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शनिवार, 28 मार्च 2015
बच्चों की शिक्षा से खिलवाड़ कब तक?
देश के बेहतर कल के लिए स्कूलों में शिक्षा नीति कैसी होनी चाहिए। इस बात को लेकर आज़ादी से लेकर आज तक मंथन का दौर जारी है। लेकिन सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर बेहद खराब है। इस बात का खुलासा खुद दिल्ली के उप मुख्यमंत्री ने किया। लेकिन शिक्षा नीति को लेकर मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने पूरी तरह से चुप्पी साध रखी है। यहां तक कि मनीष सिसोदिया समेत कई दूसरे नेताओं की ओर से पत्र भेजकर सभी बच्चों को पास करने की नो डिटेंशन नीति को लेकर सवाल उठाए जाने के बाद भी अभी तक स्मृति ईरानी ने किसी भी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। यह जानते हुए भी कि सवाल देश के करोड़ों स्कूली बच्चों के भविष्य से जुड़ा है। ऐसे में अगर दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर ठीक नहीं है तो देश के दूर-दराज के स्कूलों की हालत क्या होगी। इस बात का बेहतर अंदाजा लगाया जा सकता है। देश में बुनियादी शिक्षा और खासकर गांव में शिक्षा के प्रचार प्रसार को लेकर अनगिनत योजनाएं बनाई गई। इन्हीं में से एक नाम है सर्व शिक्षा अभियान। इस पर करोड़ों रुपये खर्च किए गए। लेकिन कोई ठोस परिणाम निकल कर सामने नहीं आया। गांवों में स्कूली शिक्षा को लेकर राज्यों के शिक्षा विभाग की अपनी अलग-अलग राय है। दिल्ली सरकार के मुताबिक स्कूली शिक्षा के गिरते स्तर के लिए टीचर और स्कूल प्रबंधन से ज्यादा देश की शिक्षा नीति जिम्मेदार है। वर्तमान में देश में लागू नो डिटेंशन पॉलिसी यानि सभी बच्चों को पास करने की नीति के कारण कक्षा आठ तक बच्चों की पढ़ाई को लेकर कोई चेक बैलेंस नहीं है। दिल्ली में स्कूली शिक्षा से संबंधित एक आंकड़े के मुताबिक पिछले 3 साल का रिकॉर्ड यह बताता है कि करीब 25 फीसदी अपने उस क्लास की परीक्षा में फेल हो जाते हैं लेकिन नो डिटेंशन पॉलिसी यानि सभी बच्चों को पास करने की नीति के तहत सभी बच्चों को पास करना पड़ता है। इस आंकड़े के मुताबिक 2012 में अपने क्लास में फेल होने का आंकड़ा 14 प्रतिशत, जबकि 2013 में यह आंकड़ा 20 प्रतिशत और 2014 में यह आंकड़ा तकरीबन 24 फीसदी तक पहुंच चुका है, यानि करीब 25 फीसदी बच्चे हर साल फेल होते हुए भी पास होते हैं। यह चौकाने वाला आंकड़ा दिल्ली के स्कूलों का है तो देश के दूसरे पिछड़े राज्यों के स्कूली बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। आज भी ग्रामीण इलाको में कई ऐसे स्कूल है जहां शिक्षक नहीं है। अगर शिक्षक है तो स्कूल में बच्चों को बैठने के लिए क्लास रुम नहीं है। बच्चे पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ाई करते हैं। ऐसे में सभी बच्चों को बिना उचित शिक्षा और बगैर किसी मापदंड के सीधे-सीधे पास करना किस हद तक उचित है। इससे बच्चों में पढ़ने की जिज्ञासा कम होती जा रही है। शिक्षकों में जिम्मेदारी की भावना में कमी आ रही है, क्योंकि सभी बच्चों को पास करना है, लिहाजा शिक्षक भी गंभीरता से बच्चों को नहीं पढ़ाते हैं। पूरे पाठ्यक्रम को लेकर बच्चों में पढाई के प्रति उदासीनता का भाव देखने