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शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014
नदियों में प्रदूषण का बढ़ता दायरा
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) विलीन आक्सीजन ओडी, जैव-रासायनिक आक्सीजन बीडीओ एवं फिकल कालिफोर्म्स आदि के लिए 383 नदियों की 1085 स्थानों पर जल गुणवत्ता की निगरानी कर रहा है। बीओडी स्तर के आधार पर केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 150 प्रदूषित फैलाव की पहचान की है। केन्द्र सरकार ने गौमुख से उत्तरकाशी तक भागीरथी नदी के फैलाव को पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र के रूप में घोषित करने के लिए पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के अंतर्गत दिनांक 01.07.2011 को प्रारूप अधिसूचना जारी की है। यह प्रारूप मंत्रालय की वेबसाइट पर डाल दिया गया है, जिस पर प्रकाशन की तिथि से 60 दिनों के अंदर टिप्पणियों एवं सुझावों को आमंत्रित किया गया । नदियों का संरक्षण सामूहिक प्रयास है। यह मंत्रालय राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (एनआरसीपी) के अंतर्गत नदियों के प्रदूषण का उपशमन करने के लिए राज्य सरकारों के प्रयासों को आगे बढ़ा रहा है। राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना के अंतर्गत वर्तमान में 20 राज्यों के 185 शहरों में 39 नदियों के प्रदूषित फैलाव शामिल हैं। गंगा कार्य योजना (जीएपी) 1985 में शुरू की गयी थी बाद में एनआरसीपी के अंतर्गत अन्य मुख्य नदियों को शामिल करके इसका विस्तार किया गया। शुरू की गयी प्रदूषण उपशमन योजनाओं में अवरोधन, विचलन एवं दूषित पानी का शोधन एवं कम लागत के सफाई कार्य आदि शामिल हैं। इन योजनाओं के अंतर्गत 4729 करोड़ रूपये व्यय करके अभी तक 4417 मिलियन लीटर प्रतिदिन (एमएलडी) की दूषित जल शोधन क्षमता का निर्माण किया गया है। केन्द्र सरकार ने समग्र पहुंच को अपना कर गंगा नदी के संरक्षण के लिए एक सशक्त प्राधिकरण के रूप में फरवरी 2009 में राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण (एनवीबीआरए) का गठन किया था। प्राधिकरण ने यह निर्णय लिया है कि गंगा सफाई मिशन के अंतर्गत 2020 तक यह सुनिश्चित किया जाएगा कि गंगा में बिना शोधन किए गए नगर पालिका क्षेत्र के एवं औद्योगिक निस्सारणों को गंगा में न बहने दिया जाए।
जल-मल प्रबंधन एवं निस्तारण हेतु अवसंरचना सृजन भी अन्य केन्द्रीय योजनाओं जैसे जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन और छोटे एवं मध्यम शहरों के लिए शहरी अवसंरचना विकास योजना के साथ-साथ राज्य योजनाओं के अंतर्गत योजनाओं के माध्यम से किया जा रहा है। सीपीसीबी ने यह पहचान की है कि वीडीओ मानदंड 30 मि.ग्रा./लीटर से अधिक हो रहा है। अट्टावा चोय अडयार, अम्लाबाड़ी, भीमा, भ्रालु, भोगावो, कुबम, कावेरी, चन्द्रभागा, चम्बल, दमन गंगा, गोमती, गंगा, गोदावरी, घग्गर, डिंडन, इन्द्रायणी, कालोग, कुण्डालिका, खान कोयना, काली नदी पूर्वी, मूसी, पुला एवं मूथा, मीठी, मारकण्डा, नक्कावागु, नीरा, पटियाला की राव, पवाना, रामगंगा, सुखना चोय, सतलुज, साबरमती, वेन्ना नदी, पश्चिमी यमुना नहर, पश्चिमी काली, (आंशिक रूप से शामिल) एवं यमुना नदियों के 35 फैलावों में सभी अवसरों पर बीडीओ 6 मि.ली./लीटर से अधिक रहता है।
15 फैलावों में सभी अवसरों पर मानदंड 6 मि.ग्रा./लीटर से अधिक होकर 20-30 मि.ग्रा./लीटर है। ये नदियां हैं – वागड, भादरा, बहाला बान्दी, बरेच, घेला एवं किच्छा, गिरना, जोजारी, खेतड़ी, कोसी, खारी, कोलक, मिन्ढोला, नीरा, नोय्यल, नाम्बुल एवं तापी।
अगरतला नहर, भीका, डियर बिल, गंगा, गुडगावां नहर, क्षिप्रा, कृष्णा, करमाना, लक्ष्मण तीर्थ, मंजिरा, नर्मदा, पूरणा, शेदी, सुबर्णरेखा, टुन्गा, तुंगभद्रा, विएन गंगा एवं वर्धा में सभी अवसरों पर 26 फैलावों में मानदंड 6मि.ग्रा./लीटर से अधिक 10-20 मि.ग्रा.-लीटर हो रहा है। 38 स्थानों पर बीडीओ मानदंड 6-10 मि.ग्रा./लीटर रहता है। ऐसी नदियां हैं – अरासालार, अर्पा, बेतवा, व्यास, भावनी, बुरहीडिहिंग, चम्बल, कावेरी, दामोदर, धादर, गंगा, गोदावरी, कालीं किम कालीसोट, कालू, कन्हन, कोलार, कृष्णा, काठजोड़ी, खारखाला, माही, मारकंडा, नर्मदा, पंचगंगा, पाताल गंगा, रंगावली, सॉख, सिकराना, सिवनाथ, ताम्बिरापरानी, उम्तरेव, उल्हास, वैगई, तापी एवं टोन्स।
अनास, आम्बिका, अरकावती, बालेश्वर खाड़ी, बाराकर, ब्राहमणी, भत्सा, डिक्चू,ध्नश्री हेवरा, हुन्द्री, कुन्डू, कदमबयार, कुआखाई, कावेरी, कृष्णा, मानेर, मालप्रभा, मानेखोला, माही, महानदी, तीस्ता, मंदाकिनी, नर्मदा, पालर, पेन्नार, पनाम, पुझककाल, रिहन्द, रानिचू, साबरमती, सरयू, तुंगभद्रा, उल्हास एवं यमुना नदियों में ऐसे अन्य 36 फैलाव हैं जहां बीडीओ मानदंड 3-6 मि.ग्रा./लीटर रहता है।
सड़क सुरक्षा: हम सबकी जिम्मेदारी
सड़क सुरक्षा एक बहुक्षेत्रीय और बहुआयामी मुद्दा है। इसके अंतर्गत सड़क ढांचे का विकास एवं प्रबंधन, सुरक्षित वाहनों का प्रावधान, विधायन एवं विधि प्रवर्तन, गतिशीलता की आयोजना, स्वास्थ्य एवं अस्पताल सेवाओं का प्रावधान, बाल सुरक्षा, शहरी भूमि इस्तेमाल, आयोजना आदि शामिल है। दूसरे शब्दों में, इसके दायरे में एक तरफ सड़क एवं वाहन दोनों पहलुओं की इंजीनियरी और दूसरी तरफ ट्रामा यानी अभिघात से सम्बन्धित मामलों (दुर्घटना परवर्ती परिप्रेक्ष्य में) के लिए स्वास्थ्य एवं अस्पताल सेवाएं आती हैं। सड़क सुरक्षा सरकार और सिविल समाज के अनेक पक्षों का साझा, बहुक्षेत्रीय दायित्व है। सभी देशों में सड़क सुरक्षा की सफलता सम्बन्धी कार्य नीतियां सभी सम्बद्ध पक्षों से सहायता के व्यापक आधार और संयुक्त कार्ररवाई पर निर्भर करती है।
14 अप्रैल, 2004 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के पूर्ण अधिवेशन में भारत द्वारा सह-प्रायोजित एक प्रस्ताव में सड़क दुर्घटनाओं में बड़ी संख्या में होने वाली मौतों पर गंभीर चिंता प्रकट की गई थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2004 को सड़क सुरक्षा वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा भी की थी और अप्रैल 2004 में ‘‘सड़क सुरक्षा अर्थात किसी भी दुर्घटना से मुक्ति‘‘ के नारे के साथ विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाने की शुरूआत हुई।
सड़क यातायात क्षति निवारण के बारे में विश्व बैंक एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2004 की रिपोर्ट में कहा गया था कि सड़क दुर्घटनाओं से होने वाली क्षति अत्यंत व्यापक है लेकिन यह वैश्विक जन-स्वास्थ्य की उपेक्षित समस्या है। इसके प्रभावकारी और स्थायी समाधान के लिए एकीकृत प्रयासों की आवश्यकता है। रोजमर्रा के आधार पर काम आने वाली जितनी भी प्रणालियां हैं उनमें सड़क परिवहन सर्वाधिक जटिल और यातायात का सर्वाधिक असुरक्षित माध्यम है। हर रोज होने वाली सड़क दुर्घटनाओं के पीछे की त्रासदी पर मीडिया का ध्यान उतना नहीं जाता, जितना कभी-कभार होने वाली असामान्य प्रकार की त्रासदियों की ओर जाता है। रिपोर्ट में अनुमान व्यक्त किया गया था कि यदि अधिक प्रयास और नए उपाय नहीं किए गए तो विश्व भर में 2000-2020 की अवधि में सड़क यातायात के दौरान होने वाली क्षतियों और मौतों की कुल संख्या में 65 प्रतिशत बढ़ोतरी हो जायेगी। कम आय और मध्यम आय वाले देशों में तो इस क्षति में और मृत्यु की घटनाओं में 80 प्रतिशत तक इजाफा होगा। वर्तमान में यातायात दुर्घटनाओं में मरने की अधिक आशंका ‘‘कमजोर और सड़क का इस्तेमाल करने वालों, पैदल यात्रियों, पैडल साइकिल सवारों और मोटर साइकिल सवारों‘‘ की होती है। उच्च आमदनी वाले देशों में, यातायात मौतों में सबसे अधिक संख्या कार का इस्तेमाल करने वालों की है किन्तु, प्रति व्यक्ति जोखिम सड़क इस्तेमाल करने वालों में ही सबसे अधिक है। रिपोर्ट में इस चिंता को रेखांकित किया गया है कि असुरक्षित सड़क परिवहन प्रणाली का जन-स्वास्थ्य और वैश्विक विकास पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। स्वभाविक है कि सड़क हादसों में होने वाली मौतें और क्षतियां अस्वीकार्य हैं और काफी हद तक उन्हें टाला जा सकता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों (वर्ष 2002) के अनुसार हर वर्ष दुनिया भर में करीब 11.8 लाख लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं, जिनमें से 84,674 मौतें भारत में होती है। 2004 में इन मौतों की संख्या बढ़कर 92618 पर पहुंच गई। भारत में मृत्यु दर 8.7 प्रति एक लाख है जबकि ब्रिटेन में यह 5.6 और स्वीडन में 5.4 तथा नीदरलैंड में 5 और जापान में 6.7 है। प्रति 10,000 वाहनों के संदर्भ में मृत्यु दर भारत में सबसे अधिक 14 है जबकि इसकी तुलना में अन्य देशों में यह 2 है। विकसित देशों में सड़क दुर्घटनाओं की लागत सकल घरेलू उत्पादन के संदर्भ में एक से दो प्रतिशत के बीच आती है। 2002 में योजना आयोग के एक अध्ययन में बताया गया था कि भारत में सड़क दुर्घटनाओं की सामाजिक लागत 55,000 करोड़ रुपये वार्षिक (2000 के मूल्यों के अनुसार) बैठती है, जो सकल घरेलू उत्पाद का 3 प्रतिशत है।
सड़कों में व्यापक निवेश और वाहनों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि को देखते हुए यह अनिवार्य हो गया है कि एक ऐसी प्रणाली कायम की जाय जिसमें सड़क सुरक्षा पर असर डालने वाले सभी विषयों को एकीकृत किया जाय और साथ ही एक ऐसे संगठन के साथ उसे सम्बद्ध किया जो सड़क सुरक्षा के विभिन्न पहलुओं जैसे इंजीनियरी, शिक्षा, प्रवर्तन, चिकित्सा और व्यवहार विज्ञान की आवश्यकताएं पूरी कर सके।
गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014
सिक्कों के निर्माण से जुड़ी अहम जानकारी
·18वीं सदी- कलकत्ता टकसाल में सिक्कों का निर्माण शुरू हुआ। 1790 में इंगलैंड से आधुनिक मशीनरी लाई गयी और दूसरी टकसाल की स्थापना की गई। इन टकसालों से कांस्य, चांदी और सोने के सिक्के बनाये जाने लगे।
·1918- मुंबई टकसाल को लंदन की राॅयल मिन्ट टकसाल की शाखा घोषित करते हुए 1918 में ब्रिटिश स्मारक बनाए गए।
·1925- नासिक में पोस्टल स्टेशनरी और डाक टिकटों का मुद्रण शुरू हुआ।
·1928- नासिक में करंसी/बैंक नोटों का मुद्रण प्रारंभ हुआ।
·1929 के बाद- विभिन्न प्रकार के अन्य प्रतिभूति उत्पाद इसमें जुड़ गए।
·1962 - 1/- रु. के नोट का मुद्रण नए स्थान पर प्रारंभ हुआ।
·1967 - प्रतिभूति विनिर्माण मिल ने होशंगाबाद (मध्यप्रदेश) ने काम करना शुरू कर दिया।
·1974 - देवास (मध्यप्रदेश) में एक नयी प्रेस स्थापित की गई, जिसमें प्रिंटिंग मशीनों की सभी श्रेणियां लगाई गयी ताकि अधिक मूल्य के बैंक नोटों की प्रिन्टिंग पर ध्यान दिया जा सके, जिसमें ‘‘इनटैगलियो प्रिन्टिंग टैक्नाॅलोजी और गिलोटिन मशीनों‘‘ का इस्तेमाल बैंक नोटों के प्रोसेसिंग कार्यों के लिए किया गया। बैंक नोट प्रेस, देवास में उच्च कोटि की प्रतिभूति स्याही का उत्पादन भी किया गया और उसे विभिन्न प्रतिभूति संगठनों को भेजा गया।
·1980 - सभी करंसी/बैंक नोटों की प्रिन्टिंग नए स्थान पर शुरू हुई।
·1982 - भारत सरकार द्वारा हैदराबाद में प्रथम प्रतिभूति प्रिन्टिंग यूनिट कायम की गई।
·1988 - भारत सरकार ने नोएडा (उत्तरप्रदेश में) स्वयं की प्रथम टकसाल की स्थापना की।
’’भारतीय प्रतिभूति मुद्रण एवं मुद्रा निर्माण निगम से प्राप्त जानकारी
भारतीय सिनेमा के बदलते रंग
भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह सही अर्थों में देश के लोगों में फिल्म संस्कृति पैदा करने का एक साधन बन गया है। हालांकि भारतीय आमतौर पर सिनेमा प्रेमी रहे हैं और करीब हर साल 20 भाषाओं और बोलियों में एक हजार फीचर फिल्में देश में बनाई जाती हैं। लेकिन विभिन्न फिल्म समारोहों के आयोजन से लोगों को सिनेमा का जानकार बनाया जा रहा है और यह फिल्म समारोह पूरे देश में शुरू हो गए हैं।
भारत में पहला फिल्म समारोह 1952 में आयोजित किया गया था, लेकिन हर साल ऐसा समारोह आयोजित करने की परंपरा 1974 में पांचवे फिल्म समारोह के बाद शुरू हुई। कई वर्षों तक इस प्रकार का समारोह यहां-वहां आयोजित किया जाता रहा। आईएफएफआई का पहला प्रतिस्पर्धात्मक समारोह हर तीसरे साल बाद आयोजित किया जाता था, जबकि वैकल्पिक वर्षों में गैर-प्रतिस्पर्धी फिल्मोत्सव अन्य फिल्म निर्माण केंद्रों पर आयोजित किया जाने लगा।
1987 में समारोह के प्रतिस्पर्धी खंड का आयोजन बंद कर दिया गया, लेकिन 1996 में इसे तब फिर शुरू किया गया, जब एशिया की महिला फिल्म निर्देशकों की एक प्रतियोगिता आयोजित की गई। 1998 में एशियाई सिनेमा के लिए ऐसी प्रतियोगिता फिर की गई और वर्ष 2005 में यह प्रतियोगिता एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के लिए आयोजित की गई। वर्ष 2004 में फिल्म समारोह का स्थान बदलकर गोवा में पणजी कर दिया गया और इसे स्थयी स्थल बना दिया गया। इसके बाद गोवा सरकार ने केंद्र के साथ समारोह के बारे में तालमेल करने के लिए इंटरटेनमेंट सोसायटी ऑफ गोवा की स्थापना की।
