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सोमवार, 24 फ़रवरी 2014
गांधीजी के सपनों का भारत और हिंद स्वराज
महात्मा गांधी ने सन् 1909 में इंग्लैंड से वापस दक्षिण अफ्रीका लौटने के दौरान 'किल्जेनन कैसल' नामक जहाज पर 'हिंद स्वराज'' नामक पुस्तक की रचना की थी जो सबसे पहले 'इंडियन ओपनीयन' दिसंबर 2009 के दो अंकों में 'इंडियन होम रूल' नाम से प्रकाशित हुई थी। मूलत: गुजराती में लिखी गई इस पुस्तक में 20 अध्याय हैं, जिसका प्रकाशन 1910 में हुआ। गांधीजी भारत में ब्रिटिश अफसरों द्वारा किये गये अपमान का बदला लेने के लिए मदन लाल ढींगरा द्वारा ब्रिटिश अधिकारी कर्जन वाइली की हत्या की घटना की सूचना पाकर विचलित हो उठे थे। उन्हें इस बात से तब और अधिक चिंता होने लगी थी कि इस घटना को भारत के अधिसंख्य युवाओं का समर्थन है। यही नहीं, अपने इंग्लैंड प्रवास के दिनों में कुछ ऐसे दलों के नेताओं से उनकी मुलाकात हुई जो स्वतंत्रता पाने के लिए अंग्रेजाें की हत्या करना भी उचित ठहराते थे। गांधीजी को उन्हें समझाने के प्रयास में सफलता नहीं मिल पायीं। तब उन्होंने इन सारी स्थितियों के बारे में चिंतन-मनन किया और फिर वहां से दक्षिण अफ्रीका की वापसी यात्रा में 'हिंद स्वराज' की रचना की। गांधीजी ने इस पुस्तक में यह समझाने का प्रयास किया कि स्वराज्य तभी प्राप्त हो सकता है जब भारत की महान सभ्यता का भारतीय अनुसरण करें तथा स्वंय को आधुनिक सभ्यता के विनाशकारी प्रभावों से बचा कर रख सकें। उनका यह स्पष्ट मानना था कि हिंसा को भारतीय सभ्यता में कोई स्थान नहीं है। 'हिंद स्वराज्य' में गांधीजी ने स्वराज्य में शिक्षा के महत्व पर चर्चा की है। वे भारत में दी जा रही उच्च शिक्षा को इसलिए महत्वहीन मानते थे क्योंकि उनका मानना था कि वह छात्रों को जीवनगत मूल्यों की शिक्षा नहीं देती। पुस्तक के 20 अध्यायों में से 11वें अध्याय तक ऐतिहासिक संदर्भों पर विचार किया गया है लेकिन बाद के नौ अध्यायों में स्वराज्य को परिभाषित करते हुए सभ्यता के स्वरूप पर चर्चा करने के साथ धर्म के अभिप्राय को समझाते हुए वास्तविक होमरूल के लिए स्वशासन की आवश्यकता के महत्व को रेखांकित किया गया है।
गांधीजी के अनुसार : स्वराज एक पवित्र शब्द है ; यह एक वैदिक शब्द है, जिसका अर्थ आत्मशासन और आत्म संयम है, अंग्रेजी शब्द इंडिपेंडेंस अक्सर सब प्रकार की मर्यादाओं से मुक्त निरंकुश आजादी का या स्वच्छंदता का अर्थ देता है। वह अर्थ स्वराज्य में नहीं है।
( यंग इंडिया 31.31.931)
'हिंद स्वराज' पुस्तक की रचना की शताब्दी मनायी जा चुकी है। बीते सौ साल में इस पुस्तक में की गयी स्थापनाओं का महत्व आज भी अप्रासंगिक नहीं हुआ है, यह इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है। गांधीजी अजीवन इस पुस्तक में स्थापित अपनी मान्याताओं पर अडिग रहे और उन्होंने इसे एक ऐसी युगांतरकारी पुस्तक के रूप में अमर कर दिया जो युगों-युगोंतक मार्गदर्शन के लिए सर्वथा उपयुक्त ही नहीं बल्कि महत्वपूर्ण भी है।
अंहिसा का मार्ग
गांधीजी का कहना था कि मेरी अहिंसा वह अहिंसा है जहां सिर्फ एक मार्ग होता है अहिंसा का मार्ग। उनका विचार था कि अहिंसा के मार्ग का प्रथम कदम यह है कि हम अपने दैनिक जीवन में सहिष्णुता, सच्चाई, विनम्रता, प्रेम और दयालुता का व्यवहार करें।
उन्होंने कहा था कि अंग्रेजी में एक कहावत है कि ईमानदारी सबसे अच्छी नीति है। नीतियां तो बदल सकती हैं और बदलती हैं। परन्तु अहिंसा का पंथ अपरिवर्तित है।