को मिलता है। इसकी वजह यह है कि उन्हें पता है कि पास तो होना ही है। हमारे यहां पूरी शिक्षा व्यवस्था परीक्षा पद्धति पर आधारित है। लेकिन सबको पास करने की नीति की वजह से अब बच्चों में पढ़ाई के साथ ही परीक्षा को लेकर भी उदासीनता बढ़ती जा रही है। बावजूद इसके बच्चे आसानी से आठवीं क्लास तक तो पास कर जाते हैं। लेकिन 9वीं क्लास में आते ही उनके सामने मुसीबत खड़ी हो जाती है। यही कारण है कि 9वीं क्लास में सबसे ज्यादा बच्चे फेल हो रहे हैं। इससे नई पीढ़ी को ज्यादा नुकसान उठाना पड़ रहा है। साथ ही देश और समाज में भी ऐसे बच्चों की संख्या बढ़ती जा रही है जो पढ़ लिखे तो है लेकिन समझदार नहीं है। लिहाजा शिक्षा के अधिकार कानून में बदलाव लाने की ज़रुरत है, जिसके तहत सभी बच्चों को पास करने की नीति तीसरी क्लास तक ही लागू रहनी चाहिए। इसके बाद चौथी क्लास से शिक्षा के गुणवत्ता के स्तर पर विशेष ध्यान देने की ज़रुरत है। इस बात को ध्यान में रखकर यूपीए सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून में बदलाव करने की तैयारी की थी। लेकिन अभी तक इस दिशा में कुछ भी नहीं किया गया है। केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की एक सब-कमेटी ने इस मामलों में कुछ सिफारिशें की थी। इस सब कमेटी की अध्यक्ष हरियाणा की पूर्व शिक्षा मंत्री गीता भुक्कल थी। लेकिन इस सब-समिति की सिफारिशों पर मोदी सरकार का मंथन जारी है। यूपीए सरकार ने मार्च 2010 में शिक्षा का अधिकार कानून लागू किया था। इस कानून में पहली से लेकर आठवीं तक के छात्रों के लिए फेल नहीं करने की नीति लागू की गई थी। इसके बाद छात्रों में पढ़ाई के प्रति बढ़ती लापरवाही को कम करने के लिए पंजाब जैसे राज्यों में दो बार बच्चों को मूल्यांकन परीक्षा से गुजरना होगा। हलांकि ऐसे मूल्यांकन के जरिए भी छात्रों को फेल नहीं किया जाएगा। लेकिन इसके जरिए यह जानने की कोशिश की जाएगी कि बच्चों में पढ़ाई का स्तर क्या है। हाल के सालों में देखने में आया है कि पहली से आठवीं कक्षा तक सभी बच्चों को पास करने की नीति अपनाने के बाद शिक्षक और छात्र पढ़ाई के प्रति गंभीर नहीं हो रहे हैं। इसका असर दसवीं और बारहवीं कक्षा के परिणाम पर भी पड़ा है। पहले जहां दोनों कक्षाओं का वार्षिक रिजल्ट 70 से 75 प्रतिशत तक रहता था, वह अब 50 से 60 फीसदी के बीच पहुंच गया है। देश में शिक्षा के गिरते स्तर को लेकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय भी अच्छी तरह से वाकिफ है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता को बेहतर करने की कोशिशें केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से हाल के दिनों में की गई है। लेकिन उससे भी कही ज्यादा ज़रुरी प्राथमिक स्कूलों में बच्चों की पढ़ाई के गिरते स्तर को सुधारने की है। हलांकि सेंट्रल एडवाइजरी बोर्ड तो नो-डिटेंशन पॉलिसी की विफलता को देखते हुए दोबारा से पांचवीं और आठवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा शुरू करने की सिफारिश तक कर चुका है। लेकिन देखना है कि सरकार बच्चों की शिक्षा से जुड़े इस संवेदनशील मुद्दे पर कब कारगर कदम उठाती है।
गुरुवार, 26 मार्च 2015
मेगा फूड पार्क से कितना फायदा होगा?
