अभी हाल ही में गैर-सरकारी संगठनों के साथ राष्ट्रीय परामर्श की एक रिपोर्ट में बाल-अधिकारों की पुष्टि में सरकार की निर्णायक भूमिका को रेखांकित किया गया है। रिपोर्ट में चौदह साल तक की आयु के सभी बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की बात पर जोर दिया गया है।
ब्रिटिश शासन से मुक्ति के वक्त सर्वव्यापी प्राथमिक शिक्षा को राष्ट्रीय लक्ष्य के रुप में देखा गया था। तब यह भी महसूस किया गया था कि इसके बिना देश का विकास संभव नहीं है। यहीं वजह थी कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 45 स्पष्ट शब्दों में राज्य को निर्देशित करता है कि संविधान लागू होने के दस वर्षों के भीतर(अर्थात सन 1960 तक) चौदह वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों को निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था की जाए। वर्ष 1993 में उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (कैपीटेशन फीस केस) में अनुच्छेद 45 की व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक एतिहासिक निर्णय दिया। कोर्ट ने कहा कि चौदह वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार है। अत राज्य के लिए इसकी व्याख्या करना अनिवार्य है। इसी वर्ष दिसंबर में नौ सर्वाधिक जनसंख्या वाले देशों के सबके लिए शिक्षा शिखर सम्मेलन में जारी दिल्ली घोषणा पत्र में सन 2000 ई. तक इस लक्ष्य को पाने की कसमें खाई गई और इस हेतु प्राथमिक शिक्षा को सर्वव्यापी बनाने की बातें की गई। कहना न होगा कि मेजबान होने के नाते भारत ने कुछ ज्यादा ही ऊंची आवाज़ में कसमें खाईं।
लेकिन अनुच्छेद 45 जैसे स्पष्ट संवैधानिक प्रावधान, उसपर आधारित उपरोक्त फैसले, विभिन्न रिपोर्टों और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सरकारी कसमों वादों के बावजूद लोकव्यापी प्राथमिक शिक्षा एक स्वप्न ही साबित हो रही है। सरकार बजाए सर्वव्यापी प्राथमिक शिक्षा के अपने वादे को पूरा करने के अनौपचारिक शिक्षा एवं साक्षरता अभियानों पर ही जोर दे रही है, जैसाकि नई शिक्षा नीति के दस्तावेज से भी पता लगता है। यद्यपि स्कूल में नामांकन लेने वाले बच्चों का प्रतिशत बढ़ा है, फिर भी स्कूल तक नहीं पहुंचने वाले बच्चों की कुल संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। वर्ष 1989-90 तक 6 से 11 वर्ष के आयुवर्ग में कुल 12.20 करोड़ बच्चों में 9.70 करोड़ ने नामांकन लिया जबकि 11 से 14 वर्ष के आयु वर्ग के कुल 7.30 करोड़ बच्चों में से सिर्फ 3.20 करोड़ बच्चों ने ही दाखिला लिया। इस तरह देश के करीब एक चौथाई बच्चे स्कूल में कभी कदम ही नहीं रखते हैं।
आकड़े बताते हैं कि लड़कियां, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत ही कम दाखिला ले पाती है। अधिकांश राज्यों में जबकि 80 प्रतिशत लड़के नामांकन लेते है, मात्र 50-55 प्रतिशत लड़कियां ही नामांकन ले पाती है। ये तो हुई प्राथमिक शिक्षा की बात। उच्य विद्यालयों तक तो मात्र 15-16 प्रतिशत लड़कियां ही पहुंच पाती है। इसका मूल कारण हमारी रूढिगत सामाजिक मान्यताएं है, जिनके चलते आज भी लड़कियों को घर की चारदीवारी के अंदर कैद करके रखने की प्रवृति हावी है। यही वह बिंदु है जहां सामाजिक आंदोलनों और शिक्षा का संबंध महत्वपूर्ण हो जाता है। सच पूछिए तो दोनों में अन्योन्याश्रय संबंध है। अगर सामाजिक आंदोलनों द्वारा लोगों का रूढिवादी नज़रिया बदल दिया जाए