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शनिवार, 1 मार्च 2014

अतिशा दीपांकर ज्ञानश्री का जीवन आदर्श का प्रतीक

महामहिम दलाई लामा के आध्यात्मिक पिता श्री अतिशा दीपांकर ज्ञानश्री का जन्‍म बंगाल के बिक्रमपुर क्षेत्र के वज्रयोगिनी गांव में, जो अब बांग्लादेश में स्थि‍त है, वर्ष 982 में हुआ था। वे 10वीं- 11वीं सदी के एक महान संत और दार्शनिक थे, जो ज्ञान प्रणालियों के प्रचार - प्रसार के लिए विदेश जाने वाले महान भारतीय शिक्षक भी थे। पिछले सदियों में उन्‍हें भारत में लगभग भुला दिया गया है, लेकिन जिन देशों में बौद्ध धर्म मौजूद है उनमें उन्‍हें लगभग 1000 वर्षों से एक महान व्यक्ति के रूप में पूजनीय माना जाता है। वे शांति, दया, मानवता, सद्भाव, आत्म-बलिदान और मैत्री के प्रतीक माने जाते हैं, जिन्‍होंने ओदनरापुरी, विक्रमशिला, सोमापुरी, नालंदा और अधिकांश विश्वविद्यालयों और मठ परिसरों में धर्म के प्रचार के लिए अपना समस्‍त जीवन समर्पित किया। उन्‍होंने बौद्ध धर्म की नींव डालकर बौद्ध धर्म के ज्ञान और बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान के समावेश में अपनी साधुता से महत्‍वपूर्ण योगदान दिया है। उनके उपदेशों ने भिक्षुओं के साथ-साथ तिब्‍बत के सामान्‍य जनों के जीवन में नैतिक शुद्धता, आत्म-बलिदान, चरित्र श्रेष्‍ठता और आदर्शवाद, सामाजिक, आर्थिक और सांस्‍कृतिक क्षेत्रों में क्रांति लाने में उत्‍प्रेरक का काम किया। तिब्बत की जनता और राजाओं ने भ्रष्टाचार और पतन की स्थितियों को दूर करने और सुधार लाने के लिए उन्‍हें आमं‍त्रित करने हेतु बलिदान दिये। उन्‍होंने बौद्ध धर्म के थेरावड़ा महायान, और वज्रयान मतों पर अनुदेशों को अपनाया, उसका प्रचार किया और उनमें प्रवीणता प्राप्‍त करने के साथ-साथ वैष्‍णववाद, शैववाद और तांत्रिकवाद और गैर- बौद्धिक मतों सहित संगीत और तर्क शास्‍त्र सहित 64 प्रकार की कलाओं का भी अध्ययन किया और केवल 22 वर्ष की उम्र में इनमें विद्वता प्राप्‍त की। उस समय उन्‍हें भारत में बौद्ध धर्म की सभी परंपराओं में बहुत विद्वान माना जाता था। 31 वर्ष की उम्र में उन्‍होंने प्रसिद्ध सुवर्णद्विपी धर्मकीर्ति के सानिध्‍य में अध्‍ययन के लिए सुमात्रा की खतरनाक यात्रा की थी। देवी तारा उनकी मार्गदर्शक करने वाली आत्‍मा थी, जो उनके जीवन के अंत तक उनके साथ बनी रही। अतिशा सुमात्रा में 12 वर्ष तक रहे और 10 वर्ष से अधिक के गहन प्रशिक्षण के बाद वे मगध वापस आए। उन्‍हें बौद्ध विश्वविद्यालय, विक्रमसिला में कोषाध्यक्ष, या मठाधीश नियुक्त किया गया था। इस विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना बंगाल के राजा धर्मपाल ने की थी, जो प्रसिद्ध के शिखर तक पहुंच गया। 11 सदी में तिब्‍बत के राजा ब्‍यांग चुग ओड ने उन्‍हें आमंत्रित किया, क्‍योंकि तिब्‍बत में बौद्ध धर्म की परंपरा राजा लांग-दास- मा-के क्रूर शासन के कारण लगभग समाप्‍त हो गई थी। तिब्‍बत बौद्धिक परंपराओं में पिछले 10 सदियों से वह महत्‍वपूर्ण व्‍यक्तित्‍व रहे हैं, क्‍योंकि उन्‍होंने तिब्‍बत में महायान परंपरा को इसकी श्रेष्‍ठता के साथ ज्ञान के पथ को आलोकित करने के लिए एक दीपक की तरह स्‍थापित किया है। उन्‍होंने बौद्धिचित के माध्‍यम से मन के प्रशिक्षण के रूप में बौद्धिक परंपराओं को पुनर्जीवित, परिष्‍कृत, क्रमबद्ध और संकलित किया है। अतिशा ने 200 से अधिक संस्‍कृत पुस्‍तकों को तिब्‍बती भाषा में लिखा, अनुवाद किया और संपादन किया। उन्‍होंने बौद्धिक धर्मग्रंथों, चिकित्‍सा विज्ञान और तकनीकी विज्ञान पर तिब्‍बती भाषा में अनेक पुस्‍तकें भी लिखीं। अतिशा