प्रीतीश नंदी की अध्यक्षता में गठित एक उच्च स्तरीय समिति की अंतरिम रिपोर्ट के बाद समारोह के प्रतिस्पर्धी खंड को अंतरराष्ट्रीय स्तर का बना दिया गया और 2010 में दो नये पुरस्कार शुरू किए गए। दो पुरस्कार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और अभिनेत्री के लिए शुरू किए गए। यह समिति आईएफएफआई का स्तर बढ़ाकर अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप करने पर विचार करने के लिए गठित की गई थी।
परिणाम यह हुआ कि इस वर्ष 42वें फिल्म समारोह में एक बड़ा परिवर्तन दिखाई दिया। यह समारोह इन अर्थों में भी उल्लेखनीय रहा कि इसमें 65 देशों की 167 फिल्में दिखाई गईं। इसमें पहले के मुकाबले ज्यादा संख्या में विभिन्न खंडों के आयोजन किए गए, जिनके अनुरूप यह वास्तविक अर्थों में जनता का समारोह बन गया।
इसी वर्ष लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार भी फिर से शुरू किया गया। ऐसा पुरस्कार पहले फ्रांस के फिल्म निर्माता ब्रर्ट्रेंड टैवर्नियर को दिया गया था। इस पुरस्कार में एक शाल, एक प्रशस्ति पत्र और 10 लाख रूपये दिए जाते हैं।
ब्रर्ट्रेंड टैवर्नियर अपनी फिल्म क्लाकमैकर (1974) के लिए मशहूर है, जिसने 24वें बर्लिन अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में प्री लुई डैलू और सिल्वर बियर (विशेष जूरी पुरस्कार) जीते थे। टैवर्नियर की एक और जानी-मानी फिल्म है ‘लाइफ एंड नथिंग, बट’ जिसने अंग्रेजी के अलावा किसी अन्य भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म होने का पुरस्कार 1990 में प्राप्त किया था। इसे फोर सेशर पुरस्कार और 2010 के कान फिल्म समारोह में ‘पाम द और’ पुरस्कार भी दिया गया था। इस समारोह का कुल बजट लगभग 10 करोड़ रूपये था, जिसमें एक करोड़ रूपये की पुरस्कार राशि शामिल हैं।
परंपरा में बदलाव आया और आईएफएफआई जो पणजी में लगातार आठवीं बार आयोजित किया गया था, 22 नवंबर को मारगाव के रविंद्र भवन में आयोजित किया गया। इसका उद्घाटन बॉलीवुड स्टार शाहरुख खान ने सूचना और प्रसारण मंत्री सुश्री अंबिका सोनी की मौजूदगी में किया। अभिनेता सूर्य प्रमुख अतिथि थे। सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री श्री सी.एम. जटुआ ने तीन दिसंबर को गोवा के मुख्यमंत्री श्री दिगंबर कामत की अध्यक्षता में हुए समारोह में इसका समापन किया।
उद्घाटन सत्र में अभिनेता शाहरुख खान ने कहा कि सिनेमा अपने दर्शकों को कुछ समय के लिए एक ही प्रकार से सोचने का अवसर देता है। यह महत्वपूर्ण्नहीं है कि आपकी बगल में सिनेमा हाल के अंधेरे में कौन बैठा हुआ है। उन्होंने कहा कि उन्हें कला और कमर्शियल सिनेमा में भेद करना पसंद नहीं है, क्योंकि सभी फिल्में दुनिया का आईना होती है। समापन समारोह में अभिनेता सूर्य ने कहा कि फिल्में आकांक्षाओं के बारे में नहीं होती, बल्कि लोगों को कुछ बेहतर करने की प्रेरणा देती है। उन्होंने यह भी कहा कि सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि एक संस्कृति है।
उद्घाटन और समापन के समय दिखाई गई फिल्में सत्य कथाओं पर आधारित थीं। समारोह का समारंभ पुर्तगाल की एक फिल्म ‘द कांसुल ऑफ बोरदो’ से हुआ, जिसके निर्माता हैं फ्रांसिको मांसो और जोआओ कोरिया। यह फिल्म एक ऐसे व्यक्ति के जीवन पर आधारित है, जिसने दूसरे विश्व युद्ध के समय लगभग 30 हजार यहूदियों का जीवन वीज़ा जारी करके बचाया था। समापन सत्र में लकबेसों की फिल्म ‘द लेडी’ दिखाई गई, जो म्यांमार की नेता और नोबल पुरस्कार विजेता ‘आंग सान सुऊ क्यी’ के जीवन पर आधारित है। इस फिल्म में माइकल यीहो ने नायक की भूमिका निभाई, जो समापन समारोह में मौजूद थे। समापन सत्र में लकबेसों भी आए थे।
इस समारोह में अंतरराष्ट्रीय फिल्म उद्योग के सात दिग्गज निर्माताओं को श्रद्धांजलि दी गई। इस वर्ष के समारोह के समापन के समय जिन महान निर्माताओं को याद किया गया, उनमें सिडनी ल्यूमे, राउल रूज, क्राउड केवरोल, अडोलफास मिकाज, रिचर्ड लिकॉक, एलिजाबेथ टेलर और तारिक मसूद।
जिन दिवंगत भारतीय लोगों को श्रद्धांजलि अर्पित की गई, उनमें मणि कौल, शम्मी कपूर, जगजीत सिंह, भूपेन हजारिका और रविंद्रनाथ टैगोर शामिल हैं। उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों पर आधारित पाँच फिल्में भी दिखाई गई।
भारतीय पॅनोरमा के तहत 24 फीचर और 21 गैर-फीचर फिल्में शामिल थीं, जिसका समारंभ हिन्दी फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री माधुरी दीक्षित ने किया। संतोष सिवन की मलयालम फिल्म उरूमी और राजन-साजन मिश्र के संगीत पर मकरंद ब्राह्मे की गैर-फीचर फिल्म अद्वैत संगीत के प्रदर्शन से इसकी शुरुआत हुई।
सिनेमाई संसार के रत्नों को एक साथ लाते हुए इस समारोह ने ‘समारोह कैलिडोस्कोप’ का प्रदर्शन किया। इसके तहत कान, लोकार्नो, मॉण्ट्रियल और बुसान फिल्म समारोहों में शीर्ष पुरस्कार विजेताओं को शामिल किया गया था। यूरोपीय खोजों, पोलैण्ड पर स्पॉटलाइट, डॉक्यूमेंटरी, परदे पर रेखाचित्र, सिनेमा में फुटबॉल और रूसी क्लासिक पर केंद्रित खंडों का आयोजन किया गया। देशकेंद्रित खंड के तहत अमरीका पर ध्यान केंद्रित किया गया।
सात उत्कृष्ट फिल्में जो प्रतिस्पर्द्धा में शामिल नहीं हो सकीं, लेकिन जिन्हें उच्च दर्जे का माना गया, को ‘ए कट एबव’ खंड के तहत दिखाया गया। डिजिटल फॉर्मेट पर बनाई गई फिल्मों के साथ 3डी फिल्मों का भी प्रदर्शन किया गया। लघु फिल्मों के लिए प्रतिस्पर्द्धी लघु फिल्म केंद्र और फिल्म संस्थानों के फिल्म निर्माताओं के लिए छोटे सिनेमा खंड का भी आयोजन किया गया।
दो महान निर्देशकों फ्रांस के लकबेसों और आस्ट्रेलिया के फिलिप नॉयस की फिल्मों का प्रदर्शन ‘पुनरावलोकन खंड’ के तहत किया गया। ये दोनों प्रख्यात निर्देशक भी इस अवसर पर समारोह में मौजूद थे।
इस समारोह के दौरान चार दिवसीय फिल्म बाजार का आयोजन राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (एनएफडीसी) ने किया। इसके तहत 40 प्रदर्शन किए गए। भारतीय और विदेशी पक्षों द्वारा करीब 20 स्टॉलों की स्थापना की गई और इसमें करीब 500 प्रतिनिधि शामिल हुए। इसमें कुछ अनुबंध किए गए तो कई अभी प्रक्रिया में है।
मशहूर फिल्म निर्देशक अडूर गोपालाकृष्णन की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय अंतरराष्ट्रीय निर्णायक मंडल ने प्रतिस्पर्द्धा खंड की 14 फिल्मों का मूल्यांकन किया। निर्णायक मंडल के अन्य सदस्यों में इजराइल के डैन वोलमैन, अमरीका के लॉरेंस कार्दिश, द. कोरिया के ली यंग क्वान और ईरान की सुश्री तहमीना मिलानी थे।
अलेजांद्रो लैंड्स की कोलम्बियाई फिल्म ‘पोरफिरियो’ को इस समारोह की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का स्वर्ण मयूर पुरस्कार, तो ईरानी निर्देशक असगर फरहादी को समारोह के सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का रजत मयूर पुरस्कार प्रदान किया गया। फरहादी को उनकी फिल्म ‘नादेर और सिमिन: अ सेपेरेशन’ के निर्देशन के लिए यह सम्मान मिला। अलेजांद्रो को 40 लाख रुपए तो फरहादी को 15 लाख रुपए दिए गए।
जोसेफ मैडमोनी की इजराइली फिल्म ‘रेस्टोरेशन’ के लिए सैसन गैबे को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता, तो आंद्रेई ज्व्यागिनतेव की रूसी फिल्म ‘इलिना’ के लिए नादेज्डा मारकीना को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार दिया गया। दोनों को रजत मयूर और 10-10 लाख रुपए का पुरस्कार दिया गया।
भारत से सलीम अहमद की मलयाली फिल्म अदामिंते माकन अबू को विशेष ज्यूरी पुरस्कार दिया गया। इसके तहत 15 लाख रुपए की राशि और एक रजत मयूर दिया गया।
भारत और विदेशों से आए लोगों की बड़े पैमाने पर भागीदारी इस साल के समारोह की विशेषता रही। इनमें कई फिल्मी हस्तियां भी थीं, जिनकी कोई फिल्म इस समारोह में शामिल नहीं थी। वे फिल्मों के प्रति अपने प्यार की वजह से इस समारोह में शामिल हुए। रमेश सिप्पी, जानु बरुआ, सुधीर मिश्रा, राजेन्द्र अहीरे और सोहैल खान, ऑस्कर पुरस्कार विजेता रेसुल पोकुट्टी और कैमरापर्सन मधु अंबट ऐसे लोगों में थे। अन्य लोगों में फिल्म उद्योग में एक श्रमिक संघ के नेता श्री धर्मेश तिवारी, संचालन समिति के अध्यक्ष श्री माइक पाण्डे, भारतीय फिल्म महासंघ के अध्यक्ष टी. पी. अग्रवाल और महासचिव सुप्रन सेन, अभिनेता प्रेम चोपड़ा, जैकी श्रॉफ, इरफान खान, रितुपर्णा सेनगुप्ता, राहुल खन्ना, टिस्का चोपड़ा, समीर सोनी, मंदिरा बेदी, कंगना रानाउत और भूमिका आदि प्रमुख थे।
इसके अलावा इस समारोह में 5,000 प्रतिनिधियों और करीब 1,000 मीडियाकर्मियों ने भाग लिया। समारोह के लगभग सभी शो हाउसफुल रहे। इसमें 40 से अधिक संवाददाता सम्मेलन और करीब 10 खुले सत्रों का आयोजन किया गया। सिनेमा में सबटाइटल की कला विषय पर एक पैनल डिस्कशन और फिल्म आलोचक स्वर्गीय चिदानंद दासगुप्ता को श्रद्धांजलि देने के लिए एक सेमिनार का आयोजन किया गया।
इस समारोह की एकमात्र दुखद घटना ब्राजीली फिल्म निर्माता ऑस्कर मैरून फिल्हो की ह्रदयगति रुकने से अचानक हुई मौत रही। उनकी फिल्म ‘मारियो फिल्हो: अ क्रिएटर ऑफ क्राउड्स’ को फुटबॉल पैकेज के तहत इस समारोह में प्रदर्शित किया गया।
केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री सुश्री अंबिका सोनी के अनुसार, यह समारोह भारतीय सिनेमा की वैश्विक स्तर पर बढ़ रही स्वीकृति का सच्चा प्रतिनिधि बन गया है और इसने फिल्म उद्योग को गति और पहचान दी है।
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निवेश को बचाने और बढ़ाने के लिए वित्तीय साक्षरता ज़रुरी
उपभोक्ता मामलों में आजकल उपभोक्ता कल्याण के सभी पहलू शामिल हैं और इसे हाल में अंतरराष्ट्रीय पहचान भी मिली है । उपभोक्ता सामाजिक-आर्थिक- राजनीतिक प्रणाली का अभिन्न हिस्सा समझा जाता है, जहां क्रेता और विक्रेता के बीच के किसी भी विनिमय एवं लेन-देन का तीसरे पक्ष यानि समाज पर गहरा असर पड़ता है। व्यापक उत्पादन एवं बिक्री में सन्निहित फायदे की मंशा कई विनिर्माताओं एवं डीलरों को उपभोक्ताओं का शोषण करने का अवसर प्रदान करती है । बाजारों का वैश्वीकरण हो रहा है । उपभोक्ताओं पर उत्पादों के ढेरों विकल्प लादे जा रहे हैं, ऐसे में, कौन-सा उत्पाद खरीदा जाए -- इस संबंध में निर्णय लेना कठिन होता जा रहा है । इंटरनेट, डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड और एटीएम जैसी नई प्रौद्योगिकियां एक तरफ उपभोक्ता का जीवन आसान बना रही हैं तो दूसरी तरफ वे सुरक्षा और संरक्षण संबंधी चुनौतियां भी खड़ी कर रही हैं । उपभोक्ता के रूप में हमें सही सामान का चुनाव करना है । खरीददारी के दौरान ठगे जाने और मेहनत की गाढी क़माई अदा कर घटिया उत्पाद या सेवा मिलने का डर व जोखिम भी बना रहता है । अतएव, उपभोक्ता की संतुष्टि और सुरक्षा की आवश्यकता को पहचान दी गयी । फिलिप कोटलर ने कहा है कि उपभोक्तावाद विक्रेता से संबंध के दौरान क्रेता के अधिकारों और शक्तियों को मजबूती प्रदान करने का एक सामाजिक आंदोलन है । हर उपभोक्ता आजकल अपनी मुद्रा का मूल्य और ऐसा उत्पाद व सेवा चाहता है जो उसकी तर्कसंगत उम्मीदों पर खरी उतरें। इन्हीं उम्मीदों को उपभोक्ता अधिकार कहा जाता है ।
उपभोक्ताओं का शोषण
खराब सामान, सेवाओं में त्रुटियां, घटिया और नकली ब्रांड, भ्रामक विज्ञापन जैसी समस्याएं आम हो गयी हैं तथा भोले-भाले उपभोक्ता इनके शिकार हो जाते हैं । ज्यादातर उपभोक्ता, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, अशिक्षित होते हैं और उनमें जागरूकता एवं ज्ञान की कमी होती है । उपभोक्ताओं को सामानों और सेवाओं की खरीददारी के दौरान कई जोखिम उठाने पड़ते हैं । इसके अलावा, वित्तीय जोखिम भी हैं । उपभोक्ताओं को व्यय की गई राशि का मूल्य नहीं मिल पाता या उनसे ज्यादा पैसे ऐंठ लिये जाते हैं, जिससे वे शोषण के शिकार हो जाते हैं । बीमा पॉलिसी के दावे के निबटान में अनावश्यक देरी, अधिक बिल आने, त्रऽण के दोगुना होने, बिल आने में देरी, पेंशन में देरी, गलत बिलों में सुधार न होना, भ्रामक विज्ञापन, ऑफर में आनाकानी, पऊलैट का मालिकाना हक दिये जाने में देरी, चेक को गलत तरीके से अमान्य करना, बैंक में जमा किये गये चेक का गायब होना, फर्जी हस्ताक्षर वाले चेक, आदि जैसे इसके ढेरों उदाहरण हैं ।
ऐसे भी उदाहरण सामने आते हैं जब कंपनियां आकर्षक ब्याज दर या कुछ समय में धन दोगुना करने की स्कीम का भ्रामक विज्ञापन देती हैं । जब वे अच्छी खासी धनराशि एकत्र कर लेती हैं तो अपनी दुकान बंद कर फरार हो जाती हैं । कई बार लोगों को जमीन खरीदने के बाद पता चलता है कि जो जमीन उन्होंने खरीदी है वह या तो पहले से बिकी हुई है या साथ ही किसी और को भी बेची गयी है । एक ही पऊलैट एक ही साथ दो-दो लोगों को आबंटित कर दिया जाता है और असली हकदार को लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ती है । इसी तरह, शेयर के लिए आवेदन करने वाले कई बार ऐसी स्थिति में फंस जाते हैं जहां न तो उन्हें शेयर आवंटित होते हैं और न ही रिफंड मिलता है । इनमें से अधिकांश मामलों में उपभोक्ताओं को अपने निवेश या अपनी मेहनत की गाढी बचत के एक बड़े हिस्से से हाथ धोना पड़ता है । उपभोक्ताओं को एटीएम की गड़बड़ी के कारण भी नुकसान उठाना पड़ता है । उपभोक्ता मंत्रालय का इस वर्ष का ध्येय उपभोक्ताओं को वित्तीय साक्षर बनाना है ताकि वे बाजार से गुमराह न हों ।