गांधीजी मानते थे कि अहिंसा की बात सभी धर्मों में है। उन्होंने कहा कि अहिंसा हिंदू धर्म में है, ईसाई धर्म में है, और इस्लाम में भी है। उनका कहना था कि पवित्र कुरान में सत्याग्रह का पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध है। उन्होंने इस्लाम शब्द का अर्थ 'शांति' बताया जिसका तात्पर्य है अहिंसा। उन्होंने कहा कि अहिंसा का ढृढ़ता से आचरण अवश्य हमें सत्य तक ले जाता है जो हिंसा के व्यवहार से संभव नहीं है, इसलिए अहिंसा पर मेरा दृढ़ विश्वास है।
रामराज्य की परिकल्पना
गांधीजी ने अपने विचारों में स्वराज्य के साथ आदर्श समाज, आदर्श राज्य अथवा रामराज्य का कई बार प्रयोग किया है, जो वास्तव में लगभग एक हैं। रामराज्य को बुराई पर भलाई की विजय के रूप में देखते हैं। स्वराज्य को वे ईश्वर के राज्य के रूप में मानते हैं क्योंकि उनके लिए ईश्वर का अर्थ है सत्य। अर्थात सत्य ही ईश्वर है- सत्य ही चिरस्थायी है। सत्य की व्याख्या करते हुए गांधी जी यह भी कहते हैं कि किसी विशेष समय पर एक शुध्द हृदय जो अनुभव करता है वह सत्य है और उस पर अडिग रह कर ही शुध्द सत्य प्राप्त किया जा सकता है। वे और आगे इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सत्य की साधना आत्मपीड़न एवं त्याग से ही संभव है।
गांधीजी के विचार में सत्य, अहिंसा से ही जाना जाता है। सत्य के समान अहिंसा की शक्ति असीम और ईश्वर पर्याय है। सत्य सर्वोच्च कानून है और अहिंसा सर्वोच्च कर्तव्य। वे कहते हैं कि अहिंसा का तात्पर्य कायरता नहीं है। इन दोनों का अस्तित्व एक साथ संभव नहीं है। उनके लिए अहिंसा न केवल संपूर्ण जीवन दर्शन है बल्कि एक जीवन पध्दति है।
एकादश व्रत
गांधीजी के एकादश व्रत थे जो सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, आचार, अपरिग्रह, अभय, अस्पृश्यता निवारण, शरीरश्रम, सर्वधर्म समभाव और स्वदेशी हैं। सत्याग्रह को तभी जाना जा समझा सकता है जब समग्रता के साथ सत्य को जाना जाए।र् ईष्या, द्वेष, अविश्वास जैसी मानसिक हिंसा को भी वे उतना ही घातक समझते थे जितना कि शारीरिक हिंसा को। कहने का अर्थ यह है कि वे किसी भी रूप में हिंसा का बचाव करने के पक्षधर कभी नहीं रहे। गांधीजी ने सत्याग्रह में भी इसे और स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा : सत्याग्रह शब्द का उपयोग अक्सर बहुत शिथिलतापूर्वक किया जाता है और छिपी हुई हिंसा को भी सत्याग्रह का नाम दे दिया जाता है। लेकिन इस शब्द का रचयिता होने के नाते मुझे यह कहने कि अनुमति मिलनी चाहिए कि उसमें छिपी हुई अथवा प्रकट, सभी प्रकार की हिंसा का, फिर वह कर्म की हो या मन और वाणी की हो, पूरा बहिष्कार है।
गांधीजी ने 'हिंद स्वराज' में आधुनिक सभ्यता की तीखी आलोचना करते हुए इस बात पर बल दिया कि स्वराज्य की स्थापना भारतीय सभ्यता के मूल्यों पर होनी चाहिए। वे पाश्चात्य सभ्यता को संक्रामक रोग की तरह मानते थे जो भौतिक सुख पर आधारित है। वे उसके अंधानुकरण के घोर विरोधी थे लेकिन कहते थे कि पश्चिम के पास ऐसा बहुत कुछ है जिसे हम अपना सकते हैं और परिस्थितियों के अनुसार अपने अनुकूल ढाल सकते हैं।
सर्वधर्म एकता
गांधीजी मानते थे कि स्वराज्य का अर्थ है हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, पारसी, ईसाई, यहूदी सभी धर्मों के लोग अपने धर्मों का पालन कर सकें और ऐसा करते हुए एक-दूसरे की रक्षा और एक-दूसरे के धर्म का आदर करें। उन्होंने बढ़ती हुई साम्प्रदायिकता का कारण भय, अविश्वास, प्रतिशोध और असंभव आकांक्षाओं के टकराव को माना। उन्होंने कहा कि हिंदू-मुस्लिम एवं सभी सम्प्रदायों के प्रयोजन, हित एवं संगठन में समग्र राष्ट्रीय हित वृध्दि संभव है जिसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि हिंदू-मुस्लिम एकता ही स्वराज्य है।