ने लहासा के निकट नेतांग शहर में अपने जीवन के 9 वर्ष व्‍यतीत किेये, जहां उन्‍होंने संस्‍कृत और तिब्‍बती भाषाओं में लिखे महत्‍वपूर्ण संग्रहों वाली तिब्‍बती पुस्‍तकालय की खोज की। लहासा के निकट एक गांव में 72 वर्ष की उम्र में उनका देहांत हो गया। नेतांग शहर में उनके स्‍थाई घर के पास उनकी समाधि बनाई गई। उनके परम शिष्‍य द्रोमटोम्‍पा जो उनके प्रमुख शिष्‍य भी थे, उनकी विरासत को संभाला जो बाद में बौद्ध धर्म की कदाम्‍पा परम्‍परा के रूप में विख्‍यात हुए। इस परम्‍परा को बाद में गेलुग परम्‍परा के संस्‍थापक तिब्‍बती शिक्षक सोम-खा-पा ने पुनर्जीवित किया। अतिशा की शिक्षाओं ने मठ परम्‍परा के लिए बहुमूल्‍य योगदान किया और एक सहस्त्र वर्ष पूर्व समुदायों की नींव रखी। अतिशा के जीवन और पवित्रता के अज्ञात पहलुओं के बारे में अनुसंधान, ध्‍यान और उन्‍हें पुनर्जीवित करने के लिए वर्तमान काल की प्रणालियों में वृद्धि करना तथा भारतीय इतिहास के विस्‍मृत पृष्‍ठ को लिखना आवश्‍यक है। आज विश्‍व प्रौद्योगिकी के विकास, लोभ, भूख और हिंसा में बढ़ोतरी से ग्रस्‍त है। मानवीय मूल्‍य और सामाजिक दायित्‍व अपना स्‍थान खो रहे हैं। सदियों की खामोशी के बाद भारत एक अंतर्राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन और प्रदर्शनी के द्वारा उन क्षणों के निमित्त यह आयो‍जन कर रहा है, जब वे अतिशा, दीपेन्‍द्र, ज्ञानश्री अपने जीवन का बलिदान देते हुए बर्फीले देश में गये थे। अतिशा के प्रमुख शिष्‍य ने कदाम्‍पा संप्रदाय की स्‍थापना की थी, जो बाद में दलाई लामाओं का इतिहास गेलुक्‍पा बन गया। सोंगकप्‍पा के परम विशिष्‍ट शिष्‍य पहले दलाई लामा 'जेन्‍डुनड्रुप' अतिशा के अनुयायी थे। उन्‍होंने अनेक भारतीय मठों में अध्‍ययन किया और वह इं‍डोनेशिया गये, जहां अध्‍ययन के लिए उन्‍होंने खतरनाक यात्रा की तथा विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय में विश्‍व के प्रख्‍यात अध्‍यापक धर्मकीर्ति के नेतृत्‍व अध्‍ययन किया तथा वे इसी विश्‍वविद्यालय में कोषाध्यक्ष/मठाधीश के रूप में लंबे समय तक कार्यरत रहे। वे नेपाल के रास्‍ते तिब्‍बत गए तथा पश्चिमी और केन्‍द्रीय तिब्‍बत (चीन) के कई मठों और मंदिरों में भी उन्‍होंने निवास किया। इन सभी स्‍थानों से प्राप्‍त फोटो प्रलेखनों को भी प्रदर्शित किया गया है। जिन मठों और मंदिरों का उन्‍होंने भ्रमण किया, जहां वे रहे, जहां उन्‍होंने उपदेश दिये और संस्‍कृत के सूत्रों का जनता की भाषा में पाठ किया। वहां उनकी स्‍मृति और स्‍मृति चिन्‍ह संरक्षित हैं। मन रूपी बंजर भूमि में उनकी दैविक दृष्टि आज भी पल्‍लवित हो रही है। आज मनोहर मठों में मन की मरू भूमि से गुजरती हुई ज्ञान रूपी पवित्र धारा बह रही है। दूरदराज के विभिन्‍न विद्वानों, पुरातत्‍वविदों, खोजकर्ताओं और आध्‍यात्मिक नेताओं से प्राप्‍त प्रलेखन योगदान ने अतिशा की घर वापसी की है। अंतर्राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन और प्रदर्शनी में शांति, कल्‍याण, प्‍यार और बलिदान के प्रतीक अतिशा के बारे में प्रदर्शन किया गया है। उन्‍होंने उपाय की एकता परिज्ञान तथा नागार्जुन, चन्‍द्रकीर्ति से जुड़े सार्वभौमिक मुक्ति की 6 परमिताओं-दान पुण्‍य, ज्ञान, प्रयास, शांति और योग के बारे में उपदेश दिये हैं। इसमें से पांच अतिशा के अनुसार ही हैं, जिनका उपयोग करके मनुष्‍य अपना बौद्धिक विकास कर सकता है। एक सच्‍चे बौद्ध के लिए चरित्र विकास सबसे महत्‍वपूर्ण है। उन्‍होंने लोगों को ज्ञान की स्‍पष्‍ट और प्रगतिशील राह दिखाई है।

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