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986
देश में प्रगतिशील कानून लागू करने के मामले में भारत किसी भी देश से पीछे नहीं रहा हह। हमारे देश के इतिहास में 24 दिसम्बर, 1986 को उपभोक्ता आंदोलन का श्री गणेश हुआ । भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ने इसी दिन उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 को स्वीकृति दी थी । इस अधिनियम के फलस्वरूप उपभोक्ता अधिकारों के क्षेत्र में ऐसी क्रांति आई, जिसकी मिसाल इतिहास में शायद कहीं नहीं मिलती । यह अधिनियम उन सभी उत्पादों और सेवाओं पर लागू होता है, जो निजी, सार्वजनिक या सहकारी--किसी भी क्षेत्र से संबंधित हों । केवल केन्द्र सरकार द्वारा विशेष रूप से छूट प्राप्त वस्तुओं या सेवाओं पर यह अधिनियम लागू नहीं होता । इस अधिनियम में अंतर्राष्ट्रीय रूप से स्वीकृत सभी उपभोक्ता कानून निहित हैं । इस अधिनियम के अनुसार, केन्द्रीय, राज्य और जिला स्तरों पर उपभोक्ता संरक्षण परिषदें कायम की गई हैं । उपभोक्ता अदालत नाम से ऐसी न्यायिक संस्थायें स्थापित की गई हैं, जहां उपभोक्ता की शिकायतों की सुनवाई आसानी से हो जाती है ।
उपभोक्ता मार्ग-निर्देश एवं शिक्षा
जागरूक उपभोक्ता किसी भी समाज की एक सम्पत्ति है । कोई भी उपभोक्ता जब बीमा पालिसी लेता है तो उसे छपी हुई जानकारी को सावधानीपूर्वक पढ लेना चाहिए, पालिसी के विवरणों को इकट्ठा कर लेना चाहिए, भरोसेमंद एजेंट से बीमा लेना चाहिए और उससे यह भी पता करना चाहिए कि उक्त पालिसी में बीमा कवर कितना है और दावे को दर्ज करने की प्रक्रिया क्या है। बैंक त्रऽण के लिए आवेदन करते समय उपभोक्ता को लिखित जानकारी सावधानीपूर्वक पढ लेनी चाहिए, लागू त्रऽण शर्तों की पुष्टि कर लेनी चाहिए, पुनर्भुगतान और समय सीमा के बारे में भी जानकारी हासिल कर लेनी चाहिए तथा अन्य त्रऽण विकल्पों से उसकी तुलना भी कर लेनी चाहिए, चिह्नित प्रभारों की जांच कर लेनी चाहिए, ब्याज की दर और जुर्माने आदि के बारे में दी गई जानकारी के साथ-साथ शर्तोेंं तथा अन्य विवरणों को पूरी तरह पढने अौर बिल को ठीक से परखने के बाद ही क्रेडिट कार्ड सेवा का ग्राहक बनना चाहिए । बैंकिंग और बीमा से सम्बध्द समस्याओं के समाधान के लिए बैंक लोकपाल सबसे उपयुक्त, स्वतंत्र और निष्पक्ष माध्यम है। किसी भी व्यक्ति को ऐसे विज्ञापनों के बहकावे में नहीं आना चाहिए जो उपभोक्ताओं के सूचना अधिकारों का उल्लंघन करते हैं और उन्हें वित्तीय हानि और मानसिक दुख पहुंचा सकते हैं । इसलिए रकम को दुगुना करें जैसे प्रलोभनों वाले विज्ञापनों से हमेशा सावधान रहें । इसलिए मुक्त बाजार की ताकतों और उपभोक्ता संरक्षण के बीच संतुलन बनाना चाहिए । कोई भी उपभोक्ता आंदोलन तभी सफल हो सकता है, जब उपभोक्ता संतुष्ट हों । उपभोक्ता तभी संतुष्ट होते हैं जब वे अपने उत्पादों और सेवाओं का मूल्य प्राप्त करते हैं । इस प्रकार सरकार, न्यायपालिका, व्यापारियों और उपभोक्ताओं के बीच सहक्रिया और सहयोग का होना आवश्यक है ।
बुधवार, 26 फ़रवरी 2014
कश्मीर घाटी में विकास की रेल
बारामूला से काजीगुंड के बीच 119 किलोमीटर लंबी रेल लाइन का काम पूरा कर सही मायने में भारतीय रेल ने कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक को अपने नेटवर्क से जोड़ दिया है। अनंतनाग से काजीगुंड तक की 18 किलोमीटर लंबी रेल लाइन को प्रधानमंत्री डॉ0 मनमोहन सिंह ने 28 अक्टूबर, 2009 को देश को समर्पित किया था । अनंतनाग से बारामूला के बीच 101 किलोमीटर लंबे रास्ते पर चलने वाली रेलगाड़ी बहुत लोकप्रिय साबित हुई है और इसमें पांच हजार से ज्यादा यात्री रोजाना सफर करते हैं । अनंतनाग और काजीगुंड के बीच रेल सेवा से भी घाटी के लोगों के लिए लाभकारी है। यह खण्ड शुरू होते ही बारामूला से काजीगुंड के बीच की 119 किलोमीटर लंबी रेल लाइन चालू हो गयी है । इस रूट पर सोपोर, हमरे, पट्टन, मजहोम, बड़गाम, श्रीनगर, पंपोर, काकापोरा, अवन्तिपुरा, पंजगाम, बिजबियारा, अनंतनाग और सदूरा जैसे स्टेशन पड़ते हैं ।
सभी तरह के मौसम में यातायात के एक भरोसेमंद विकल्प के तौर पर जम्मू कश्मीर को रेल मार्ग से शेष देश से जोड़ने के लिए रेल मंत्रालय ने जम्मू से बारामूला के बीच 345 किलोमीटर लंबे रेल मार्ग की योजना बनाई थी । यह रेल मार्ग ऊधमपुर, कटरा, रियासी, संगालदन, बनीहाल, काजीगुड, अनंतनाग और श्रीनगर से गुजरता है। यह परियोजना राष्ट्रीय महत्व की है । यही वजह है कि परियोजना के ऊधमपुर-बारामूला हिस्से को राष्ट्रीय परियोजनाएं घोषित किया गया और इसके लिए वित्त मंत्रालय द्वारा धनराशि उपलब्ध कराई गई। ऊधमपुर-श्रीनगर-बारामूला रेल संपर्क परियोजना (292 किलोमीटर) की अनुमानित लागत 11270 करोड़ रुपये आई।
रेल विभाग को कटरा-काजीगुंड खंड परियोजना के लिए 262 किलोमीटर संपर्क सड़क की भी आवश्यकता थी ताकि निर्माण सामग्री और मजदूरों को पहुंचाया जा सके। इसमें 145 किलोमीटर लंबी सड़क यातायात के लिए खोल दी गयी है जिस पर नियमित रूप से गांवों को जोड़ने वाली बसें चल रही हैं । इस तरह यहां यातायात शुरू हुआ और कोई भी गांव अब दूर नहीं रहा। अब मरीजों को आसानी से अस्पताल पहुंचाया जा सकता है, युवा वर्ग दूर स्थित शैक्षिक संस्थानों तक पहुंच सकता है और इस तरह अपने कैरियर की संभावनाओं को बेहतर बना सकता है। यह भी देखा गया है कि अब शादियां विभिन्न गांवों में रहने वालों के बीच होने लगी हैं जबकि पहले यह एक ही जगह सीमित थीं । गांवों के स्थानीय उत्पाद अब शीघ्रता से शहरी बाजारों में पहुंचने लगे हैं । इससे उन लोगों को बेहतर अवसर मिलने लगे हैं, जो दूरियों और यातायात के अभाव के कारण व्यापार अवसरों से वंचित थे ।
घाटी में रेल लाइन के निर्माण में लगभग 3250 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं। इस मार्ग में 64 बड़े और 640 छोटे पुल हैं। स्टेशन की इमारतों का निर्माण स्थानीय वास्तुकला के अनुरूप सुन्दर तरीके से किया गया है। यह केवल देखने में ही सुन्दर नहीं बल्कि मौसम के अनुरूप भी हैं। इस रेल मार्ग का दूसरा दिलचस्प पहलू यह है कि इंजन-डिब्बों सहित सभी निर्माण सामग्री सड़क द्वारा पहुंचाई गई। परियोजना पूरी करने की यह दूसरी चुनौती थी।
कश्मीर घाटी में रेल सेवा से घाटी के लोगों के रहन-सहन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। रेल केवल यातायात का साधन-मात्र नहीं है बल्कि इसके प्रभाव से समाज में भी बदलाव आता है। जैसे-जैसे दूरस्थ कस्बे, शहर और इलाके एक-दूसरे से जुड़ते जाते हैं, वैसे-वैसे साझा संस्कृति पैदा होनी शुरू हो जाती है । लोग रोजगार के लिए अन्य इलाकों में जाते हैं और वहीं रहने लगते हैं । इससे अंतर-देशीय प्रवास बढता है और क्षेत्रीय रुकावटें खत्म होती हैं । आज रेल की इन्हीं लौह पटरियों ने हमें एक दूसरे के साथ मजबूती से जोड़ दिया है। ।
सूचना प्रौद्योगिकी - अनंत संभावनाओं की डगर
सूचना और प्रौद्योगिकी क्षेत्र में भारतीयों का दबदबा तो विश्व मान ही चुका है लेकिन अब इस क्षेत्र में भारतीयता ने भी अपने कदम बढा दिए हैं । 8 सितम्बर, 2009 को दिल्ली में छह भारतीय भाषाओं में सूचना प्रौद्योगिकी उपकरणों व फॉन्टस के लोकार्पण के साथ ही समस्त 22 अनुसूचित भारतीय भाषाओं में इस प्रकार की भाषा तकनीक अब आम आदमी के उपयोग हेतु उपलब्ध हो चुकी है। अब बहुभाषी भारतीय, अपनी-अपनी भाषाबोली में कंप्यूटर के माध्यम से संचार व्यवहार करने में सक्षम हैं।
यूं तो डेस्कटाप प्रकाशन व्यवस्था ने प्रकाशन उद्योग के स्वरूप में क्रांतिकारी बदलाव कर दिए थे किन्तु ये केवल अंग्रेजी हिंदी प्रकाशनों तक ही सीमित रहे । लेकिन अब सभी भारतीय भाषाओं का सूचना प्रौद्योगिकी में खुलकर उपयोग होने से भारतीयता के सभी पक्षों जैसे भाषाएं, मूल्य, पारंपरिक ज्ञान, सहज संपर्क, व्यापार, पत्र व्यवहार आदि के लिए अनंत संभावनाओं के द्वार खुल गए हैं और यह सब संभव किया है सूचना प्रौद्योगिकी विकास विभाग के भारतीय भाषाओं के लिए तकनीकी कार्यक्रम (TDIL) एवं उन्नत संगणनक विकास केन्द्र (CDAC)के मिले जुले प्रयत्नों ने । इनके तकनीकी पक्ष को भाषाई पक्ष का सहयोग मिला है साहित्य अकादमी में विभिन्न भाषाओं के प्रतिनिधियों से ।
केवल पांच प्रतिशत अंग्रेजी जानने वाली बहुभाषी भारतीय जनसंख्या के लिए उनकी भाषा में सूचना प्रसंस्करण हेतु आवश्यक था लोकभाषा में सापऊटवेयर का विकास किया जाए । इसकी शुरूआत हुई 15 अप्रैल 2005 को जब पहले कदम के रूप में तमिल भाषा के फॉन्टस एवं शब्दकोष का लोकार्पण किया गया । बाकी भारतीय भाषाओं को भी चरणबध्द तरीके से सूचना प्रौद्योगिकी उपकरण उपलब्ध कराए गए । अब तक केवल सोलह भारतीय भाषाओं में प्रिंट एवं इलेक्ट्रोनिक संचार माध्यमों के लिए तरह-तरह के फॉन्टस तथा कार्यालय के कामकाज , बेव ब्राउजिंग तथा ई-मेल आदि हेतु सापऊटवेयर ही उपलब्ध था । यह भाषाएं थीं हिंदी, तमिल,तेलुगु,, असामी, कन्नड़, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, उर्दू, बोडो डोगरी, मैथिली, नेपाली, गुजराती एवं संस्कृत । अब बंगाली, कश्मीरी, कोंकणी, मणिपुरी, संथाली और सिंधी समेत छ भाषाओं की अंतिम किस्त के साथ ही राष्ट्रीय रोलआउट प्लान का पहला चरण पूरा हो गया है । भारतीय भाषाओं में सूचना तकनीक उपकरण निशुल्क उपलब्ध हैं । इन्हें प्राप्त करने के लिए आप या तो http://www.ildc.gov.in या http://www.ildc.in पर आवेदन कर सकते हैं या इन्हीं वेबसाइटों से डाउन लोड कर सकते हैं ।
चूंकि कुछ भाषाएं प्रांतीय सीमाओं को लांघ दूसरे राज्यों में भी बोली जाती हैं अत: उन भाषाओं को एक से अधिक लिपियों में उपलब्ध कराया गया है ताकि किसी भी भाषा को लिपिबध्द करने में कोई बाधा न आए । कश्मीरी व सिंधी भाषा को फारसी अरेबिक तथा देवनागरी लिपियों में निकाला । इसी तरह महाराष्ट्र , कर्नाटक और केरल में बोली जाने वाली कोंकणी को देवनागरी और रोमन लिपि में, मणिपुरी भाषा को मीतेई यामेक लिपि के साथ ही संशोधित बंगला में तथा संथाली को ओल चिक्की लिपि के साथ-साथ देवनागरी में भी निकाला गया है ।
यह भाषा प्रौद्योगिकी विकास भारतीय सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण संवर्धन व भावी राष्ट्रीय विकास की समृध्दि में अहम भूमिका निभाएगा । अनुपम सांस्कृतिक ज्ञान का भंडार होने के कारण प्रत्येक भाषा विविधता, मानवीय विरासत का अभिन्न अंग है । किसी भी भाषा का लुप्त हो जाना मानव मात्र की क्षति है । परन्तु इस तकनीकी युग में उनके लुप्त होने का डर अब समाप्त होगया है । क्योंकि भारतीय भाषाओं व लिपियों का सूचना तकनीक पोषित संरक्षण और संवर्धन संभव है । भारतीय अब अपनी-अपनी भाषा में सोच और लिख सकेंगे । इस मौलिक लेखन से अनुदित कृतियों की नीरसता से मुक्ति मिलेगी । भारतीय भाषाओं में चिंतन व सामग्री सृजन को बढावा मिलेगा और अंग्रेजी की बाधा से मुक्ति । अब वह चाहे व्यापार का क्षेत्र हो, साहित्य का या फिर कोई और ।
2 सितम्बर 2013 को इंटरनेट ने अपनी आयु के 44 वर्ष पूरे कर लिए हैं । एसोसिएटिड प्रेस (ए पी) की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व के 70-80 प्रतिशत इंटरनेट उपयोग करने वालों की तुलना में केवल 7 प्रतिशत भारतीय ही इंटरनेट का प्रयोग करते हैं । भाषायी दुविधा समाप्ति से भारतीयों की इस संख्या में निसंदेह वृध्दि होने की आशा है ।
वैश्वीकरण की प्रक्रिया और समग्र विकास जन-जनको जोड़ने वाली सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी द्वारा ही संभव है । भाषा वह वाहन है जिसके द्वारा दूरदराज के लोगों के साथ संवाद द्वारा विकास लक्ष्यों को बढावा दिया जा रहा है । पिछली यूपीए सरकार में ई-गर्वनेंस न्यूनतम साझा कार्यक्रम का हिस्सा बनने के बाद से इस पर बड़े स्तर पर काम हो रहा है । भारतीय भाषाओं में सूचना संचार तकनीक की उपलब्धता के बाद अब इस दिशा में अगला कदम बदलती तकनीकों की चुनौती को स्वीकारते हुए भारतीय भाषाओं में ध्वनि तकनीक आधारित इंटरफेस का विकास करना है ताकि दृष्टिहीनों व अनपढ लाेग भी इसका लाभ उठा सकें । सूचना संचार तकनीक के लाभ ग्रामीण भारत में तभी पैठ बना सकेंगे जब लोकभाषा में नवीनतम तकनीक उपलब्ध होंगी ।
देश के सामाजिक तानों बानों को भी भाषा तकनीक की बुनावट एक सूत्र में बांधने में सहायक होगी तथा क्षेत्रीय अलगाव व भाषाई अलगाव को सूचना तकनीकी जुडाव पाटने में भी योगदान करेंगे ।
मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014
अल निनो मानसून को कैसे प्रभावित करता है
भारत के मध्य और उत्तरी क्षेत्रों में मानसून में होने वाले विलम्ब को प्रैस में आमतौर पर अल निनो के रूप में जाना जाता है।
अल निनो नाम स्पैनिश से आता है जिसका अर्थ है छोटा लड़का । अल-निनो की परिस्थितियां आमतौर पर दक्षिण अमरीका के पश्चिमी तट पर प्रशांत महासागर में क्रिसमिस के आसपास अपना प्रभाव दिखाती हैं।