देश में विदेशों की तरह मेगा फूड पार्क बनाने के काम को जल्दी ही अमलीजामा पहना दिया जाएगा। सरकार ने भारत के दूर-दराज के इलाकों में जल्द खराब होने वाले खाद्य पदार्थों की बर्बादी को रोकने के लिए सभी राज्यों में मेगा फूड पार्क बनाने का फैसला किया है। लेकिन अहम सवाल यह है कि इससे आम भारतीय को कितना फायदा पहुंचेगा। क्या छोटे व्यापारियों और किसानों को इससे वाकई फायदा है। जानकारों का कहना है कि इससे जल्द खराब हो जाने वाले खाद्य पदार्थों की बर्बादी में कमी आएगी। इस पर गौर फरमाते हुए इस दिशा में और मूल्यवर्द्धन किया गया है। खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय वर्ष 2008 से ही देश भर में मेगा फूड पार्क योजना क्रियान्वित कर रहा है। सरकार की ओर से मेगा फूड पार्क की स्थापना के लिए 50 करोड़ रुपये तक की वित्तीय सहायता दी जाती है। इसके तहत खेत से लेकर बाजार तक की मूल्य श्रृंखला में खाद्य प्रसंस्करण हेतु आधुनिक बुनियादी ढांचागत सुविधाओं की स्थापना के लिये वित्तीय सहायता दी जाती है। न्यूनतम 50 एकड़ क्षेत्र में स्थापित किये जाने वाला मेगा फूड पार्क क्लस्टर आधारित अवधारणा के तहत काम करता है। यह 'हब एंड स्पोक' मॉडल पर आधारित होता है, जिसके तहत केन्द्रीकृत एवं एकीकृत लॉजिस्टिक प्रणाली का नेटवर्क स्थापित किया जाता है। प्राथमिक प्रसंस्करण केन्द्रों (पीपीसी) के रूप में खेतों के निकट प्राथमिक प्रसंस्करण एवं भंडारण कार्यों के लिए बुनियादी ढांचागत सुविधाएं स्थापित की जाती हैं। केन्द्रीय प्रसंस्करण केन्द्र में अनेक साझा सुविधाओं के साथ-साथ उपयुक्त बुनियादी ढांचागत सुविधाएं भी होती हैं, जिनमें आधुनिक भंडारण, शीत भंडारण, आईक्यूएफ, पैकेजिंग, बिजली, सड़क, जल इत्यादि शामिल हैं। इससे सम्बंधित इकाइयों की लागत काफी हद तक घटाने में मदद मिलती है जिससे वे और ज्यादा लाभप्रद हो जाती हैं। अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करना, बेहतर प्रसंस्करण नियंत्रण के जरिये प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों की उच्च गुणवत्ता सुनिश्चित होना और पर्यावरण एवं सुरक्षा मानकों का पालन किया जाना मेगा फूड पार्कों के अन्य अहम फायदे हैं।
देश भर में स्थापित करने के लिए सरकार द्वारा अब तक 42 मेगा फूड पार्कों को मंजूरी दी गई है। मौजूदा समय में 25 परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। मंत्रालय को 72 प्रस्ताव मिले हैं और इन पर पारदर्शी ढंग से गौर करने के बाद देश के 11 राज्यों के 17 समुचित प्रस्तावों का चयन किया गया है तथा उन पर अमल के लिए मंजूरी भी दे दी गई है।
सरकार के इस कदम से खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र के लिए विशाल अत्याधुनिक बुनियादी ढांचे का निर्माण होगा और इस क्षेत्र के विकास को नई गति मिलेगी। इन 17 नव चयनित मेगा फूड पार्कों से अत्याधुनिक बुनियादी ढांचे में तकरीबन 2000 करोड़ रुपये का निवेश आकर्षित होने का अनुमान है। इसी तरह पार्कों में स्थित 500 खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों में तकरीबन 4000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त सामूहिक निवेश आकर्षित होने का अनुमान है। इनका सालाना कारोबार 8000 करोड़ रुपये रहने का अनुमान लगाया गया है। इन पार्कों के पूरी तरह से कार्यरत हो जाने पर तकरीबन 80000 लोगों के लिए रोजगार सृजित होंगे और इनसे लगभग 5 लाख किसान प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से लाभान्वित होंगे।