महिला समानता
गांधीजी बाल विवाह के घोर विरोधी थे और इसे हानिकारक प्रथा मानते थे। उन्होंने क हा कि धर्म में जोर-जबर्दस्ती का तो हम विरोध करते हैं परन्तु धर्म के नाम पर अपने देश की तीन लाख से अधिक ऐसी बाल विधवाओं के ऊपर हमने वैधव्य का बोझ लाद रखा है जो बेचारी विवाह-संस्कार का अभिप्राय तक नहीं समझ सकतीं। बालिकाओं पर वैधव्य लादना तो पाश्विक अपराध है।
उन्होंने कहा कि स्त्रियों को अबला जाति मानना उनका अपमान है। ऐसा कहकर पुरु ष स्त्रियों के प्रति अन्याय ही करते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि यदि मैं स्त्री के रूप में जन्मा होता तो पुरुष के इस दंभ के विरुध्द कि स्त्री पुरुष के मनोरंजन की वस्तु है, विद्रोह कर देता।
गांधीजी बाल विवाह, पर्दा-प्रथा, दहेज प्रथा और वेश्यावृत्ति के घोर विरोधी थे किन्तु विधवा विवाह के प्रबल समर्थक थे। उनका कहना था कि जो स्त्री निर्भय है और यह जानती है कि उसकी चारित्रिक निर्मलता उसकी सबसे बड़ी ढाल है, उसकी आबरू कभी नहीं लुट सकती।
गांधीजी ने 'हिंद स्वराज' में जिन विचारों को अपनाने पर जोर दिया है उन्हें उनके जीवन काल में अनदेखा किया गया लेकिन आज उनके महत्व को पूरे विश्व में स्वीकार किया जा रहा है। उनकी वैश्विक स्वीकार्यता आज इतनी बढ़ चुकी है कि उनके जन्मदिन (2 अक्टूबर) को पूरे विश्व में 'विश्व अहिंसा दिवस ' के रुप में मनाया जाने लगा है। यह गांधी के विचारों की वैश्विक स्वीकार्यता का ही परिणाम है। गांधीजी ने कहा था कि यह मानव आज नहीं तो कल सोचेगा जरूर और जानेगा कि यह बूढ़ा कोई मूर्ख नहीं है। 'मेरे सपनों का भारत' में गांधीजी कहते हैं : भारत की हर चीज मुझे आकर्षित करती है। सर्वोच्च आकांक्षाएं रखने वाले किसी व्यक्ति को अपने विकास के लिए जो कुछ चाहिए, वह सब उसे भारत में मिल सकता है।
(यंग इंडिया 21.02.1929)
ग्राम स्वराय
ग्राम स्वराज्य की गांधीजी की कल्पना थी कि वह एक ऐसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जो अपनी अहम जरूरतों के लिए अपने पडोसी पर भी निर्भर नहीं करेगा और फिर बहुतेरी दूसरी जरूरतों के लिए-जिसमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा वह परस्पर सहयोग से काम लेगा।
(हरिजन सेवक 2.8.1942)
आजादी के बाद ग्रामीण विकास की जो अनेकयोजनाएं संचालित की जा रही हैं उनका आधार गांधीजी की ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना ही है। नई पंचायतराज व्यवस्था उसी सोच का प्रतिफल है, जिसमें महिलाओं, अनुसूचित जातियों, पिछड़े वर्गों, अल्प संख्यकों और शोषित पीड़ितों को उनके अधिकार मिले हैं और वे अपने विकास की कहानी अब स्वयं लिख रहे हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम (नरेगा) के माध्यम से 'महात्मा गांधी के जंतर......' की कसौटी को आजमाने का सफल प्रयास किया गया है, जिसकी समूचे विश्व में सराहना हुई है।
गांधीजी ने कहा था,''मैं तुम्हें एक जंतर देता हूं । जब भी तुम्हें संदेह हो या जब अहं तुम्हारे ऊपर हावी होने लगे तो यह कसौटी आजमाओ, जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी (महिला) तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा? क्या उसे कुछ लाभ पहुंचेगा? क्या उससे वह अपने ही जीवन व भाग्य पर कुछ काबू कर सकेगा? दूसरे शब्दों में, क्या इससे करोड़ों भूखे, प्यासे लोगों को स्वराज्य (आजादी) मिल सकेगा? तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहं समाप्त होता जा रहा है।''
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