अल निनो से बाढ, सूखे के अलावा दुनियाभर में अलग-अलग स्थानों पर अन्य समस्यायें भी उत्पन्न होती हैं। इन्हीं प्रभावों के कारण इससे उत्पन्न होने वाली संभावनाओं पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। यह दुनिया भर में (करीब 3 से 8 वर्षों) में मौसम और जलवायु में होने वाले अंतर-वार्षिक परिवर्तनों का सबसे प्रमुख ज्ञात स्रोत है हालांकि इससे सभी क्षेत्र प्रभावित नहीं होते। यह प्रशांत, अटलांटिक और हिन्द महासागर में अपना प्रभाव दिखाता है। अल-निनो आधिकारिक तौर पर मध्य उष्ण कटिबंधीय प्रशांत महासागर के पार 0.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा मैग्नीटयूड की समद्री सतह के तापमान की विसंगतियों को प्रमाणित करने के रूप में परिभाषित किया जाता है। यह परिस्थितियां पांच माह से कम समय की अवधि की होती हैं तो इन्हें अल-निनो परिस्थितयों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। यदि विसंगतियां पांच माह अथवा उससे ज्यादा समय के लिए होती हैं तो इसे अल-निनो एपिसोड के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। ऐतिहासिक तथ्यों के मुताबिक, यह स्थिति 2-7 वर्षों के अनियमित अंतराल पर उत्पन्न होती है और आमतौर पर एक या दो वर्षो तक रहती है।
मौसम वैज्ञानिक काफी समय से यह जानते हैं कि अल-निनो मानसून के व्यवहार को प्रभावित कर सकता है। भारत के 132 वर्ष पुराने वर्षा के इतिहास में यह देखा गया है कि भयंकर सूखे अल-निनों से उत्पन्न स्थितियों के साथ जुड़े रहे हैं। लेकिन अल-निनो परिस्थितियां हमेशा ही भयंकर सूखें को जन्म नहीं देतीं। अल-निनो -मानसून संबंध का पता लगाने वाले मौसम वैज्ञानिकों को यह विसंगतियां असमंजस में डाल देती हैं।
प्राकृतिक रूप से, पूर्वी प्रशांत का जल ठंडा रहता है और जब अल-निनो मध्य प्रशांत के ऊपर के वातावरण को बेहद गर्म करता है तो यह गर्म होता है और वाष्प के रूप में उठता है। इससे भारत के ऊपर एक बड़े क्षेत्र में शुष्क वायु प्रवाहित होती है और इससे मानसून प्रभावित होता है लेकिन इसके अलावा हिन्द महासागर के तापमान जैसे अन्य कारण भी हैं जो मानसून में अपनी भूमिका अदा करते हैं।
सोमवार, 24 फ़रवरी 2014
गांधीजी के सपनों का भारत और हिंद स्वराज
महात्मा गांधी ने सन् 1909 में इंग्लैंड से वापस दक्षिण अफ्रीका लौटने के दौरान 'किल्जेनन कैसल' नामक जहाज पर 'हिंद स्वराज'' नामक पुस्तक की रचना की थी जो सबसे पहले 'इंडियन ओपनीयन' दिसंबर 2009 के दो अंकों में 'इंडियन होम रूल' नाम से प्रकाशित हुई थी। मूलत: गुजराती में लिखी गई इस पुस्तक में 20 अध्याय हैं, जिसका प्रकाशन 1910 में हुआ। गांधीजी भारत में ब्रिटिश अफसरों द्वारा किये गये अपमान का बदला लेने के लिए मदन लाल ढींगरा द्वारा ब्रिटिश अधिकारी कर्जन वाइली की हत्या की घटना की सूचना पाकर विचलित हो उठे थे। उन्हें इस बात से तब और अधिक चिंता होने लगी थी कि इस घटना को भारत के अधिसंख्य युवाओं का समर्थन है। यही नहीं, अपने इंग्लैंड प्रवास के दिनों में कुछ ऐसे दलों के नेताओं से उनकी मुलाकात हुई जो स्वतंत्रता पाने के लिए अंग्रेजाें की हत्या करना भी उचित ठहराते थे। गांधीजी को उन्हें समझाने के प्रयास में सफलता नहीं मिल पायीं। तब उन्होंने इन सारी स्थितियों के बारे में चिंतन-मनन किया और फिर वहां से दक्षिण अफ्रीका की वापसी यात्रा में 'हिंद स्वराज' की रचना की। गांधीजी ने इस पुस्तक में यह समझाने का प्रयास किया कि स्वराज्य तभी प्राप्त हो सकता है जब भारत की महान सभ्यता का भारतीय अनुसरण करें तथा स्वंय को आधुनिक सभ्यता के विनाशकारी प्रभावों से बचा कर रख सकें। उनका यह स्पष्ट मानना था कि हिंसा को भारतीय सभ्यता में कोई स्थान नहीं है। 'हिंद स्वराज्य' में गांधीजी ने स्वराज्य में शिक्षा के महत्व पर चर्चा की है। वे भारत में दी जा रही उच्च शिक्षा को इसलिए महत्वहीन मानते थे क्योंकि उनका मानना था कि वह छात्रों को जीवनगत मूल्यों की शिक्षा नहीं देती। पुस्तक के 20 अध्यायों में से 11वें अध्याय तक ऐतिहासिक संदर्भों पर विचार किया गया है लेकिन बाद के नौ अध्यायों में स्वराज्य को परिभाषित करते हुए सभ्यता के स्वरूप पर चर्चा करने के साथ धर्म के अभिप्राय को समझाते हुए वास्तविक होमरूल के लिए स्वशासन की आवश्यकता के महत्व को रेखांकित किया गया है।
गांधीजी के अनुसार : स्वराज एक पवित्र शब्द है ; यह एक वैदिक शब्द है, जिसका अर्थ आत्मशासन और आत्म संयम है, अंग्रेजी शब्द इंडिपेंडेंस अक्सर सब प्रकार की मर्यादाओं से मुक्त निरंकुश आजादी का या स्वच्छंदता का अर्थ देता है। वह अर्थ स्वराज्य में नहीं है।
( यंग इंडिया 31.31.931)
'हिंद स्वराज' पुस्तक की रचना की शताब्दी मनायी जा चुकी है। बीते सौ साल में इस पुस्तक में की गयी स्थापनाओं का महत्व आज भी अप्रासंगिक नहीं हुआ है, यह इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है। गांधीजी अजीवन इस पुस्तक में स्थापित अपनी मान्याताओं पर अडिग रहे और उन्होंने इसे एक ऐसी युगांतरकारी पुस्तक के रूप में अमर कर दिया जो युगों-युगोंतक मार्गदर्शन के लिए सर्वथा उपयुक्त ही नहीं बल्कि महत्वपूर्ण भी है।
अंहिसा का मार्ग
गांधीजी का कहना था कि मेरी अहिंसा वह अहिंसा है जहां सिर्फ एक मार्ग होता है अहिंसा का मार्ग। उनका विचार था कि अहिंसा के मार्ग का प्रथम कदम यह है कि हम अपने दैनिक जीवन में सहिष्णुता, सच्चाई, विनम्रता, प्रेम और दयालुता का व्यवहार करें।
उन्होंने कहा था कि अंग्रेजी में एक कहावत है कि ईमानदारी सबसे अच्छी नीति है। नीतियां तो बदल सकती हैं और बदलती हैं। परन्तु अहिंसा का पंथ अपरिवर्तित है।
गांधीजी मानते थे कि अहिंसा की बात सभी धर्मों में है। उन्होंने कहा कि अहिंसा हिंदू धर्म में है, ईसाई धर्म में है, और इस्लाम में भी है। उनका कहना था कि पवित्र कुरान में सत्याग्रह का पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध है। उन्होंने इस्लाम शब्द का अर्थ 'शांति' बताया जिसका तात्पर्य है अहिंसा। उन्होंने कहा कि अहिंसा का ढृढ़ता से आचरण अवश्य हमें सत्य तक ले जाता है जो हिंसा के व्यवहार से संभव नहीं है, इसलिए अहिंसा पर मेरा दृढ़ विश्वास है।
रामराज्य की परिकल्पना
गांधीजी ने अपने विचारों में स्वराज्य के साथ आदर्श समाज, आदर्श राज्य अथवा रामराज्य का कई बार प्रयोग किया है, जो वास्तव में लगभग एक हैं। रामराज्य को बुराई पर भलाई की विजय के रूप में देखते हैं। स्वराज्य को वे ईश्वर के राज्य के रूप में मानते हैं क्योंकि उनके लिए ईश्वर का अर्थ है सत्य। अर्थात सत्य ही ईश्वर है- सत्य ही चिरस्थायी है। सत्य की व्याख्या करते हुए गांधी जी यह भी कहते हैं कि किसी विशेष समय पर एक शुध्द हृदय जो अनुभव करता है वह सत्य है और उस पर अडिग रह कर ही शुध्द सत्य प्राप्त किया जा सकता है। वे और आगे इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सत्य की साधना आत्मपीड़न एवं त्याग से ही संभव है।
गांधीजी के विचार में सत्य, अहिंसा से ही जाना जाता है। सत्य के समान अहिंसा की शक्ति असीम और ईश्वर पर्याय है। सत्य सर्वोच्च कानून है और अहिंसा सर्वोच्च कर्तव्य। वे कहते हैं कि अहिंसा का तात्पर्य कायरता नहीं है। इन दोनों का अस्तित्व एक साथ संभव नहीं है। उनके लिए अहिंसा न केवल संपूर्ण जीवन दर्शन है बल्कि एक जीवन पध्दति है।
एकादश व्रत
गांधीजी के एकादश व्रत थे जो सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, आचार, अपरिग्रह, अभय, अस्पृश्यता निवारण, शरीरश्रम, सर्वधर्म समभाव और स्वदेशी हैं। सत्याग्रह को तभी जाना जा समझा सकता है जब समग्रता के साथ सत्य को जाना जाए।र् ईष्या, द्वेष, अविश्वास जैसी मानसिक हिंसा को भी वे उतना ही घातक समझते थे जितना कि शारीरिक हिंसा को। कहने का अर्थ यह है कि वे किसी भी रूप में हिंसा का बचाव करने के पक्षधर कभी नहीं रहे। गांधीजी ने सत्याग्रह में भी इसे और स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा : सत्याग्रह शब्द का उपयोग अक्सर बहुत शिथिलतापूर्वक किया जाता है और छिपी हुई हिंसा को भी सत्याग्रह का नाम दे दिया जाता है। लेकिन इस शब्द का रचयिता होने के नाते मुझे यह कहने कि अनुमति मिलनी चाहिए कि उसमें छिपी हुई अथवा प्रकट, सभी प्रकार की हिंसा का, फिर वह कर्म की हो या मन और वाणी की हो, पूरा बहिष्कार है।
गांधीजी ने 'हिंद स्वराज' में आधुनिक सभ्यता की तीखी आलोचना करते हुए इस बात पर बल दिया कि स्वराज्य की स्थापना भारतीय सभ्यता के मूल्यों पर होनी चाहिए। वे पाश्चात्य सभ्यता को संक्रामक रोग की तरह मानते थे जो भौतिक सुख पर आधारित है। वे उसके अंधानुकरण के घोर विरोधी थे लेकिन कहते थे कि पश्चिम के पास ऐसा बहुत कुछ है जिसे हम अपना सकते हैं और परिस्थितियों के अनुसार अपने अनुकूल ढाल सकते हैं।
सर्वधर्म एकता
गांधीजी मानते थे कि स्वराज्य का अर्थ है हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, पारसी, ईसाई, यहूदी सभी धर्मों के लोग अपने धर्मों का पालन कर सकें और ऐसा करते हुए एक-दूसरे की रक्षा और एक-दूसरे के धर्म का आदर करें। उन्होंने बढ़ती हुई साम्प्रदायिकता का कारण भय, अविश्वास, प्रतिशोध और असंभव आकांक्षाओं के टकराव को माना। उन्होंने कहा कि हिंदू-मुस्लिम एवं सभी सम्प्रदायों के प्रयोजन, हित एवं संगठन में समग्र राष्ट्रीय हित वृध्दि संभव है जिसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि हिंदू-मुस्लिम एकता ही स्वराज्य है।
महिला समानता
गांधीजी बाल विवाह के घोर विरोधी थे और इसे हानिकारक प्रथा मानते थे। उन्होंने क हा कि धर्म में जोर-जबर्दस्ती का तो हम विरोध करते हैं परन्तु धर्म के नाम पर अपने देश की तीन लाख से अधिक ऐसी बाल विधवाओं के ऊपर हमने वैधव्य का बोझ लाद रखा है जो बेचारी विवाह-संस्कार का अभिप्राय तक नहीं समझ सकतीं। बालिकाओं पर वैधव्य लादना तो पाश्विक अपराध है।
उन्होंने कहा कि स्त्रियों को अबला जाति मानना उनका अपमान है। ऐसा कहकर पुरु ष स्त्रियों के प्रति अन्याय ही करते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि यदि मैं स्त्री के रूप में जन्मा होता तो पुरुष के इस दंभ के विरुध्द कि स्त्री पुरुष के मनोरंजन की वस्तु है, विद्रोह कर देता।
गांधीजी बाल विवाह, पर्दा-प्रथा, दहेज प्रथा और वेश्यावृत्ति के घोर विरोधी थे किन्तु विधवा विवाह के प्रबल समर्थक थे। उनका कहना था कि जो स्त्री निर्भय है और यह जानती है कि उसकी चारित्रिक निर्मलता उसकी सबसे बड़ी ढाल है, उसकी आबरू कभी नहीं लुट सकती।
गांधीजी ने 'हिंद स्वराज' में जिन विचारों को अपनाने पर जोर दिया है उन्हें उनके जीवन काल में अनदेखा किया गया लेकिन आज उनके महत्व को पूरे विश्व में स्वीकार किया जा रहा है। उनकी वैश्विक स्वीकार्यता आज इतनी बढ़ चुकी है कि उनके जन्मदिन (2 अक्टूबर) को पूरे विश्व में 'विश्व अहिंसा दिवस ' के रुप में मनाया जाने लगा है। यह गांधी के विचारों की वैश्विक स्वीकार्यता का ही परिणाम है। गांधीजी ने कहा था कि यह मानव आज नहीं तो कल सोचेगा जरूर और जानेगा कि यह बूढ़ा कोई मूर्ख नहीं है। 'मेरे सपनों का भारत' में गांधीजी कहते हैं : भारत की हर चीज मुझे आकर्षित करती है। सर्वोच्च आकांक्षाएं रखने वाले किसी व्यक्ति को अपने विकास के लिए जो कुछ चाहिए, वह सब उसे भारत में मिल सकता है।
(यंग इंडिया 21.02.1929)
ग्राम स्वराय
ग्राम स्वराज्य की गांधीजी की कल्पना थी कि वह एक ऐसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जो अपनी अहम जरूरतों के लिए अपने पडोसी पर भी निर्भर नहीं करेगा और फिर बहुतेरी दूसरी जरूरतों के लिए-जिसमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा वह परस्पर सहयोग से काम लेगा।
(हरिजन सेवक 2.8.1942)
आजादी के बाद ग्रामीण विकास की जो अनेकयोजनाएं संचालित की जा रही हैं उनका आधार गांधीजी की ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना ही है। नई पंचायतराज व्यवस्था उसी सोच का प्रतिफल है, जिसमें महिलाओं, अनुसूचित जातियों, पिछड़े वर्गों, अल्प संख्यकों और शोषित पीड़ितों को उनके अधिकार मिले हैं और वे अपने विकास की कहानी अब स्वयं लिख रहे हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम (नरेगा) के माध्यम से 'महात्मा गांधी के जंतर......' की कसौटी को आजमाने का सफल प्रयास किया गया है, जिसकी समूचे विश्व में सराहना हुई है।
गांधीजी ने कहा था,''मैं तुम्हें एक जंतर देता हूं । जब भी तुम्हें संदेह हो या जब अहं तुम्हारे ऊपर हावी होने लगे तो यह कसौटी आजमाओ, जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी (महिला) तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा? क्या उसे कुछ लाभ पहुंचेगा? क्या उससे वह अपने ही जीवन व भाग्य पर कुछ काबू कर सकेगा? दूसरे शब्दों में, क्या इससे करोड़ों भूखे, प्यासे लोगों को स्वराज्य (आजादी) मिल सकेगा? तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहं समाप्त होता जा रहा है।''
रविवार, 23 फ़रवरी 2014
अनन्य पहचान : राष्ट्रीय जनसंख्या पंजीयक (NPR)
शायद हम में से ज्यादातर ने समाचारपत्रों या पत्रिकाओं में राष्ट्रीय जनसंख्या पंजीयक (एनपीआर) के बारे में पढ़ा होगा। लेकिन यह सारी चहल-पहल आखिर है क्या ? एनपीआर क्या है ? इसका उद्देश्य क्या है ? और इन सबसे बढ़कर, इससे आम आदमी को क्या फायदा होने जा रहा है ?