इन मेगा फूड पार्कों के समय पर पूरा हो जाने से संबंधित राज्यों में खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र के विकास को काफी बढ़ावा मिलेगा, किसानों को बेहतर मूल्य मिलने में मदद मिलेगी, जल्द खराब होने वाले खाद्य पदार्थों की बर्बादी घटेगी, कृषि उपज का मूल्यवर्द्धन होगा और खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी संख्या में रोजगार अवसर सृजित होंगे। इतना ही नहीं, ये मेगा फूड पार्क खाद्य उत्पादों की कीमतों को स्थिर रखने के साथ-साथ देश में महंगाई को नियंत्रण में रखने में भी मददगार साबित होंगे।
264 नए शहरों में 831 एफएम चैनलों का बिछेगा जाल
देश के सभी छोटे बड़े शहरों में एफएम रेडियो का जाल बिछाने की तैयारी का काम जोरों पर है। सरकार ने इसके लिए सभी ज़रुरी तैयारियां लगभग कर ली है। इसके तहत 264 नए शहरों में
एफएम रेडियो चैनल खोलने का प्रस्ताव है। जल्द ही ई नीलामी के जरिए इन शहरों में 831 एफएम रेडियो स्टेशन के लिए नीलामी की प्रक्रिया भी पूरी कर ली जाएगी। दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (टीआरएआई) ने नए शहरों में एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी के लिए आरक्षित मूल्यों की सिफारिश कर दी है।
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने 16 दिसंबर, 2014 को भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण को पत्र लिखकर 264 नए शहरों में एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी के लिए आरक्षित मूल्यों पर सिफारिश मांगी थी। इन नए शहरों में तीसरे चरण के नीतिगत निर्देशों के तहत एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी की जाएगी। तीसरे चरण की नीति के मुताबिक इन शहरों में सभी 831 एफएम चैनलों की नीलामी बढ़ते हुए क्रम में ई-नीलामी प्रक्रिया के तहत होनी है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने नीलामी के लिए संबंधित श्रेणी में शहरों की सूची और चैनलों की संख्या मुहैया कराई है।
2011 के जनसंख्या आंकड़ों के मुताबिक 264 नए शहरों में से 253 शहरों की जनसंख्या एक लाख से ज्यादा है। इन सभी शहरों को बी, सी, और डी श्रेणी में बांटा गया है। इन 253 शहरों में 798 एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी होनी है। बाकी 11 शहरों की आबादी एक लाख से कम है और वे जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर क्षेत्र के सीमाई इलाकों में स्थित हैं। इन 11 शहरों में भी 33 एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी प्रस्तावित है। दूरसंचार नियामक प्राधिकरण ने 6 फरवरी, 2015 को नए शहरों में एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी के लिए आरक्षित मूल्यों पर एक परामर्शपत्र जारी किया था। इसके लिए सभी हिस्सेदारों (पक्षों) से 25 फरवरी, 2015 तक लिखित टिप्पणियां मंगाई गई थीं। सभी टिप्पणियों को भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण की वेबसाइट पर डाल दिया गया था। इसके बाद भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण ने नई दिल्ली में 9 मार्च, 2015 सभी हिस्सेदारों की ओपनहाउस बैठक बुलाई थी।