तो लड़कियां अधिकाधिक संख्या में स्कूल जाएंगी। दूसरी ओर, अगर स्त्री शिक्षा का प्रसार होगा तो सामाजिक परिवर्तन भी तेजी से होंगे। केरल इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। जहां तक अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बच्चों का प्रश्न है। इस संबंध में कोई स्पष्ट आंकड़े उपलब्ध नहीं है। लेकिन एक अनुमान के मुताबिक इस वर्ग के लगभग 70 प्रतिशत बच्चे स्कूलों में नामांकन से वंचित रह जाते हैं। यह गहन सामाजिक विषमता का द्योतक है और इसके बड़े भयंकर दुष्परिणाम हो सकते हैं। समकालीन इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब भी किसी देश का कोई वर्ग विशेष सामाजिक, आर्थिक या शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ेपन का शिकार हुआ है तो उसमें व्यवस्था के प्रति अविश्वास पैदा हुआ है और इसके परिणामस्वरूप अलगाववादी आंदोलनों का जन्म हुआ है। अत समस्या के इस पहलू पर गंभीरता से विचार किए जाने की आवश्यकता है। आमतौर पर 5-6 वर्ष की अवस्था में बच्चे स्कूल पकड़ते हैं। लेकिन उनमें से कितने 14 वर्ष की आयु तक शिक्षा जारी रख पाते है। आंकड़े बताते हैं कि नामांकन लेनेवालों में से सिर्फ 52 प्रतिशत बच्चे पांचवी कक्षा तक की पढ़ाई पूरी कर पाते हैं जबकि आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई पूरी करने वालों का प्रतिशत मात्र 35 है, और लड़कों की तुलना में लड़कियां ज्यादा स्कूल छोड़ती है। अनुसूचित जाति और जनजाति में तो ऐसे बच्चों की संख्या और अधिक है। 6-11 वर्ष के आयुवर्ग के अनुसूचित जाति जनजाति के स्कूल छोड़ने वाले बच्चों में लड़के और लड़कियों का प्रतिशत क्रमश 43.28 एवं 49.42 है।
प्रो रामकृष्णन रिपोर्ट के अनुसार स्कूल छोड़ने की अधिकांश घटनाएं पहली कक्षा में ही होती है और ऊपरी कक्षाओं में जाने के साथ-साथ घटती जाती है। कुछ अन्य रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि बच्चा अगर एक साल तक स्कूल जाने का दम रखता है तो उसके प्राथमिक शिक्षा पूरी करने की संभावना अधिक है बशर्ते कि अन्य बातें पूर्ववत रहें।
सवाल उठता है कि आखिर ये बच्चे स्कूल क्यों छोड़ते हैं। इसी से जुड़ा हुआ एक और प्रश्न यह है कि वे स्कूल खुद छोड़ते हैं या माता-पिता द्वारा छुड़ा दिए जाते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर पाना मुश्किल है, क्योंकि अधिकांश मामलों में जहां स्कूल छोड़ने वाले बच्चे घर के कामों या रोजी-रोटी कमाने में लगाए जाते हैं, यह स्पष्ट नहीं है कि उन्हें स्कूल छोड़ने के कारण काम पर लगाया गया है या उनसे काम लेने के लिए उन्हें स्कूल से अलग किया गया है। स्कूल छोड़ने वाले बच्चों के माता-पिता के निरपवाद रुप से निरक्षर या अशिक्षित होने से यह अंतर कर पाना और कठिन हो जाता है।
आमतौर पर शिक्षाविद यह मानते है कि ऐसा आर्थिक मजबूरियों के कारण होता है। लेकिन प्रो रामकृष्णन रिपोर्ट समस्या की कुछ दूसरी ही तस्वीर पेश करती है। रिपोर्ट के मुताबिक स्कूल छोड़ने वाले दो-तिहाई बच्चे मजदूरी कमाने के बजाए अन्य कारणों से ऐसा करते हैं। इसलिए इसे मात्र आर्थिक पिछड़पेन का मुद्दा मानकर रद्द नहीं किया जा सकता। इसमें संदेह नहीं है कि आर्थिक मजबूरियां निर्णायक कारण हो सकती है लेकिन प्रो रामकृष्णन रिपोर्ट के आलोक में इस समस्या पर नए दृष्टिकोण से विचार करने की आवश्यकता है।
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