एनपीआर के बारे में जानने के लिए, पहले जनगणना के बारे में कुछ जान लेना आवश्यक है। अब, भारत के लिए जनगणना कोई नई चीज़ नहीं है। यह अंग्रेजों के राज से ही की जाती रही है। भारत में पहली जनगणना 1872 में हुई थी। वर्ष 1881 से, जनगणना बिना किसी रूकावट के हर दस साल में की जाती रही है। जनगणना एक प्रशासनिक अभ्यास है जो भारत सरकार करवाती है। इसमें जनांकिकी, सामाजिक -सांस्कृतिक और आर्थिक विशेषताओं जैसे अनेक कारकों के संबंध में पूरी आबादी के बारे में सूचना एकत्र की जाती है।
वर्ष 2011 में भारत की 15वीं तथा स्वतंत्रता के बाद यह सातवीं जनगणना होगी। एनपीआर की तैयारी वर्ष 2011 की जनगणना का मील का पत्थर है। जनगणना दो चरणों में की जाएगी। पहला चरण अप्रैल से सितंबर 2010 के दौरान होगा जिसमें घरों का सूचीकरण, घरों की आबादी और एनपीआर के बारे में डाटा एकत्र किया जाएगा। इस चरण में एनपीआर कार्यक्रम के बारे में प्रचार करना भी शामिल है जो दो भाषाओं- अंग्रेजी और हर राज्य#संघीय क्षेत्र की राजभाषा में तैयार किया जाएगा। पहला चरण पहली अप्रैल, 2010 को पश्चिम बंगाल, असम, गोवा और मेघालय राज्यों तथा संघीय क्षेत्र अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में शुरू होगा। दूसरे चरण में आबादी की प्रगणना करना शामिल है।
देश के साधारण निवासियों का राष्ट्रीय जनसंख्या पंजीयक बनाना एक महत्वाकांक्षी परियोजना है। इसमें देश में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के बारे में विशिष्ट सूचना एकत्र की जाएगी। इसमें अनुमानित एक अरब 20 करोड़ की आबादी को शामिल किया जाएगा तथा इस स्कीम की लागत कुल 3539.24 करोड़ रुपए होगी। भारत में पहली बार एनपीआर तैयार किया जा रहा है। भारत का पंजीयक यह डाटाबेस तैयार करेगा।
इस परिस्थिति में, इस बात पर बल देना महत्वपूर्ण हो जाता है कि यद्यपि इन दोनों अभ्यासों का मक़सद सूचना का संग्रह है मगर जनगणना और एनपीआर अलग-अलग बातें हैं। जनगणना जनांकिकी, साक्षरता एवं शिक्षा, आवास एवं घरेलू सुख-सुविधाएं, आर्थिक गतिविधि, शहरीकरण, प्रजनन शक्ति, मृत्यु संख्या, भाषा, धर्म और प्रवास के बारे में डाटा का सबसे बड़ा स्रोत है। यह केंद्र एवं राज्यों की नीतियों के लिए योजना बनाने तथा उनके कार्यान्वयन के लिए प्राथमिक डाटा के रूप में काम आता है। यह संसदीय, विधानसभा और स्थानीय निकाय के चुनावों के लिए निर्वाचन क्षेत्रों के आरक्षण के लिए भी इस्तेमाल की जाती है।
दूसरी तरफ एनपीआर में, देश के लिए व्यापक पहचान का डाटाबेस बनाना शामिल है। इससे आयोजना, सरकारी स्कीमों#कार्यक्रमों का बेहतर लक्ष्य निर्धारित करना तथा देश की सुरक्षा को मजबूत करना भी सुगम होगा। एक अन्य पहलू जो एनपीआर को जनगणना से अलग करता है, वह यह है कि एनपीआर एक सतत प्रक्रिया है। जनगणना में, संबंधित अधिकारियों का कर्तव्य सीमित अवधि के लिए होता है तथा काम समाप्त होने के बाद उनकी सेवाएं अनावश्यक हो जाती हैं जबकि एनपीआर के मामले में संबंधित अधिकारियों और तहसीलदार एवं ग्रामीण अधिकारियों जैसे उनके मातहत अधिकारियों की भूमिका स्थायी होती है।
एनपीआर में व्यक्ति का नाम, पिता का नाम, मां का नाम, पति#पत्नी का नाम, लिंग, जन्म तिथि, वर्तमान वैवाहिक स्थिति, शिक्षा, राष्ट्रीयता (घोषित), व्यवसाय, साधारण निवास के वर्तमान पते और स्थायी निवास के पते जैसी सूचना की मद शामिल होंगी। इस डाटाबेस में 15 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों के फोटो और फिंगर बायोमेट्री (उंगलियों के निशान) भी शामिल होंगे। साधारण निवासियों के प्रमाणीकरण के लिए मसौदा डाटाबेस को ग्राम सभा या स्थानीय निकायों के समक्ष रखा जाएगा।
आम आवासियों के स्थानीय रजिस्टर का मसौदा ग्रामीण इलाके में गांवों में और शहरी इलाकों में वार्डों में रखे जाएंगे ताकि नाम के हिज्जों, पत्रों जन्म, तिथियों आदि गलतियों पर शिकायतें प्राप्त की जा सकें। इसके अलावा दर्ज व्यक्ति की रिहायश के मामले में भी शिकायतें प्राप्त की जा सकें। इस मसौदे को आम आवासियों की तस्दीक के लिए ग्राम सभा या स्थानीय निकायों के सामने पेश किया जाएगा।
डाटाबेस पूरा होने के बाद, अगला काम भारतीय अनन्य पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) के जरिए हर व्यक्ति को अनन्य पहचान संख्या (यूआईडी) तथा पहचान पत्र देना होगा। बाद में इस यूआईडी नंबर में एनपीआर डाटाबेस जोड़ा जाएगा। पहचान पत्र स्मार्ट कार्ड होगा जिस पर 16 अंक की अनन्य संख्या होगी तथा उसमें शैक्षिक योग्यताएं, स्थान और जन्म तिथि, फोटो और उंगलियों के निशान भी शामिल होंगे। फिलहाल, मतदाता पहचान पत्र या आय कर दाताओं के लिए स्थायी लेखा संख्या (पैन) जैसे सरकार की तरफ से जारी विभिन्न कार्ड एक दूसरे के सब-सेट्स के रूप में काम करते हैं। इन सभी को अनन्य बहुद्देश्यीय पहचान कार्ड में एकीकृत किया जा सकता है।
समूचे देश में एनपीआर का कार्यान्वयन तटीय एनपीआर परियोजना नामक प्रायोगिक परियोजना से हासिल अनुभव के आधार पर समूचे देश में एनपीआर का कार्यान्वयन किया जाएगा। यह परियोजना 9 राज्यों और 4 संघीय क्षेत्रों के 3,000 से अधिक गांवों में चलायी गयी है। मुंबई आतंकी हमलों के बाद तटीय सुरक्षा बढ़ाने के मद्देनज़र तटीय एनपीआर परियोजना कार्यान्वित करने का निर्णय लिया गया था क्योंकि आंतकवादी समुद्र के रास्ते मुंबई में घुसे थे।
एनपीआर से लोगों को क्या फायदा होगा ?
भारत में, मतदाता पहचान पत्र, ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट, पैन कार्ड जैसे विभिन्न डाटाबेस हैं लेकिन इन सबकी सीमित पहुंच है। ऐसा कोई मानक डाटाबेस नहीं है जिसमें पूरी आबादी शामिल हो। एनपीआर मानक डाटाबेस उपलब्ध कराएगा तथा प्रत्येक व्यक्ति को अनन्य पहचान संख्या का आवंटन सुगम कराएगा। यह संख्या व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक स्थायी पहचान प्रदान करने जैसी ही होगी।
एनपीआर का महत्व इस तथ्य में निहित है कि देश में समग्र रूप से विश्वसनीय पहचान प्रणाली की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। गैरकानूनी प्रवास पर लगाम कसने तथा आंतरिक सुरक्षा के मसले से निपटने के लिए भी देश के हर क्षेत्र और हर कोने के लोगों तक पहुंच बनाने की ज़रूरत जैसे विभिन्न कारकों की वजह से यह सब और भी महत्वपूर्ण हो गया है।
अनन्य पहचान संख्या से आम आदमी को कई तरह से फायदा होगा। यह संख्या उपलब्ध होने पर बैंक खाता खोलने जैसी विविध सरकारी या निजी सेवाएं हासिल करने के लिए व्यक्ति को पहचान के प्रमाण के रूप में एक से अधिक दस्तावेज़ प्रस्तुत करने की ज़रूरत नहीं होगी। यह व्यक्ति के आसान सत्यापन में भी मदद करेगी। बेहद गरीब लोगों के लिए सरकार अनेक कार्यक्रम और योजनाएं चला रही है लेकिन अनेक बार वे लक्षित आबादी तक नहीं पहुंच पाते। इस प्रकार यह पहचान डाटाबेस बनने से सरकारी और गैर सरकारी एजेंसियों की विविध लाभार्थी केंद्रित स्कीमों का लक्ष्य बढ़ाने में मदद मिलेगी।
एनपीआर देश की आंतरिक सुरक्षा बढ़ाने की ज़रूरत भी पूरा करेगा। सबको बहुउद्देश्यीय पहचान पत्र उपलब्ध होने से आतंकवादियों पर भी नज़र रखने में मदद मिलेगी जो अकसर आम आदमियों में घुलमिल जाते हैं। इसके अतिरिक्त, इससे कर संग्रह बढ़ाने तथा शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में कल्याण योजनाओं के बेहतर लक्ष्य निर्धारण के अलावा गैरकानूनी प्रवासियों की पहचान करने में भी मदद मिलेगी।
भारत अनुमानित 1 अरब 20 करोड़ की आबादी को अनन्य बायोमीट्रिक कार्ड उपलब्ध कराने के वायदे के साथ सबसे बड़ा डाटाबेस बनाने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए पूरी तरह तैयार है। इस तरह अनन्य पहचान उपलब्ध कराने का रास्ता निर्धारित कर दिया गया है। यह अभ्यास इतना विशाल है कि इस परियोजना को सफल बनाने के लिए लोगों के उत्साहपूर्ण समर्थन एवं सहयोग की आवश्यकता है जो सबके लिए फायदेमंद होगी।
साइबर अपराध के खिलाफ ठोस पहल
सायबर अपराध के बढते मामलों से निपटने के लिए मौजूदा कानून को अपर्याप्त मानते हुए सरकार ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2008 में व्यापक संशोधन कर यह दर्शा दिया है कि वह भविष्य के सायबर अपराधों के प्रति पूरी तरह जागरूक है । 27 अक्तूबर, 2009 को इन संशोधनों को सरकार ने अधिसूचित भी कर दिया था, जिससे त्वरित आधार पर इनका उपयोग शुरू किया जा सके । इस एक्ट को संशोधित करते हुए सरकार ने ना केवल देश में घटे विभिन्न तरह के अपराधों का आकलन किया बल्कि दुनिया भर में मौजूद आईटी या सायबर अपराध नीति का भी अध्ययन किया । इस लंबी मशक्कत का उद्देश्य यह तय करना था कि कंप्यूटर या सायबर अपराध से जुड़ा कोई भी पहलू छूटने ना पाए ।
मूल रूप से वर्ष 2000 में लाया गया सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2008 उस समय ई-कामर्स, इलेक्ट्रानिक रुप में पैसे के लेन-देन, ई-प्रशासन के साथ ही कंप्यूटर से जुड़े अपराधों को ध्यान में रखकर लाया गया था । उस समय हुए अपराधों व घटनाओं को ध्यान में रखकर तैयार किए गए इस आईटी एक्ट की धाराएं अगले कुछ सालों में ही कंप्यूटर व इंटरनेट के बढते प्रयोग और उससे जुड़े अपराधों की संख्या व विविधता के आधार पर कम पड़ने लगीं । जिसके बाद सरकार ने मौजूदा इंटरनेट अपराधों व उसके लिए विश्व स्तर पर उपलब्ध कानूनों की तर्ज पर इस एक्ट में संशोधन कर इसे समकालीन व शक्तिमान बनाने का निर्णय किया । जिसके बाद इसके मौजूदा प्रावधानों को और अधिक सख्त करने के साथ ही उसके स्वरूप को भी व्यापक किया गया, ताकि कंप्यूटर अपराध से जुड़ा हर पहलू इसमें शामिल हो सके ।
आईटी एक्ट के संशोधन में कुल 52 धाराएं हैं । जिसमें हर पक्ष को शामिल किया गया है । इस संशोधन के दौरान यह भी ध्यान रखा गया कि यह यूनिसिट्रल या यूनाइटेड नेशन कमीशन ऑन इंटरनेशनल ट्रेड लॉ के अनुरूप भी हो । यूनिसिट्रल विश्व स्तरीय कानून है । एक्ट में संचार उपकरण की व्याख्या को भी शामिल किया गया । कंप्यूटर या इंटरनेट नेटवर्क पर इस उपकरण के बिना कार्य करना मुमकिन नहीं है । इसको ध्यान में रखकर संचार उपकरण को कानूनी परिधि में शामिल किया गया जिससे इसे उल्लेखित कर उसके अनुरूप भी कानूनी प्रक्रियाएं शुरू की जा सकें । इसी तरह इंटरमिडरी व सेवा प्रदाता को भी एक्ट में उल्लेखित किया गया । इसके तहत सभी सेवा प्रदाता, वेब होस्टिंग सेवा लेने वाले, सर्च इंजन, ऑन लाइन नीलामी साइट व सायबर कैफे को भी शामिल किया गया है जिससे कोई भी सेवा प्रदाता कानूनी परिधि से बाहर ना रहे । इलेक्ट्रानिक हस्ताक्षर के बढते अपराधों व धोखाधड़ी को देखते हुए संशोधित एक्ट में 3ए सेक्शन को बाकायदा उल्लेखित किया गया है । एक्ट में डाटा सुरक्षा व उसकी निजता को सुनिश्चित करने के लिए डाटा सिक्यूरिटी एंड प्राइवेसी को नामित कर एक नया सेक्शन 43ए लाया गया है जो डाटा लीकेज होने पर पीड़ित को मुआवजे का अधिकार देता है । इस सेक्शन के तहत केन्द्र सरकार को यह विशेष अधिकार दिया गया है कि वह चाहे तो विभिन्न संवेदनशील डाटा के मामलों में सुरक्षा को लेकर विशेष नियम या प्रावधान घोषित कर सकती है ।
गोपनीयता भंग करके सूचना जारी करने को लेकर सेक्शन 72ए भी एक्ट में शामिल किया गया है । ब्रीच ऑफ कांफीडेंसलिटी - डिस्कलॉजर ऑफ इंफोरमेशन के नाम से नामित यह सेक्शन 43 ए सेक्शन का ही अगला कदम है । जहां 43 ए सेक्शन में आंकड़े प्रकट करने वाली कंपनी के खिलाफ सामाजिक उत्तरदायित्व निर्धारित किया गया है वहीं सेक्शन 72ए में गोपनीयता भंग करने पर दण्ड का उल्लेख किया गया है । इस अपराध के लिए तीन साल तक की कैद तक का प्रावधान किया गया है । यह संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया है लेकिन इसके लिए जमानत का प्रावधान रखा गया है । डाटा सुरक्षा के लिए एक्ट में इंक्रिप्सन को लेकर सेक्शन 84ए का भी उल्लेख किया गया है । इसके तहत सरकार को यह अधिकार होगा कि वह इंक्रिप्सन के तरीके या रास्ते की व्याख्या कर सकती है । संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय का मानना है कि इससे डाटा की सुरक्षा को लेकर सरकार के हाथ और मजबूत होंगे ।
एक्ट संशोधन में एकल व्यक्ति आधारित सायबर एपलेट ट्रिब्यूनल को बहु सदस्यीय बनाने की भी व्यवस्था की गयी है । क्योंकि यह एक तकनीकी ट्रिब्यूनल होगा इसलिए इसमें एक तकनीकी सदस्य रखने का भी उल्लेख किया गया है । साइबर नग्नता को लेकर एक्ट में सरकार ने सख्त कदम उठाया है । सेक्शन 67 ए में इलेक्ट्रोनिक रूप में नग्नता के लिए दंड का उल्लेख किया गया है । पहली बार सरकार ने बाल नग्नता को लेकर एक नया सेक्शन 67बी का उल्लेख एक्ट में किया है । इसका उद्देश्य इलेक्ट्रोनिक रूप में बच्चों के बीच नग्नता के प्रचार-प्रसार को रोकना व इलेक्ट्रोनिक रुप में बच्चों के यौन शोषण में लगे लोगों को सजा दिलाना है । नग्नता को लेकर उल्लिखित दोनों ही सेक्शन में पहली बार पकड़े गए व्यक्ति को पांच साल की सजा का प्रावधान है जबकि दूसरी बार या अगली बार यह सजा सात साल तक की हो सकती है । संशोधित एक्ट में प्रोटेक्टेड सिस्टम को लेकर भी व्याख्या की गयी है । आईटी एक्ट के सेक्शन 70 का संशोधन करते हुए सक्षम सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि वह किसी भी कंप्यूटर संसाधन को प्रोटेक्टड या सुरक्षित सिस्टम घोषित कर सकती है । इस तरह के किसी भी सुरक्षित सिस्टम को हैक करने वाले के खिलाफ दस वर्ष की सजा का प्रावधान भी किया गया है । इस सेक्शन को और मजबूती देने के लिए दो नए सेक्शन 70ए व 70बी भी बनाए गए हैं । 70ए में साइबर सुरक्षा के लिए इंडियन कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम या सीईआरटी-आईएन का उल्लेख किया गया है ।