i) परामर्श प्रक्रिया में सभी हिस्सेदारों की टिप्पणियों और इन जुड़े मुद्दों के विश्लेषण के बाद भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण चैनलों के मूल्य तय करने के लिए तीन सरल रूख तय किए। ये निम्नलिखित आधारों पर तय किए गए।
• शहरों की आबादी
• प्रति व्यक्ति सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी)
• एफएम रेडियो के श्रोताओँ की संख्या
• मौजूदा एफएम रेडियो संचालकों की ओर से कमाया गया प्रति व्यक्ति सकल राजस्व
(ii) हरेक शहर में नीलाम होने वाले रेडियो चैनलों का आरक्षित मूल्य कुल मूल्य का 80 प्रतिशत निर्धारित किया गया है।
(iii) 253 नए एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी के लिए जो आरक्षित मूल्य तय किए गए हैं वे अनुलग्नक-1 में दिए गए हैं।
(iv) जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के सीमाई क्षेत्र में एक लाख से कम की आबादी वाले जिन अन्य श्रेणी के ग्यारह शहरों में एफएम चैनलों की नीलामी होनी है वहां तीसरे चरण नीति के तहत प्रति शहर प्रति चैनल के लिए आरक्षित मूल्य 5 लाख रुपये रखा गया है।
इन सिफारिशों को विस्तृत तौर भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण की वेबसाइट www.trai.gov.in. पर देख सकते हैं।
बुधवार, 25 मार्च 2015
दिल्ली पुलिस, एफआईआर और बंदर
दिल्ली पुलिस ने एक ऐसे आरोपी के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया है, जो अपने आप में किसी अजूबे से कम नहीं है। दिल्ली पुलिस की एफआईआर डायरी में दर्ज इस आरोपी का नाम सुनकर आप हैरान-परेशान रह जाएंगे। जानकारों की माने तो दिल्ली पुलिस ने इस बार गुनाह का इल्जाम जिसके नाम दर्ज किया है वह इंसान की तरह बोल नहीं सकता। वह इंसान की भाषा समझ नहीं सकता। ना ही इंसान उसकी भाषा समझ सकते हैं। क्योंकि दिल्ली पुलिस का ये नया नवेला आरोपी बंदरों का एक झुंड है। अब आप कहेंगे कि देश की सबसे स्मार्ट माने जाने वाली दिल्ली पुलिस को आखिर क्या हो गया है कि वह अब बंदरों के नाम से भी एफआईआर दर्ज करने लगी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बंदर के अक्ल की तरह पुलिस के कुछ तथाकथित समझदार और तेजतर्रार अफसर और जवान दिल्ली पुलिस की बची-खुची इमेज को भी ठिकाने लगाने की तैयारी कर चुके हैं। अगर ऐसा नहीं है तो दिल्ली पुलिस अक्ल और शक्ल के मामले में बंदरों के साथ मुकाबला क्यों कर रही है। अगर उसे सही मायने में दिल्ली की चिंता है तो वह अपराधियों पर नकेल कसने की हिम्मत क्यों नहीं दिखा रही। दिल्ली के गुनहगारों को सलाखों के पीछे भेजने के बजाए दिल्ली पुलिस बंदरों के पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ी है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या दिल्ली की दिनोंदिन बिगड़ती कानून व्यवस्था के लिए बंदर जिम्मेदार है। काश बंदर अगर इंसान की भाषा बोल पाते तो यहीं कहते कि दिल्ली पुलिस मुझे तो बक्श दो। आइए अब आपको बताते है कि असल में पूरा मामला है क्या और क्यों हम दिल्ली की स्मार्ट पुलिस को सवालों के घेरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं।
