स्तरों पर उड़िया फिल्म की स्थिति का मूल्यांकन हुआ। हालांकि उड़िया फिल्में लगभग निरंतर हर वर्ष सर्वश्रेष्ठ क्षेत्रीय श्रेणी में राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुकी हैं। उनके निर्देशक जैसे मनमोहन महापात्रा, सगीर अहमद, ए.के. बिर, शांतनु मिश्रा, प्रणब दास, हिमांशु खतुआ और सुबास दास विशेष श्रेणी में आते हैं।
राष्ट्रीय संदर्भ में उपस्थिति दर्ज कराने के लिए भारतीय पैनोरमा में कदम रखना एक मील का पत्थर है। मनमोहन महापात्रा की सितारती पहली बार 1983 में भारतीय पैनोरमा में शामिल हुई और वर्तमान वर्ष में, सुधांशु साहू की स्वयंसिध्दा; ए गर्ल ऑन द रैड कॉरीडोर को इसमें 12वां स्थान मिला। निरद महापात्रा, सगीर अहमद,, बिप्लब रॉय चौधरी, सुसान्त मिश्रा, बिजय केतन मिश्रा और प्रफुल्ल मोहन्ती जैसे अन्य निर्देशकों ने सिनेमा को उच्च आयाम तक पहुंचा दिया।
जब 1970 के मध्य दशक के दौरान फिल्म देखने के मामले में बहुत रूझान नहीं था ऐसे में प्रशांत नंदा की शेष श्रवण, 1976, और साधु मेहर की अभिमान, 1977 लोगों को वापस सिनेमा हॉल की तरफ लेकर आईं। गीत और संगीत भी उड़िया सिनेमा में एक महत्वपूर्ण उपस्थिति रखता है। पहली फिल्म सीता बिबाह में कुल 14 गाने थे सभी को क्षेत्रीय लोकगायन अंदाज में पारंपरिक संगीत साजों के साथ कलाकारों द्वारा गाया गया था। हालांकि ललिता में, पार्श्वगायकी की पहल संगीतकार गौरी गोस्वामी और सुरेन पाल के निर्देशन में की गई थी और गीत खासतौर पर कबिचंद्रा कालीचरण पाठक द्वारा लिखे गये थे। 1950 में बनी तीसरी फिल्म श्री जगन्नाथ में रंजीत रॉय और बालकृष्ण दास के संयुक्त संगीत निर्देशन में चार पार्श्वगायक थे। 1959 में अक्षय मोहन्ती ने भुवनेश्वर मिश्र के संगीत निर्देशन के साथ पार्श्वगायक के तौर पर मां फिल्म बनाई। एक अन्य पार्श्वगायक सिकन्दर आलम ने 1963 में बालकृष्ण दास के संगीत निर्देशन में सूर्यमुखी बनाई। नारायण प्रसाद सिंह और देबदास छोटरे ने गीतकारों के साथ-साथ 1962 में नुआबाउ और 1967 में का के साथ अपनी शानदार उपस्थिति दर्ज कराई। इस समय तक गीत और संगीत पूरी तरह से पारंपरिक और देसी रागों पर आधारित था।
पश्चिमी संगीत से प्रभावित होकर, शांतनु महापात्रा ने 1963 में सूर्यमुखी में एक आधुनिक रूख को प्रस्तुत किया जबकि अक्षय मोहन्ती ने 1965 में मालाजन्हा में संगीत निर्देशक के तौर पर कदम रखा। प्रफुल्ल कर 1975 में बनी ममता में पहली बार संगीतकार के रूप में सामने आये। जबकि बालकृष्ण दास उड़िया लोकसंगीत गायकी और बोली के साथ प्रयोग कर रहे थे, भुवनेश्वर मिश्र, शांतनु महापात्रा और अक्षय मोहन्ती ने उड़िया पारंपरिक धुन को पश्चिमी धुनों से जोड़ा। उन्होंने उड़िया फिल्म गीतों में आधुनिक गायकी को बढ़ावा दिया।
प्रफुल्ल सेनगुप्ता की 1967 में बनी अरूंधती, उड़िया फिल्म परंपरा में एक मील का पत्थर बनी क्योंकि इसमें संगीतकार शांतनु महापात्रा के निर्देशन में गीतकार जीबननंदा के गीतों को मौ. रफी और लता मंगेशकर ने अपनी आवाज के जादू से अमर कर दिया।
मलय मिश्र और बिकास दास जैसे संगीतकारों के हाथों में उड़िया फिल्मों का भविष्य उज्ज्‍वल नजर आता है क्योंकि वे नेईजारे मेघ माटे और अजि आकाशे की रंग लगिला में हिट संगीत देकर अपनी योग्यता को सिध्द कर चुके हैं।
जहां एक तरफ शुरूआती दौर में, विषयपरक कहानियों की पंक्तियां पौराणिक कथाओं पर आधारित होती थीं वहीं 1953 की अमारी गान जुहा और 1956 की भाई-भाई के बाद से यह समाजिक संदर्भो से जुड़ें विषयों की तरफ मुड़ गईं। 1960 के दशक के दौरान, मनिकाजोडी, अमदा बता, अभिनेत्री, मालाजन्हा, मैत्रा मनीषा और अदिना मेघा काफी लोकप्रिय लेखन पर आधारित थीं। 1960 और 1970 दोनों दशकों में, महिलाएं ही उड़िया सिनेमा में अपनी व्यथा, प्रसन्नता, भावनाओं और बॉक्स ऑफिस के रैंक पर आधारित बाहरी और आंतरिक मूल्यांकनों में मुख्य भूमिका में रहीं।
पिछले 75 वर्षों में समृध्द उड़िया फिल्म इतिहास और अपने हरफनमोला व्यक्तित्वों के साथ विचारणीय विषयों और स्टाईलिश परिवर्तनों से गुजर चुका है। इससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे ओडीशा देश में एक प्रमुख फिल्म निर्माण केन्द्र के रूप में विकसित हो चुका है।

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