साइट हैक होने या फिर किसी साइट से देश की एकता, अखण्डता पर पड़ने वाले संभावित दुष्प्रभावों को रोकने के लिए यह संगठन तत्काल प्रभाव से ऐसी साइट को बंद करने या फिर साइट को हैक करने वाले के खिलाफ तकनीकी जांच शुरू करेगा । इस एक्ट के साथ ही सायबर अपराधों में जाने-अनजाने हिस्सा बनने वाले सायबर कैफों को पूरी तरह कानूनी दायरे में लाने के लिए सेक्शन 79 का उल्लेख किया गया है । इसके साथ ही 79ए सेक्शन भी एक्ट में शामिल किया गया है । यह सरकार को अधिकार देता है कि वह इलेक्ट्रोनिक साक्ष्यों के मूल्यांकन के लिए एक परीक्षक नियुक्त कर सके । यह परीक्षक ऐसे मामलों में अदालत को इलेक्ट्रोनिक तकनीकियों को समझाएगा या फिर अदालत का सहयोग करेगा । संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री सचिन पायलट के अनुसार इस एक्ट में उन सभी बिन्दुओं को शामिल किया गया है जो सायबर अपराध हैं या फिर उन्हें प्रभावित करते हैं। इस एक्ट के संशोधन से पहले मंत्रालय के अधिकारियों ने लंबे समय तक विभिन्न देशों के अधिनियमों का अध्ययन करने के साथ ही जमीनी स्तर पर भी सायबर अपराधों का अध्ययन किया । श्री पायलट ने कहा कि इस एक्ट के संशोधित रूप से अब पुलिस को भी ऐसे मामलों की जांच में खासी सहायता मिलेगी । पहले कंप्यूटर या सायबर से संबंधित कई तरह के अपराध के लिए आईपीसी या सीआरपीसी में व्याख्या नहीं थी, जिससे पुलिस या जांच एजेंसी उलझन में रहती थीं । संशोधित एक्ट में सभी बिन्दुओं को शामिल किया गया है, ताकि जांच प्रक्रिया में तेजी लाई जा सके ।
शनिवार, 22 फ़रवरी 2014
भारतीय रिजर्व बैंक की विकास यात्रा
भारतीय रिज़र्व बैंक एक ही दिन में देश भर के बैंकों का बैंक नहीं बना है। क्रमिक विकास, एकीकरण, नीतिगत बदलावों और सुधारों की एक लम्बी और कठिन यात्रा रही है, जिसने भारतीय रिज़र्व बैंक को एक अलग संस्थान के रूप में पहचान दी है। रिज़र्व बैंक की स्थापना के लिए सबसे पहले जनवरी, 1927 में एक विधेयक पेश किया गया और सात वर्ष बाद मार्च, 1934 में यह अधिनियम मूर्त रूप ले सका। विकासशील देशों के सबसे पुराने केन्द्रीय बैंकों में से रिज़र्व बैंक एक है। इसकी निर्माण यात्रा काफी घटनापूर्ण रही है। केन्द्रीय बैंक की कार्य प्रणाली अपनाने की इसकी कोशिश न तो काफी गहरी और न ही चौतरफा रही है। द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ जाने की स्थिति में अपनी स्थापना के पहले ही दशक में रिज़र्व बैंक के कंधों पर विनिमय नियंत्रण सहित कई विशेष उत्तरदायित्व निभाने की जिम्मेदारी आ गई। एक निजी संस्थान से राष्ट्रीय कृत संस्थान के रूप में बदलाव और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अर्थव्यवस्था में इसकी नई भूमिका दुर्जेय थी। रिज़र्व बैंक के साल-दर-साल विकास की राह पर चलते हुए कई कहानियां बनीं, जो समय के साथ इतिहास बनती चली गई।
1935 में रिज़र्व बैंक की स्थापना से पहले केन्द्रीय बैंक के मुख्य कार्यकलाप प्राथमिक तौर पर भारत सरकार द्वारा संपन्न किये जाते थे और कुछ हद तक ये कार्य 1921 में अपनी स्थापना के बाद भारतीय इम्पीरियल बैंक द्वारा संपन्न होते थे। नोट जारी करने का नियमन, विदेशी विनिमय का प्रबंधन एवं राष्ट्र की अभिरक्षा और विदेशी विनिमय भंडार जैसे कार्यों की जिम्मेदारी भारत सरकार की हुआ करती थी। इम्पीरियल बैंक सरकार के बैंक के रूप में काम करता था और व्यावसायिक बैंक के रूप अपनी प्राथमिक गतिविधियों के अलावा यह एक सीमित हद तक बैंकों के बैंक के रूप में भी काम करता था। जब रिज़र्व बैंक की स्थापना हुई, तब भारत में एक हद तक संस्थागत बैंकिंग का विकास हुआ और विदेशी बैंकों को सामान्य तौर पर विनिमय बैंक के रूप में पहचान मिली।
1941 में कराची में रिज़र्व बैंक का कार्यालय मुख्य तौर पर नकदी कार्यालय था, जहां लगभग 75 लोग काम करते थे। अविभाजित भारत में उस समय कानूनी निविदाओं के तहत मुद्राएं क्षेत्रवार छपती थीं, जो मुख्यत: 100 और 1000 रुपये के नोट के रूप में होती थीं। तब नोटों पर इन्हें जारी करने के क्षेत्रों के नाम जैसे – मुंबई, कानपुर, कलकत्ता, मद्रास, कराची, लाहौर छापे जाते थे। नोट छापने वाले हर क्षेत्र को नोट जारी करने और समय-समय पर इन्हें रद्द करने का सदस्यवार रिकॉर्ड रखना पड़ता था। यदि कराची क्षेत्र से जारी किये गए नोट कलकत्ता में पकड़े गए, तो उन्हें कराची लाया जाता था और जारी करने वाले खाते पर इनकी संख्या दर्ज कर रद्द कर दिया जाता था। खातों में जारी और रद्द किये गए हर नोट की संख्या दर्ज होता थी। यदि किसी नोट की संख्या रद्द नोट की संख्या से मिलती पाई गई, तो ऐसे मामलों में जांच कराई जाती थी।
1946 में, जब 1000 रुपये के नोट का विमुद्रीकरण किया गया, तो कुछ लोगों ने प्रति 1000 रुपये के नोट के बदले में 500 से 600 रुपये के नोट लिये। ऐसा विनिमय रिज़र्व बैंक और आयकर विभाग के दफ्तर में कराया गया। बैंक और दूसरे कारपोरेट निकायों ने बड़ी राशि के नोट को छोटी राशि के नोट में बदलवाया। इस तरह बैंकों ने अपने ग्राहकों और परिचितों के नाम नोट विनिमय कर उनकी मदद की। उन दिनों एक रुपये के चांदी के सिक्कों की शुद्धता की जांच रोकडिया सिक्के को लकड़ी के टेबल पर तेजी से फेंक कर करता था। वे नकली सिक्कों की पहचान इस तरह सिक्कों की आवाज सुन कर करते थे। इस तरह हम कह सकते हैं कि रिज़र्व बैंक उस जमाने में एक संगीतप्रेमी था।
1940 के शुरूआती दशक में रिजर्व बैंक के वरिष्ठ अधिकारिक पदों पर मौजूदा कर्मियों को ही पदोन्नत कर जिम्मेदारी दी जाती थी या इंपीरियल बैंक के अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति पर लाया जाता था। अधिकारियों का अंतिम साक्षात्कार कलकत्ता में निदेशकों के केन्द्रीय मंडल में संपन्न होता था। देश के विभाजन के बाद कराची में कार्यरत अधिकारियों को 1947 में मुंबई कार्यालय में आने को कहा गया। इस पर कुछ टेलीफोन ऑपरेटर ही मुंबई कार्यालय में योगदान देने आए। उस समय रिज़र्व बैंक में कोई महिला कर्मचारी नहीं थी। 1940 के शुरूआती दशक में लिपिक के पद पर एक महिला की नियुक्ति हुई और एक अधिकारी के रूप में मार्च, 1949 में सुश्री धर्मा वेंकटरमन की बहाली हुई। बैंक में धीरे-धीरे महिला कर्मियों की संख्या बढ़ने लगी। एक आंकड़े के अनुसार जनवरी, 1968 में महिलाओं की संख्या कुल कर्मचारियों के आठ फीसदी से कम थी।
इतिहास के पन्ने बताते हैं कि रिज़र्व बैंक में इम्पीरियल बैंक से आये अधिकारियेां को छोड़ बहुत कम यूरोपीय अधिकारी थे। ऐसा डिप्टी गर्वनर नानावटी की कोशिशों की वजह से संभव हो पाया। वे चाहते थे कि अधिकारी बनने का मौका अधिक-से-अधिक भारतीयों को मिले। कर्मचारियों के संदर्भ में नानावटी भारतीयकरण चाहते थे और वे भारत में बनी वस्तुओं को खरीदने में तरजीह देते थे। इस संबंध में यह जानना बड़ा रुचिकर है कि बैंक में एक बार भारत में बनी घडियों की खरीदारी का कर्मचारियों ने विरोध किया और काम करना बंद कर दिया। तब नानावटी की टिप्पणी थी कि इससे कोई मतलब नहीं है कि बैंक की सभी घडियां इस तरह गतिरोध पैदा कर दें।
हालांकि यह जानना बड़ा दिलचस्प है कि सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया रिज़र्व बैंक को एक संस्थागत रूप देने के लिए कई कारणों से कर्मचारियों को सुकून देने वाली समय सारणी का समर्थन करते थे। प्राथमिक प्रबंधन के लिए आवश्यक समय के अलावा बैंक की स्थापना के लिए सरकारी बजट में संशोधन और सामान्य निर्यात सरप्लस की वापसी जैसी कुछ पूर्व शर्तें लागू करने की जरूरत महसूस की गई। ये शर्तें अधिक समय लेने वाली थीं, जिसे पूरा होने में लगने वाला समय कष्टदायक था। सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया का मानना था कि रिज़र्व बैंक की स्थापना में ज्यादा तत्परता तब तक उचित नहीं है, जब तक नये वित्त सदस्य वास्तविक स्थिति को व्यक्तिगत तौर पर समझे बिना इस मसले पर अपनी राय देने की स्थिति में न आ जायें। उन्होंने भारत सरकार के उस सुझाव को निरस्त कर दिया, जिसमें बिना मुद्रा नियमन के बैंक की शुरूआत करने की बात कही गई थी। अंत में इस मसले पर ऐसी सहमति बनी, कि बैंक की शुरूआत न तो भारत सरकार की इच्छा के अनुरूप बहुत जल्दी हुई और न ही देर से, जैसा कि सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया ने अंदाजा लगाया था।
15 अगस्त, 1947 को भारत और ब्रिटेन के बीच एक महत्वपूर्ण समझौता ‘’ब्रिटिश डेट (DEBT) पैक्ट विद इंडिया’’ पर समझौता हुआ। ब्रिटेन और भारत की सरकार ने उस वक्त भारत के स्टर्लिंग संतुलन के संबंध में 1947 तक की अवधि के लिए अंतरिम समझौते पर हस्ताक्षर किये। दोनों देशों के अधिकारियों की बैठक में दोनों देशों के बीच आर्थिक और वित्तीय समस्याओं की समीक्षा की गई और भारत की संभावित आवश्यकताओं पर विचार किया गया। बैठक में इस बात पर सहमति बनी कि खर्च के लिए भारत की मौजूदा बचत में 35 मिलियन पॉउंड उपलब्ध होना चाहिए, जिसकी व्यवस्था 31 दिसम्बर, 1947 तक होनी चाहिए। इसके अलावा 30 मिलियन पॉउंड की कार्यकारी बचत रिज़र्व बैंक के अधिकार क्षेत्र में होगी। दोनों सरकारों ने खासतौर से इस बात पर भी सहमति जताई कि ब्रिटिश मूल के उन लोगों की बचत राशि पर कोई सरकार किसी तरह का प्रतिबंध नहीं लगाएगी, जो स्थायी तौर पर ब्रिटन वापस जाने वाले हैं। ब्रिटेन में रह रहे लोगों की निवेश राशि पर भी किसी तरह के प्रतिबंध से मना किया गया।
रिज़र्व बैंक आज एक ऐसे संस्थान के रूप में काम कर रहा है, जो मौद्रिक स्थायित्व, मौद्रिक प्रबंधन, विदेशी विनिमय, आरक्षित निधि प्रबंधन, सरकारी कर्ज प्रबंधन, वित्तीय नियमन एवं निगरानी सुनिश्चित करने के उद्देश्य के साथ काम करता है। इसके मुख्य दायित्वों में मुद्रा प्रबंधन और भारत के हक में इसकी साख व्यवस्था का संचालन भी शामिल है। इसके अलावा अपनी स्थापना की शुरूआत से ही रिज़र्व बैंक ने विकास की दिशा में सक्रिय भूमिका निभाई है, खासकर कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों में। रिज़र्व बैंक के इतिहास के पन्नों से ये कुछ ऐसी झलकियां थी, जिसे हम बैंकों के इस बैंक की लंबी और महत्वपूर्ण यात्रा से निकाल कर पेश कर पाए हैं।
महिला सशक्तिकरण के बढते क़दम
उपभोक्ता अधिकार : शिकायत एवं निवारण प्रणाली
वैश्वीकरण एवं भारतीय बाजार को विदेशी कंपनियों के लिए खोले जाने के कारण आज भारतीय उपभोक्ताओं की कई ब्रांडों तक पहुंच कायम हो गयी है। हर उद्योग में, चाहे वह त्वरित इस्तेमाल होने वाली उपभोक्ता वस्तु (एफएमसीजी) हो या अधिक दिनों तक चलने वाले सामान हों या फिर सेवा क्षेत्र हो, उपभोक्ताओं की जरूरतों को पूरा करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर 20 से अधिक ब्रांड हैं। पर्याप्त उपलब्धता की यह स्थिति उपभोक्ता को विविध प्रकार की वस्तुओं एवं सेवाओं में से कोई एक चुनने का अवसर प्रदान करती है। लेकिन सवाल यह है कि क्या उपभोक्ता को उसकी धनराशि की कीमत मिल रही है? आज के परिदृश्य में उपभोक्ता संरक्षण क्यों जरूरी हो गया है? क्या खरीददार को जागरूक बनाएं की अवधारणा अब भी कायम है या फिर हम उपभोक्ता संप्रुभता की ओर आगे बढ रहे हैं।
उपभोक्ता कल्याण की महत्ता
उपभोक्तावाद, बाजार में उपभोक्ता का महत्व और उपभोक्ताओं के बीच जागरूकता भारत में उपभोक्ता मामले के विकास में कुछ मील के पत्थर हैं। दरअसल किसी भी देश की अर्थव्यवस्था उसके बाजार के चारों ओर घूमती है। जब यह विक्रेता का बाजार होता है तो उपभोक्ताओं का अधिकतम शोषण होता है। जब तक क्रेता और विक्रेता बड़ी संख्या में होते हैं तब उपभोक्ताओं के पास कई विकल्प होते हैं। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 बनने से पहले तक भारत में विक्रेता बाजार था। इस प्रकार वर्ष 1986 एक ऐतिहासिक वर्ष था क्योंकि उसके बाद से उपभोक्ता संरक्षण भारत में गति पकड़ने लगा था।
1991 में अर्थव्यवस्था के उदारीकरण ने भारतीय उपभोक्ताओं को प्रतिस्पर्धी कीमतों पर गुणवत्तापूर्ण उत्पाद पाने का अवसर प्रदान किया। उसके पहले सरकार ने हमारे अपने उद्योग जगत को सुरक्षा प्रदान करने के लिए विदेशी प्रतिस्पर्धा पर रोक लगा दी थी। इससे ऐसी स्थिति पैदा हुई जहां उपभोक्ता को बहुत कम विकल्प मिल रहे थे और गुणवत्ता की दृष्टि से भी हमारे उत्पाद बहुत ही घटिया थे। एक कार खरीदने के लिए बहुत पहले बुकिंग करनी पड़ती थी और केवल दो ब्रांड उपलब्ध थे। किसी को भी उपभोक्ता के हितों की परवाह नहीं थी और हमारे उद्योग को संरक्षण देने का ही रुख था।
इस प्रकार इस कानून के जरिए उपभोक्ता संतुष्टि और उपभोक्ता संरक्षण को मान्यता मिली। उपभोक्ता को सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक प्रणाली का अपरिहार्य हिस्सा समझा जाने लगा, जहां दो पक्षों यानि क्रेता और विक्रेता के बीच विनिमय का तीसरे पक्ष यानी कि समाज पर असर होता है। हालांकि बड़े पैमाने पर होने वाले उत्पादन एवं बिक्री में लाभ की स्वभाविक मंशा कई विनिर्माताओं एवं डीलरों को उपभोक्ताओं का शोषण करने का अवसर भी प्रदान करती है। खराब सामान, सेवाओं में कमी, जाली और नकली ब्रांड, गुमराह करने वाले विज्ञापन जैसी बातें आम हो गयीं हैं और भोले-भाले उपभोक्ता अक्सर इनके शिकार बन जाते हैं।
संक्षिप्त इतिहास
9 अप्रैल, 1985 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने उपभोक्ता संरक्षण के लिए कुछ दिशानिर्देशों को अपनाते हुए एक प्रस्ताव पारित किया था और संयुक्त राष्ट्र के महासचिव को सदस्य देशों खासकर विकासशील देशों को उपभोक्ताओं के हितों के बेहतर संरक्षण के लिए नीतिंयां और कानून अपनाने के लिए राजी करने का जिम्मा सौंपा था। उपभोक्ता आज अपने पैसे की कीमत चाहता है। वह चाहता है कि उत्पाद या सेवा ऐसी हो जो तर्कसंगत उम्मीदों पर खरी उतरे और इस्तेमाल में सुरक्षित हो। वह संबंधित उत्पाद की खासियत को भी जानना चाहता है। इन आकांक्षाओं को उपभोक्ता अधिकार का नाम दिया गया। 15 मार्च को विश्व उपभोक्ता दिवस मनाया जाता है।
इस तारीख का ऐतिहासिक महत्व है क्योंकि यह वही दिन है जब 1962 में अमेरिकी संसद कांग्रेस में उपभोक्ता अधिकार विधेयक पेश किया गया था। अपने भाषण में राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी ने कहा था, न्नन्न यदि उपभोक्ता को घटिया सामान दिया जाता है, यदि कीमतें बहुत अधिक है, यदि दवाएं असुरक्षित और बेकार हैं, यदि उपभोक्ता सूचना के आधार पर चुनने में असमर्थ है तो उसका डालर बर्बाद चला जाता है, उसकी सेहत और सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है और राष्ट्रीय हित का भी नुकसान होता है। उपभोक्ता अंतर्राष्ट्रीय (सीआई), जो पहले अंतर्राष्ट्रीय उपभोक्ता यूनियन संगठन (आईओसीयू) के नाम से जाना जाता था, ने अमेरिकी विधेयक में संलग्न उपभोक्ता अधिकार के घोषणापत्र के तत्वों को बढा क़र आठ कर दिया जो इस प्रकार है- 1.मूल जरूरत 2.सुरक्षा, 3. सूचना, 4. विकल्पपसंद 5. अभ्यावेदन 6. निवारण 7. उपभोक्ता शिक्षण और 8. अच्छा माहौल। सीआई एक बहुत बड़ा संगठन है और इससे 100 से अधिक देशों के 240 संगठन जुड़े हुए हैं।