देश की राजधानी दिल्ली के पांडव नगर थाने के समझदार पुलिस अफसरों ने एक ऐसा मुकदमा दर्ज किया है, जिसमें इलाके के बंदरों को आरोपी बनाया गया है। शायद देश में यह अपनी तरह का पहला मामला होगा, जिसमें आरोप किसी इंसान पर नहीं बल्कि बंदर पर लगाया गया है। मयूर विहार फेज-2 में रहने वाले अरविंद जब रोजाना की तरह सुबह अपने ऑफिस जाने के लिए घर से निकले तो रास्ते में बंदरों के झुंड ने उन पर हमला कर दिया। इलाके के लोगों ने बंदरों के चंगुल से अरविंद को छुड़ाने की पूरी कोशिश की। लेकिन बदमाश बंदरों ने अरविंदों को जगह जगह काटकर बुरी तरह जख्मी कर दिया। पांडव नगर और उसके आसपास के इलाकों में बंदरों के उत्पात मचाने की यह कोई पहली कहानी नहीं है। इलाके की जनता पिछले काफी समय से बंदरों को लेकर परेशान है। लेकिन एमसीडी के अधिकारी कान में तेल डालकर सोने की अपनी वर्षों पुरानी नीति पर आज भी कायम है।
लिहाजा बंदरों के इस उत्पात को लेकर अरविंद पुलिस के पास एमसीडी के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने थान पहुंचे। लेकिन स्मार्ट दिल्ली पुलिस के समझदार अफसर ने बिना कुछ सोचे समझे एफआईआर दर्ज कर ली और वह भी इलाके के बंदरों के खिलाफ। जी हां दिल्ली पुलिस ने इलाके के बंदरों को ही इस मामले में आरोपी बना दिया। हद तो तब हो गई जब इस एफआईआर में पुलिसवालों ने इलाके के बंदरों पर भारतीय दंड संहिता यानि आईपीसी की धारा 124 भी लगा दी। यानि पांडव नगर के बंदरों ने अरविंद के साथ मार-पीट की और किसी घातक हथियार से उन्हें घायल कर दिया। कानून के मुताबिक IPC की धारा 324 के तहत दोषी साबित होने पर 3 साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान है। लेकिन क्या दिल्ली पुलिस इस मामले में किसी बंदर को वाकई में पहचानती है। क्या वह आरोपी बंदर को पकड़ पाएगी। क्या ऐसे मामले में बंदर को आरोपी बनाया जा सकता है। आमतौर पर ऐसे मामले में दिल्ली नगर निगम या उसके संबंधित अधिकारियों के खिलाफ शिकायत दर्ज किया जाता है। लेकिन दिल्ली पुलिस ने एमसीडी या उसके अधिकारियों को आरोपी क्यों नहीं बनाया। क्या दिल्ली पुलिस और एमसीडी के अफसरों के बीच कोई सांठगांठ है? क्या दिल्ली पुलिस एमसीडी से डरती है? क्या दिल्ली पुलिस को ऐसे मामले में किसे आरोपी बनाया जाता है इसका पता नहीं है? अगर ऐसा है तो वाकई में दिल्ली पुलिस के अफसरों और जवानों को सख्त ट्रेनिंग देने की ज़रुरत है। क्योंकि सवाल देश की राजधानी दिल्ली की सुरक्षा का है। ...
सोमवार, 23 मार्च 2015
राष्ट्रीय सेवा योजना एक अनोखी शुरुआत
राष्ट्रीय सेवा योजना (एनएसएस) एक केंद्र प्रायोजित योजना है। इस योजना की शुरूआत 1969 में की गई थी और इसका प्राथमिक उद्देश्य स्वैच्छिक सामुदायिक सेवा के जरिये युवा छात्रों का व्यक्तित्व एवं चरित्र निर्माण था। एनएसएस की वैचारिक अनुस्थापना महात्मा गांधी के आदर्शों से प्रेरित है और इसका आदर्श वाक्य ''मैं नहीं, लेकिन आप'' हैं।
एनएसएस को उच्चतर माध्यमिक स्कूलों, कॉलेजों एवं विश्वविद्यायल में कार्यान्वित किया जा रहा है। एनएसएस की परिकल्पना में इस बात पर ध्यान दिया गया है कि इस योजना के दायरे में आने वाले प्रत्येक शैक्षिक संस्थान में एनएसएस की कम से कम एक इकाई हो और उसमें सामान्यत: 100 छात्र स्वयंसेवक हों। इस इकाई की अगुवाई एक शिक्षक करता है जिसे कार्यक्रम अधिकारी का दर्जा दिया जाता है। प्रत्येक एनएसएस की इकाई एक गांव अथवा मलिन बस्ती (स्लम) को गोद लेती है। एक एनएसएस कार्यकर्ता को निम्न कार्य अथवा गतिविधियों को पूरा करना होता है।
·नियमित एनएसएस गतिविधि – प्रत्येक एनएसएस स्वयंसेवक को सामुदायिक सेवा के लिए दो वर्षों की अवधि में प्रतिवर्ष न्यूनतम 120 घंटे और दो वर्षों में 240 घंटे काम करना होता है। इस कार्य को अध्ययन की अवधि समाप्त होने अथवा सप्ताहांत के दौरान किया जाना है और एनएसएस की स्कूल/कॉलेज इकाई जिन गांवों अथवा स्लम को गोद लेती है वहां जाकर यह छात्र अपनी गतिविधियों को पूरा करते हैं।
·विशेष शिविर कार्यक्रम- प्रत्येक एनएसएस इकाई जिन गांवों और शहरी स्लम बस्तियों को गोद लेती है वहां के स्थानीय समुदायों को शामिल करके कुछ विशेष परियोजनाओं के लिए सात दिन का विशेष शिविर आयोजित करती है। यह शिविर छात्रों की अवकाश अवधि के दौरान भी आयोजित किया जाता है। प्रत्येक छात्र स्वयंसेवक को दो वर्ष की अवधि में कम से कम एक बार इस तरह के विशेष शिविर में हिस्सा लेना जरूरी है।
एनएसएस के तहत गतिविधियों का ब्यौरा- संक्षेप में एनएसएस कार्यकर्ता सामाजिक प्रासंगिकता से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर कार्य करते हैं। जिसके जरिये समुदाय की आवश्यकताओं की प्रतिक्रिया हासिल की जाती है। यह गतिविधियां नियमित एवं विशेष शिविर गतिविधियों के रूप में होती हैं। ऐसे विषयों में (1) साक्षरता एवं शिक्षा (2) स्वास्थ्य, परिवार कल्याण एवं पोषण (3) पर्यावरण संरक्षण (4) सामाजिक सेवा कार्यक्रम (5) महिला सशक्तिकरण कार्यक्रम (6) आर्थिक विकासात्मक गतिविधियों से जुडे कार्यक्रम (7) प्राकृतिक आपदाओं के दौरान राहत एवं बचाव कार्यक्रम आदि, शामिल हैं।
प्रशासनिक ढांचा- एनएसएस को केंद्र एवं राज्यों द्वारा संयुक्त रूप से कार्यान्वित किया जा रहा है। केंद्रीय स्तर पर एनएसएस का कार्यान्वयन, एनएसएस संगठन के जरिये किया जाता है जो युवा मामलों के विभाग से सम्बद्ध कार्यालय है। राष्ट्रीय स्तर पर एनएसएस का एक कार्यक्रम सलाहकार प्रकोष्ठ और क्षेत्रीय स्तर पर 15 क्षेत्रीय कार्यालय हैं। राज्यों/संघ शासित प्रदेशों में राज्य सरकार के विभागों में से एक विभाग को एनएसएस की गतिविधियों का संचालन करने का जिम्मा सौंपा जाता है। इस विभाग के पास एक राज्य एनएसस प्रकोष्ठ और एनएसएस के लिए एक राज्य जन संपर्क अधिकारी होता है। एनएसएस की विभिन्न गतिविधियों के लिए केंद्र सरकार, राज्यों को धनराशि जारी करती है जहां से इसे अन्य कार्यान्वयन एजेंसियों को आवंटित किया जाता है। राज्य स्तर से नीचे एनएसएस का प्रशासनिक ढांचा इस प्रकार है।