इस घोषणापत्र का सार्वभौमिक महत्व है क्योंकि यह गरीबों और सुविधाहीनों की आकांक्षाओं का प्रतीक है। इसके आधार पर संयुक्त राष्ट्र ने अप्रैल, 1985 को उपभोक्ता संरक्षण के लिए अपना दिशानिर्देश संबंधी एक प्रस्ताव पारित किया।
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम,1986
भारत ने इस प्रस्ताव के हस्ताक्षरकर्ता देश के तौर पर इसके दायित्व को पूरा करने के लिए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 बनाया। संसद ने दिसंबर, 1986 को यह कानून बनाया जो 15 अप्रैल, 1987 से लागू हो गया। इस कानून का मुख्य उद्देश्य उपभोक्ताओं के हितों को बेहतर सुरक्षा प्रदान करना है। इसके तहत उपभोक्ता विवादों के निवारण के लिए उपभोक्ता परिषदों और अन्य प्राधिकरणों की स्थापना का प्रावधान है।
यह अधिनियम उपभोक्ताओं को अनुचित सौदों और शोषण के खिलाफ प्रभावी, जनोन्मुख और कुशल उपचार उपलब्ध कराता है। अधिनियम सभी सामानों और सेवाओं, चाहें वे निजी, सार्वजनिक या सहकारी क्षेत्र की हों, पर लागू होता है बशर्ते कि वह केंद्र सरकार द्वारा अधिकारिक गजट में विशेष अधिसूचना द्वारा मुक्त न कर दिया गया हो। अधिनियम उपभोक्ताओं के लिये पहले से मौजूदा कानूनों में एक सुधार है क्योंकि यह क्षतिपूर्ति प्रकृति का है, जबकि अन्य कानून मूलत: दंडाधारित है और उसे विशेष स्थितियों में राहत प्रदान करने लायक बनाया गया है। इस अधिनियम के तहत उपचार की सुविधा पहले से लागू अन्य कानूनों के अतिरिक्त है और वह अन्य कानूनों का उल्लंघन नहीं करता। अधिनियम उपभोक्ताओं के छह अधिकारों को कानूनी अमली जामा पहनाता है वे हैं- सुरक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार, चुनाव का अधिकार, अपनी बात कहने का अधिकार, शिकायत निवारण का अधिकार और उपभोक्ता शिक्षा का अधिकार। अधिनियम में उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए सलाहकार एवं न्याय निकायों के गठन का प्रावधान भी है। इसके सलाहकार स्वरूप के तहत केंद्र, राज्य और जिला स्तर पर उपभोक्ता सुरक्षा परिषद आते हैं। परिषदों का गठन निजी-सार्वजनिक साझेदारी के आधार पर किया जाता है। इन निकायों का उद्देश्य सरकार की उपभोक्ता संबंधी नीतियों की समीक्षा करना और उनमें सुधार के लिए उपाय सुझाना है।
अधिनियम में तीन स्तरों जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तरों पर जिला फोरम, राज्य उपभोक्ता शिकायत निवारण आयोग और राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग जैसे अर्ध्दन्यायिक निकाय मशीनरी का भी प्रावधान है। फिलहाल देश में 621 जिला फोरम, 35 राज्य आयोग और एक राष्ट्रीय आयोग है। जिला फोरम उन मामलों में फैसले करता है जहां 20 लाख रूपए तक का दावा होता है। राज्य आयोग 20 लाख से ऊपर एक करोड़ रूपए तक के मामलों की सुनवाई करता है जबकि राष्ट्रीय आयोग एक करोड़ रूपए से अधिक की राशि के दावे वाले मामलों की सुनवाई करता है। ये निकाय अर्ध्द-न्यायिक होते हैं और प्राकृतिक न्याय के सिध्दांतों से संचालित होते हैं। उन्हें नोटिस के तीन महीनों के अंदर शिकायतों का निवारण करना होता है और इस अवधि के दौरान कोई जांच नहीं होती है जबकि यदि मामले की सुनवाई पांच महीने तक चलती है तो उसमें जांच भी की जाती है।
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 समेकित एवं प्रभावी तरीके से उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा और संवर्ध्दन से संबंधित सामाजिक-आर्थिक कानून है। अधिनियम उपभोक्ताओं के लिए विक्रेताओं, विनिर्माताओं और व्यापारियों द्वारा शोषण जैसे खराब सामान, सेवाओं में कमी, अनुचित व्यापारिक परिपाटी आदि के खिलाफ एक हथियार है। अपनी स्थापना से लेकर 01 जनवरी, 2010 तक राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तर की उपभोक्ता अदालतों में 33,30,237 मामले दर्ज हुए और 29,58,875 मामले निपटाए गए।
शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014
पोस्ट कार्ड से जुड़े रोचक तथ्य
मलयालम में एक छोटी सी पत्रिका है – इन्नू (यानी आज), जो केवल एक पत्रनुमा कार्ड पर छपती है। यह पत्रिका अपने प्रकाशन के 30वें वर्ष में प्रवेश कर गयी है और इस पत्र कार्ड को दुनियाभर में 10 हजार से भी ज्यादा ग्राहकों को डाक के जरिए भेजा जाता है। पोस्ट कार्ड, पत्र कार्ड तथा डाक पत्र विद्या (Deiltolog) की कला और विज्ञान से संबंधित तथ्य इस प्रकार हैं :पोस्ट कार्ड
सरकारी तौर पर पोस्ट कार्ड एक निश्चित आकार के कार्ड पर लिखा खुला संदेश है। इस कार्ड का आकार आमतौर पर 14 सेमी. X 9 सेमी. होता है। पोस्ट कार्ड आमतौर पर दो किस्मों में उपलब्ध हैं- अकेला एक कार्ड, केवल संदेश भेजने के लिए या दोहरा संलग्न कार्ड- एक संदेश भेजने के लिए और दूसरा संदेश प्राप्तकर्ता द्वारा तुरंत जवाब के लिए। उत्तर देने वाला जवाब देने में देरी नहीं कर सकता, क्योंकि संदेश भेजने वाले ने कार्ड की कीमत पहले ही चुका दी होती है।
पोस्ट कार्ड के बारे में एक बात की जानकारी शायद बहुत कम लोगों को होगी कि इसका इस्तेमाल सिर्फ भारत के अंदर ही किया जा सकता है। कोई व्यक्ति या संस्था भी अपने कर्मचारियों या उपभोक्ताओं को संदेश भेजने के लिए कार्ड छपवा सकती हैं। इस प्रकार के पोस्ट कार्डों का आकार भी सरकारी पोस्ट कार्ड जैसा ही होना चाहिए। यह पतला भी नहीं होना चाहिए और इनका आकार और मोटाई भी छपे हुए पोस्ट कार्ड जैसी होनी चाहिए।
भारतीय पोस्ट कार्ड का इतिहास
भारतीय डाक घर ने पहली बार जुलाई 1879 में चौथाई आना (यानी एक पैसा) का पोस्ट कार्ड शुरू किया था। इसका उद्देश्य ब्रिटिश भारत की सीमा में एक स्थान से दूसरे स्थान तक डाक भेजना था। भारत के लोगों के लिए अब तक का यह सबसे सस्ता डाक पत्र था और जो बहुत सफल सिद्ध हुआ।
पूरे भारत के लिए वृहद डाक प्रणाली शुरू हो जाने पर डाक बहुत दूर-दूर तक जाने लगी। पोस्ट कार्ड पर लिखा संदेश बिना किसी अतिरिक्त डाक टिकट के देश के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचने लगा, जहां नजदीक में कोई डाकखाना भी नहीं होता था। इसके बाद अप्रैल 1880 में ऐसे पोस्ट कार्ड शुरू हुए, जो केवल सरकारी इस्तेमाल के लिए थे और 1890 में जवाबी पोस्ट कार्ड शुरू हुए। पोस्ट कार्ड की यह सुविधा आज भी स्वतंत्र भारत में जारी है।
अन्य स्थानों के पोस्ट कार्ड
1861 में फिलेडलफिया में जॉन पी चार्लटन ने एक गैर-सरकारी पोस्ट कार्ड की शुरूआत की, जिसके लिए उसने कॉपीराइट हासिल किया, जिसे बाद में एचएल लिपमैन को स्थानांतरित कर दिया गया। कार्ड के चारों ओर छोटी सी पट्टी की सजावट थी और कार्ड पर लिखा था – लिपमैन्ज़ पोस्टल कार्ड, इसके पेटेंट अधिकार के लिए आवेदन किया हुआ था। ये बाजार में 1873 तक चले, जब पहला सरकारी पोस्ट कार्ड शुरू हुआ। अमरीका ने 1873 में पहले से मुहर लगे पोस्ट कार्ड जारी किए। केवल अमरीका की डाक सेवा को ही इस तरह के कार्ड छापने की अनुमतिथी, जो 19 मई, 1898 तक रही, जब अमरीकी संसद ने प्राइवेट मेलिंग कार्ड एक्ट पास किया, जिसमें प्राइवेट फर्मों को कार्ड बनाने की अनुमतिदी गयी। प्राइवेट मेलिंग कार्डों की डाक लागत एक सेंट थी, जबकिपत्र कार्ड की दो सेंट थी। जो कार्ड अमरीकी डाक सेवा द्वारा छपे हुए नहीं होते थे, उन पर प्राइवेट मेलिंग कार्ड छापना जरूरी था। पोस्ट कार्ड की उल्टी तरफ सिर्फ सरकार को पोस्टकार्ड शब्द छापने की अनुमतिथी। गैर-सरकारी कार्डों पर सॉवेनेर कार्ड, कॉरेस्पांडेंस कार्ड और मेल कार्ड छपा होता था।
अंतर्देशीय पत्र कार्ड
अंतर्देशीय पत्र कार्ड पोस्ट कार्ड से अलग होता है। इसमें संदेश खुले में नहीं लिखा जाता। संदेश को पढ्ने के लिए इसके फ्लैप को खोलना पड्ता है, जबकिपोस्ट कार्ड के मामले में, जिसके हाथ से भी पोस्ट कार्ड गुजरे, वह संदेश पढ् सकता है।
तकनीकी तौर पर अंतर्देशीय पत्र कार्ड एक निश्चित आकार के कागज पर लिखा संदेश होता है, जिसे मोडकर बंद किया जाता है। अंतर्देशीय पत्र कार्ड भारत के अंदर ही प्रेषण के लिए होता है। विदेशों में संदेश भेजने के लिए अधिक लागत का विशेष अंतर्देशीय पत्र कार्ड, जिसे एरोग्राम कहा जाता है, इस्तेमाल किया जाता है।
मलयालम पत्रिका इन्नू पूरी तरह से इस तरह के अंतर्दशीय पत्र कार्ड पर छपती है। इसमें कविताएं, संपादकीय, कार्टूंन, संपादक को पत्र सभी कुछ होता है, जो पूरे आकार की पत्रिका में होते हैं, लेकिन बहुत ही छोटे आकार में छपते हैं।
डाक पत्र विद्या (Deiltology)
डील्टोलॉजी पोस्ट कार्डों के अध्ययन और संग्रहण की विद्या है। ऐशलैंड, ओहियो के प्रोफेसर रैंडल रोडेस ने 1945 में इस शब्द की रचना की, जिसे बाद में चित्र पोस्ट कार्डों के अध्ययन की विद्या के रूप में स्वीकार कर लिया गया।
दुनियाभर में डील्टोलॉजी को डाक टिकट संग्रहण और सिक्का/बैंक नोट संग्रहण के बाद तीसरी सबसे बड़ी हाबी माना जाता है। पोस्ट कार्ड इसलिए लोकप्रिय हैं, क्योंकिलगभग हर समय के चित्र पोस्ट कार्ड पर छपते रहते हैं। पोस्ट कार्डों के जरिए इतिहास की जानकारी हासिल की जा सकती है, जिसमें प्रसिद्ध इमारतों, महत्वपूर्ण व्यक्तियों, विभिन्न कला रूपों और इस तरह के कई विषय मिल जाते हैं।
लेकिन डाक टिकट संग्रह के मुकाबले किसी पोस्ट कार्ड के प्रकाशन और स्थान का समय पता करना लगभग असंभव कार्य है, क्योंकिपोस्ट कार्ड आमतौर पर बहुत अनियमित तरीके से छापे जाते हैं।
इसलिए कई संग्रहकर्ता केवल ऐसे कार्डों का ही संग्रह करते हैं जो किसी विशिष्ट कलाकार और प्रकाशन या समय और स्थान से संबंधित हों।
इस डाक पत्र विद्या का सबसे अधिक लोकप्रिय पक्ष शहरों के दृश्यों से संबंधित है इनमें किसी शहर या क्षेत्र के वास्तविक चित्र होते हैं। अधिकतर संग्रहकर्ता केवल ऐसे शहर के पोस्ट कार्ड इकट्ठे करते हैं, जहां वे रहते हैं या जहां वे पले-बढ़े हैं।
पोस्ट कार्ड संग्रह का संरक्षण- कुछ जरूरी बातें
·पोस्ट कार्डों के सबसे बड़े शत्रु हैं आग, नमी, धूल मिट्टी, धूप और कीड़े। सबसे अच्छा यही होगा है किआप अपने संग्रह को किसी बॉक्स में रखें, जो ठंडा और सूखा हो।
·प्लास्टिक वाले एलबम का प्रयोग न करें। पीवीसी से पुराने कागज को कुछ समय बाद रासायनिक क्रिया से नुकसान पहुंचता है।
·यदि प्रदर्शनी के उद्देश्य से अलग-अलग पोस्ट कार्डों का विवरण दर्ज करना है, तो ध्यान रखें कि इसके लिए पेंसिल का इस्तेमाल करें। प्रदर्शनी के बोर्ड पर पोस्ट कार्ड को चिपकाने के लिए टेप या इस तरह की कोई चीज इस्तेमाल न करें।
·जब पुराने पोस्ट कार्डों का प्रदर्शन किया जाए तो इस बात का विशेष ध्यान रखा जाए किवे सीधे धूप के सामने न हों।
शिक्षा का अधिकार - विकास का आधार
गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014
राष्ट्रीय ग्रीन इंडिया मिशन
पर्यावरण संरक्षण और देश के सभी हिस्सों में हरियाली को बढ़ावा देने की योजना को अमलीजामा पहनाते हुए यूपीए सरकार के मंत्रिमंडल की आर्थिक कार्य समिति ने केंद्र प्रायोजित स्कीम के रूप में राष्ट्रीय ग्रीन इंडिया मिशन के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। इससे पर्यावरण के साथ साथ पेड़-पौधों और उससे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से जुड़े लोगों को कई तरह के फायदे होंगे।
केंद्र की यूपीए सरकार ने आमलोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए 12वीं योजना में कुल 13,000 करोड़ रुपये में से इस योजना के लिए 2000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। इससे बड़े पैमाने पर देश भर में हरियाली को बढ़ावा मिलेगा। स्कीम के लिए वित्तीय सहायता का स्रोत योजना व्यय तथा मनरेगा गतिविधियों, सीएएमपीए और एनएपी को मिलाने के जरिए से जुटाया जाएगा। पूर्वोत्तर राज्यों के लिए योजना व्यय में 90 प्रतिशत खर्च केंद्र सरकार और 10 प्रतिशत खर्च राज्य को करना होगा। शेष सभी राज्यों के लिए केंद्र सरकार 75 प्रतिशत और राज्य सरकार 25 प्रतिशत खर्च करेगी।
12वीं योजना अवधि के दौरान इस मिशन के उद्देश्यों में वन/वृ़क्ष क्षेत्र में वृद्धि करना और वन क्षेत्र की गुणवत्ता दो से बढ़ाकर 8 मिलियन हेक्टेयर करना, जैवविविधता, हाइड्रोलॉजिकल सेवाओं के साथ पारिस्थितिकीय सेवाओं में सुधार, वन में एवं आसपास रहने वाले परिवारों की वन आधारित आजीविका आय में वृद्धि तथा वार्षिक कार्बन डाइ आक्साइड पृथक्करण में वृद्धि करना शामिल है। इससे न सिर्फ जंगलों में रहने वाले या जंगल पर अपनी आजिविका के लिए पूरी तरह आश्रित आदिवासियों को फायदा होगा,बल्कि हरियाली के फैलने से लोगों को साफ एवं स्वच्छ हवा मिलेगी। इसका नतीजा यह होगा कि फेफड़े और सांस से संबधित बीमारियों में कमी आएगी।
इस मिशन को लागू करने के दौरान इस बात का पूरा ध्यान रखा जाएगा कि इससे आम आदमी को ज्यादा से ज्यादा जोड़ा जाए साथ ही इसके बारे में जन सामान्य को के बीच अधिक से अधिक जागरुकता फैलाई जाए। यह मिशन योजना बनाने और निर्णय लेने, कार्यान्वयन और निगरानी में व्यावहारिक धरातल पर काम करने वाले संगठनों की विकेंद्रीकृत भागीदारी के आधार पर कार्यान्वित किया जाएगा। गांव स्तर पर ग्राम सभा तथा जेएफएमसी सहित ग्राम सभा के जनादेश से बनाई गई समितियां कार्यान्वयन की निगरानी करेंगी।
बुधवार, 19 फ़रवरी 2014
युवाओं को रोजगार और शिक्षा के जरिए जोड़ने की अनूठी पहल
देश के बेरोजगार और शिक्षित युवाओं को रोजगार जल्द से जल्द कैसे रोजगार मिले और युवा शक्ति का बेहतर इस्तेमाल देश के विकास में कैसे हो। इस बात को लेकर केंद्र सरकार की ओर से बड़े पैमाने पर देश के अलग-अलग हिस्सों में कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इसका मकसद युवाओं को आपस में जोड़ना और विकास में उनको भागीदार बनाना है। इसके तहत विशेष तौर से अशिक्षित मुस्लिम वयस्कों को साक्षर भारत अभियान के अंतर्गत कामकाजी साक्षरता प्रदान करने के लिए मौलाना आजाद तालीम-ए-बालिगान योजना -हुनर- चलाया जा रहा है। 'हुनर' के अंतर्गत युवाओं को प्राथमिक शिक्षा और व्यवसायिक कौशल प्रशिक्षण दोनों प्रदान किए जाएंगे। इसके अंतर्गत एक करोड़ अशिक्षित मुस्लिम युवाओं को जोड़ने और उन्हें इसका फायदा पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है।
राष्ट्रीय साक्षरता मिशन ने मौलाना आजाद तालीम-ए-बालिगान योजना के अंतर्गत शुरू में 2.5 लाख अशिक्षित मुस्लिम युवाओं को प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने और करीब तीन लाख मुस्लिम युवाओं को आजीविका के लिए कौशल प्रशिक्षण देने का निश्चय किया है। उनके लिए शिक्षा की व्यवस्था को भी निरंतर जारी रखा जाएगा। इस कार्यक्रम के तहत वर्तमान पंच वर्षीय योजना के दौरान 600 करोड़ रुपये के आवंटन से 410 साक्षर जिले 'कवर' किए जाएंगे। यूपीए सरकार की यह योजना सरकार की दूरदर्शिता का नतीजा है और आने वाले समय में इससे लाखों की संख्या में युवाओं को रोजगार मिलेगा साथ ही देश में गरीबी की समस्या को जड़ से मिटाने में काफी मदद मिलेगी।
शिक्षा न केवल पढ़ना और लिखना सिखाती है बल्कि यह बेहतर आजीविका, सशक्तिकरण और लैंगिक समानता भी प्रदान करती है। शिक्षा के प्रचार-प्रसार के ध्येय से देश भर में केरल के मॉडल से प्रेरणा लेकर अन्य राज्य सरकारों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए। साक्षरता की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक उत्थान की नीति के अंतर्गत एक मानव अधिकार, विकास का एक संकेतक और समानता के उत्प्रेरक के रूप में सरकार की ओर से स्वीकार किया जा चुका है। देश के अल्पसंख्यक बहुल जिलों में केंद्रीय विश्वविद्यालयों के ढांचे के अनुरूप अल्पसंख्यकों के लिए स्कूल खोले जाने पर भी गंभीरता से विचार किया जा रहा है।
इसके अलावा किसानों की समस्या और उनकी बेहतरी के लिए केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2014-15 के लिए खाद्य सब्सिडी बढ़ाकर 1,15,000 करोड़ रुपए कर दी है। वित्त वर्ष 2013-14 के 92,000 करोड़ रुपए के संशोधित अनुमान से 23,000 करोड़ रुपए अधिक है। सब्सिडी में यह महत्वपूर्ण वृद्धि देश भर में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम का कार्यान्वयन करने की सरकार की प्रतिबद्धता के मद्देनजर उठाया गया है। खाद्य सब्सिडी खाद्यान की आर्थिक लागत और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) और अन्य कल्याणकारी योजनाओं के तहत निर्धारित केन्द्रीय निर्गम मूल्य पर उनके वास्तविक बिक्री मूल्य के अंतर को पूरा करने के लिए है। सरकार के इस कदम से देश के करोड़ों किसानों को फायदा होगा।
वर्तमान वर्ष 2013-14 के दौरान सरकार ने लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत 500 लाख टन और अन्य कल्याणकारी योजनाओं के अंतर्गत 50 लाख टन खाद्यान्न आवंटित किए। इसके अलावा राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों की अतिरिक्त वितरण जरूरतों को पूरा करने, प्राकृतिक आपदा और त्यौहारों आदि के लिए 12.98 लाख टन खाद्यान्न आवंटित किए गए है। सरकार ने थोक उपभोक्ताओं और छोटे निजी व्यापारियों को बिक्री के लिए 95 लाख टन गेहूं और राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों/सहकारी संस्थाओं को बिक्री के लिए पांच लाख टन गेहूं और पांच लाख टन चावल आवंटित किया है ताकि खुले बाजार में बिक्री योजना के अंतर्गत खुदरा उपभोक्ताओं को इनका वितरण किया जा सके। केंद्रीय पूल से होने वाले आवंटन से बाजार में कीमतों पर नियंत्रण रखने में मदद मिलती है। इस तरह से सरकार ने बढ़ती महंगाई पर काबू पाने के लिए कारगर और ठोस कदम उठाए हैं। इसके अलावा केंद्र सरकार राज्यों से लगातार आग्रह करती रही है कि वे ब्लॉक/तालुक स्तर पर उचित भंडारण क्षमता विकसित करे ताकि कम से कम तीन महीने की खाद्यान्न का भंडारण किया जा सके।
केंद्र की यूपीए सरकार की ओर से यह भी सुझाव दिया गया है कि ग्रामीण भंडारण योजना के अंतर्गत राज्यों की वित्तीय संसाधनों तक पहुंच होनी चाहिए, जिसमें गांवों में गोदामों के निर्माण के लिए पूंजी निवेश सब्सिडी प्रदान की जाती है। सरकार पूर्वोत्तर क्षेत्र और जम्मू-कश्मीर की सरकारों को गोदामों के तत्काल निर्माण के लिए सहायता अनुदान के रूप में योजना राशि प्रदान करती है। अब तक 71.05 करोड़ रूपये की लागत वाली कुल 71 परियोजनाओं के लिए 44.13 करोड़ रूपये जारी किए जा चुके हैं। इसका उद्देश्य इन राज्यों में 78,055 मीट्रिक टन भंडारण क्षमता तत्काल विकसित करना है। केंद्र सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के अंतर्गत मध्यवर्ती गोदाम के निर्माण की अनुमति दे दी है।
गरीब और आर्थिक रुप से कमजोर लोगों के लिए इंदिरा आवास योजना (आर्इएवाई) के संबंध में एक कार्यकारी समूह गठित किया गया। कार्यकारी समूह ने आईएवाई के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए महत्वपूर्ण सुझाव दिए है।
I.इंदिरा आवास योजना के तहत इकाई सहायता को बढ़ाना।
II.राज्य निधियों का सृजन।
III.ब्याज की विभेदक दर योजना (डीआरआई) के अंतर्गत ऋण को बढ़ाना।
IV.आईएवाई के तहत आवास-स्थल प्लॉट की खरीददारी के लिए इकाई सहायता को बढ़ाना।
V.आईएवाई के तहत प्रशासनिक खर्चों का प्रावधान।
इसके अलावा मंत्रालय ने 1 अप्रैल, 2013 से निम्नलिखित सुझावों को कार्यान्वित किया है :-
I. इंदिरा आवास योजना के तहत इकाई सहायता को मैदानी क्षेत्रों में 45,000 रु. से बढ़ाकर 70,000 रु. करना और पहाड़ी/दुर्गम क्षेत्रों/आईएपी जिलों में इसे 48,500 रु. से बढ़ाकर 75,000 रु. करना।
II.आईएवाई के तहत आवास स्थल प्लॉट खरीदने के लिए इकाई सहायता को 10,000 रु. से बढ़ाकर 20,000 रु. करना।
III.आईएवाई के तहत 4 प्रतिशत प्रशासनिक खर्चों का प्रावधान।
यहीं नहीं केंद्र सरकार ने देश के सभी हिस्सों को बेहतर तरीके से एक दूसरे से जोड़ने के साथ ही पर्यावरण को बढ़ावा देने के लिए आंध्र प्रदेश के प्रकाशम जिले में हरित हवाई अड्डे के निमार्ण के लिए मैसर्स प्रकाशम एयरपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड को स्थल स्वीकृति दे दी है। इसके अलावा पिछले तीन वर्षों के दौरान सरकार पुद्दुचेरी के कराईकाल में, महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के शीर्डी में और केरल के एरनमुला में तीन हरित हवाई अड्डों को स्वीकृति दे चुकी है। हैदाराबाद में राजीव गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के नाम से एक हरित क्षेत्र हवाई अड्डे को पहले से ही संचालित है।
ग्रामीण इलाकों में स्वर्णजयंती ग्राम स्वरोजगार योजना (एसजीएसवाई) का कार्यान्वयन 1999 से किया जा रहा है। इसका उद्देश्य ग्रामीण बीपीएल परिवारों को आय का सृजन करने वाली परिसंपत्तियों/आर्थिक गतिविधियों के माध्यम से सतत आय उपलब्ध कराना है ताकि उन्हें गरीबी रेखा से बाहर लाया जा सके। एसजीएसवाई को राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (आजीविका) के रूप में बदला गया और इसे 3 जून, 2011 को शुरू किया गया। एसजीएसवाई के उत्तरवर्ती कार्यक्रम राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (एलआरएलएम) में सभी ग्रामीण गरीब परिवारों को चरणबद्ध तरीके से शामिल करने का प्रस्ताव है। कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रामीण गरीब महिलाओं के सशक्त एवं स्थाई जमीनी-स्तर के संस्थानों को बनाना तथा उन्हें लाभ्कारी स्व-रोजगार और कुशल मजदूरी रोजगार अवसरों के लिए उनके अपने सामाजिक नेटवर्कों, संसाधना और ज्ञान प्राप्त करने में मदद करना है जिससे कि वे सतत आधार पर अपनी आजीविका में उल्लेखनीय सुधार कर सकें। एनआरएलएम के तहत व्यापक सामाजिक एकजुटता के माध्यम से स्वंय सहायता समूह (एसएचजी) बनाने तथा ग्राम और उच्च स्तर पर इन समूहों के संघटन से यह सुनिश्चित होगा कि प्रत्येक ग्रामीण गरीब परिवार का कम से कम एक सदस्य, विशेष रूप से एक महिला सदस्य एसएचजी के तहत कवर की जाए जो एक बड़े सामाजिक नेटवर्क का हिस्सा हैा। एनआरएलएम का प्रस्ताव सभी एसएचजी का खाता खुलवाने में मदद करके उनके लिए व्यापक वित्तीय समावेशन को सुनिश्चित करना, साथ ही साथ उनकी थ्रिफ्ट तथा क्रेडिट कार्यकलापों को प्रोत्साहन देना और बैंकों से क्रेडिट तथा वित्तीय सहायता प्राप्त करने में उनकी मदद करना है। कार्यक्रम के अंतर्गत इच्छुक सदस्यों के लिए प्रशिक्षण तथा क्षमता-निर्माण का प्रावधान है ताकि वे लघु उद्यम शुरू करके अपनी आय में वृद्धि कर सके। स्व-रोजगार के अलावा, एनआरएलएम ग्रामीण गरीब युवकों को नियोजन से जुड़े कौशल विकास परियोजनाओं के माध्यम से कुशल मजदूरी रोजगार प्राप्त करने में भी मददगार है।
लघु उद्योग को बढ़ावा देने की नीयत से यूपीए सरकार ने हथकरघा क्षेत्र के पुनरुद्धार, सुधार और पुनर्गठन के पैकेज के अंतर्गत अब तक 1019 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता का अनुमोदन किया है। इसमें से यूपीए सरकार 741 करोड़ रुपये की धनराशि जारी भी कर चुकी है। अब तक लगभग 31 बड़ी सहकारी समितियों, 8,805 प्राथमिक सहकारी समितियों 50,500 बुनकरों और 5,462 स्वयं सहायता समूहों की मदद की जा चुकी है। इसके अलावा बैंक अब तक 1.13 लाख बुनकरों को 325 करोड़ रुपये का रियायती ऋण उपलब्ध करा चुके हैं। यह जानकारी पीआईबी की वेबसाइट पर मौजूद मंत्रालय की रिपोर्ट में दर्ज है। इसके तहत अब यूपीए सरकार ग्रामीण इलाकों की जनता के जीवन स्तर को सुधारने के साथ ही युवाओं की शिक्षा, रोजगार और कौशल विकास के लिए अनेक लाभकारी योजनाएं चलाई जा रही है। इन योजनाओं का मकसद युवाओं के साथ साथ समाज के पिछले और अल्पसंख्यक लोगों के जीवन स्तर को बेहतर बनाना और उनकी जीवन में खुशहाली लाना है।
लोकतंत्र के महापर्व का इतिहास
अगस्त 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्वतंत्र भारत में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर सही मायनों में प्रतिनिधि सरकार चुनने के लिए आम चुनाव कराने की आवश्यकता पड़ी। इसलिए स्वतंत्र संवैधानिक प्राधिकार के रूप में निर्वाचन आयोग की स्थापना का प्रावधान करने वाले संविधान के अनुच्छेद-324 को 26 नवम्बर, 1949 को लागू किया गया, जबकि अधिकतर अन्य प्रावधानों को 26 जनवरी, 1950 (जब भारत का संविधान लागू हुआ) से प्रभावी बनाया गया। निर्वाचन आयोग का औपचारिक गठन 25 जनवरी, 1950 को हुआ यानी भारत के संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य बनने के ठीक एक दिन पहले। 21 मार्च, 1950 को श्री सुकुमार सेन भारत के पहले मुख्य निर्वाचन आयुक्त नियुक्त किये गए।
वर्ष 1950 से 16 अक्तूबर, 1989 तक आयोग ने एक सदस्य निकाय के रूप में काम किया। 16 अक्तूबर, 1989 से एक जनवरी, 1990 तक निर्वाचन आयोग को तीन सदस्यीय निकाय के रूप में परिवर्तित किया गया। लेकिन 01 जनवरी, 1990 को इसे फिर एक सदस्य निकाय का रूप दिया गया। निर्वाचन आयोग 01 अक्तूबर, 1993 से नियमित रूप से तीन सदस्यीय निकाय के रूप में काम कर रहा है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा दो निर्वाचन आयुक्तों को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के समान वेतन और भत्ते दिये जाते हैं। निर्णय लेने में सभी तीन आयुक्तों की शक्तियां बराबर हैं। किसी विषय पर मतभिन्नता की स्थिति में निर्णय बहुमत से लिया जाता
है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य दो निर्वाचन आयुक्तों का कार्यकाल छह वर्ष या 65 वर्ष की आयु तक, जो भी पहले हो, होता है।
लोकसभा तथा विधानसभाओं के प्रथम आम चुनाव कराने के उद्देश्य से निर्वाचन आयोग के परामर्श तथा संसद की सहमति से राष्ट्रपति द्वारा परिसीमन का पहला आदेश 13 अगस्त, 1951 को जारी किया गया। चुनाव कराने के उद्देश्य से वैधानिक ढांचा उपलब्ध कराने के लिए संसद ने 12 मई, 1950 को पहला अधिनियम (जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950) पारित किया। इसमें मुख्यतः मतदाता सूचियां तैयार करने का प्रावधान किया गया। दूसरा अधिनियम 17 जुलाई, 1951 (जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951) पारित किया गया और इसमें संसद के दोनों सदनों तथा प्रत्येक राज्य के लिए विधानसभाओं के निर्वाचन की प्रक्रिया तय करने का प्रावधान हुआ।
इन निर्वाचन क्षेत्रों के लिए मतदाता सूचियां सभी राज्यों में 15 नवम्बर, 1951 तक प्रकाशित की गईं। मतदाताओं की कुल संख्या (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) 17,32,13,635 थी जबकि 1951 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) 35,66,91,760 थी। लोकसभा तथा विधानसभाओं के पहले आम चुनाव अक्तूबर, 1951 तथा मार्च, 1952 के बीच हुए। 497 सदस्यों वाली पहली लोकसभा 02 अप्रैल, 1952 को गठित की गई। 216 सदस्यों वाली पहली राज्यसभा 03 अप्रैल, 1952 को गठित हुई। संसद के दोनों सदनों तथा राज्य विधानसभाओं के गठन के बाद मई, 1952 में प्रथम राष्ट्रपति चुनाव हुआ तथा विधि रूप से निर्वाचित पहले राष्ट्रपति ने 13 मई, 1952 को पदभार ग्रहण किया। 1951-52 में पहले आम चुनाव के समय आयोग ने 14 राजनीतिक दलों को बहु-राज्यीय दलों तथा 39 दलों को क्षेत्रीय दलों के रूप में मान्यता दी थी। अभी मान्यता प्राप्त सात राष्ट्रीय दल तथा 40 क्षेत्रीय दल हैं।
1951-52 तथा 1957 में पहले तथा दूसरे आम चुनावों के लिए निर्वाचन आयोग ने मतदान की मतपेटी प्रणाली अपनाई। इस प्रणाली के अंतर्गत प्रत्येक मतदान केन्द्र पर एक कमरे में प्रत्येक उम्मीदवार को एक अलग मतपेटी आवंटित की गई तथा मतदाता से केन्द्रीयकृत पूर्व मुद्रित मतपत्रों को उनकी पसंद के अनुसार उम्मीदवार की मतपेटी में डालने को कहा गया। 1962 मे हुए तीसरे आम चुनाव तथा उससे आगे आयोग ने मतदान की “मुहर प्रणाली” लागू की। इसके अंतर्गत एक पृष्ठ पर चुनाव लड़ रहे सभी उम्मीदवारों के नाम तथा निर्वाचन चिन्ह छपे होते थे जिस पर मतदाता को रबर स्टैंप से अपनी पसंद के उम्मीदवार के निर्वाचन चिन्ह के निकट तीरनुमा मुहर लगानी होती थी। मुहर लगे सभी मतपत्रों को एक समान मतपेटी में डाल दिया जाता था।
इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) का उपयोग प्रायोगिक आधार पर आंशिक रुप से 1982 में केरल के परूर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र में किया गया। बाद में 1998 में ईवीएम का व्यापक उपयोग शुरू हुआ। पहली बार 2004 में 14वीं लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव में देश के सभी मतदान केन्द्रों पर ईवीएम का इस्तेमाल किया गया। तब से लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं के चुनाव ईवीएम के इस्तेमाल से हुए हैं। 1951-52 से लोकसभा के 15 आम चुनाव तथा विधानसभाओं के 348 आम चुनाव हुए है। देश अब 16वें लोकसभा चुनाव के लिए पूरी तरह तैयार है।
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