·विश्वविद्यालय/+2 परिषद स्तर पर- प्रत्येक विश्वविद्यालय में एक एनएसएस प्रकोष्ठ और एक मनोनीत कार्यक्रम समन्वयक की व्यवस्था है जो विश्वविद्यालय एवं उससे सम्बद्ध कॉलेजों में एनएसएस की सभी इकाईयों में उससे जुडी गतिविधियों के समन्वय का कार्य करती हैं। इसी प्रकार वरिष्ठ माध्यमिक स्कूलों में एनएसएस प्रकोष्ठ, वरिष्ठ माध्यमिक शिक्षा निदेशालय में होता है।
·एनएसएस इकाई स्तर पर: प्रत्येक शिक्षण संस्थान में प्रत्येक एनएसएस प्रकोष्ठ का नेतृत्व एक शिक्षक करता है जिसे कार्यक्रम अधिकारी (पीओ) का दर्जा दिया जाता है। इसके अलावा राष्ट्रीय, राज्य, विश्वविद्यालय और शिक्षण संस्थानों के स्तर पर एनएसएस सलाहकार समितियां होती हैं जिनमे अधिकारी एवं गैर अधिकारी सदस्य होते हैं और यह एनएसएस संबंधी गतिविधियों को आवश्यक निर्देश प्रदान करते हैं। इनके अतिरिक्त कार्यक्रम अधिकारियों को प्रशिक्षण देने के लिए विभिन्न कॉलेजों/ विश्वविद्यालयों में 19 पैनल प्रशिक्षण संस्थान ईटीआई भी हैं।
वित्तीय व्यवस्था- यह स्थिति इस प्रकार है
·एनएसएस के तहत प्रमुख गतिविधियों की वित्तीय व्यवस्था- एनएसएस की गतिविधियों के लिए प्रत्येक स्वयंसेवक को ढाई सौ रूपये प्रतिवर्ष (नियमित गतिविधियों के लिए) और साढे चार सौ रूपये (दो वर्ष में एक बार) विशेष शिविर गतिविधियों के लिए प्रदान किए जाते हैं। इस प्रकार एनएसएस कार्यक्रम की कुल लागत 475 रूपये प्रति कार्यकर्ता प्रति वर्ष है (क्योंकि किसी विशेष वर्ष में विशेष शिविर अभियान में केवल 50 प्रतिशत कार्यकर्ताओं को ही शामिल किया जाता है)। इन गतिविधियों पर आने वाले खर्च को राज्य एवं संघशासित सरकारें एक निर्धारित अनुपात में वहन करती हैं।
·एनएसएस के तहत अन्य गतिविधियों/खर्चों के लिए धनराशि- उपरोक्त के अलावा एनएसएस के तहत अन्य घटकों पर राशि व्यय की जाती है जो पूरी तरह से केंद्र सरकार द्वारा वहन की जाती है। इसके तहत आने वाला खर्च इस प्रकार है।(1) एनएसएस के कार्यक्रम अधिकारियों का ईटीआई के जरिये प्रशिक्षण (2) राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम जैसे स्वतंत्रता दिवस परेड कैंप, मेगा कैंप, जोखिम कैंप, आईजीएनएसएस अवार्ड (3) एनएसएस के एसएलओ के लिए प्रतिस्थापन व्यय (4) एनएसएस कार्यक्रम सलाहकार प्रकोष्ठ और एनएसएस के क्षेत्रीय केंद्रों के लिए प्रतिस्थापन व्यय।
·एनएसएस की शुरूआत 1969 में 37 विश्वविद्यालयों में 40,000 कार्यकर्ताओं को लेकर की गई थी। आज 336 विश्वविद्यालयों, 15,908 कॉलेजों/तकनीकी संस्थानों और 11,809 वरिष्ठ माध्यमिक स्कूलों में एनएसएस के लगभग 33 लाख कार्यकर्ता हैं। विश्व के इस सबसे बड़े छात्र स्वयंसेवक कार्यक्रम से अभी तक 4.25 करोड़ छात्र लाभान्वित हुए हैं। इसके अतिरिक्त एनएसएस ने सामूहिक साक्षरता, पर्यावरण संरक्षण, स्वास्थ्य शिक्षा और सामुदायिक शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया है। प्राकृतिक आपदाओं के समय एनएसएस कार्यकर्ताओं ने राहत एवं पुनर्वास कार्यक्रम में हमेशा अग्रणी भूमिका निभाई है।
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