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सोमवार, 16 नवंबर 2015

तिल का उत्पादन यानि ‘खुल जा सिमसिम’

उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र के जिक्र से ही अधिकांश लोगों के मन में गरीबी और पिछड़ेपन की तस्वीर उभर जाती है। यह क्षेत्र अपने विशिष्ट भौगोलिक इलाके और जलवायु की परिस्थितियों के कारण कृषि के उत्पादन के साथ-साथ आर्थिक रूप से भी पिछड़ा हुआ है। बुन्देलखण्ड के उत्तर प्रदेश वाले हिस्से में झांसी और चित्रकूट डिवीजनों के 7 जिले आते हैं। इस क्षेत्र में रबी की अच्छी और अधिक कीमत वाली फसलें जैसे चना, मसूर और मटर आदि भारी मात्रा में उगाई जाती हैं, लेकिन इस क्षेत्र के किसान मुख्य रूप से केवल एक फसल पर ही निर्भर रहते हैं। खरीद के दौरान कम क्षेत्र में बुआई हो पाती है। परंपरागत रूप से रबी के दौरान बुआई किए गए रकबे की तुलना में बुन्देलखण्ड के किसान खरीफ सीज़न के दौरान केवल लगभग 50 प्रतिशत रकबे में बुआई करते हैं। रबी के दौरान जहां फसल बुआई का कुल रकबा लगभग 18.50 लाख हेक्टेयर है। खरीफ के दौरान फसल बुआई का रकबा लगभदग 9 लाख हेक्टेयर ही रहता है। इसका मुख्य कारण यह है कि यह क्षेत्र अन्न प्रथा के कारण प्रभावित रहता है। यह एक परंपरागत प्रणाली है जिसके तहत लोग अपने दुधारू पशुओं को भी खेतों में बिना रोक-टोक के चरने के लिए छोड़ देते हैं। यह पशु फसलों को खा जाते हैं इसलिए किसान खरीफ सीजन के दौरान अपने खेतों में बुआई के इच्छुक नहीं रहते हैं। लेकिन रबी के सीज़न में यह सब नहीं होता है क्योंकि किसान अपने पशुओं को घर पर ही रखते हैं। इस घटना को समझने के लिए किसी भी व्यक्ति को बुन्देलखण्ड में प्रचलित विशिष्ट परिस्थितियों की सराहना करनी पड़ेगी। सर्वप्रथम बात यह है कि पूरा क्षेत्र परंपरागत रूप से वर्षा पर आधारित है और पानी की कमी से ग्रस्त रहता है। मानसून की अनिश्चिताओं के कारण यहां किसान अपने खेतों में फसल की बुआई करने को वरीयता नहीं देते। दूसरी बात यह है कि इस क्षेत्र में भूमि जोत का औसतन आकार राज्य के भूमि जोत की तुलना में बहुत बड़ा है क्योंकि यहां जनसंख्या का घनत्व काफी कम है। इसलिए विगत में किसानों के लिए केवल एक अच्छी फसल ही बोना संभव रहता था। लेकिन ऐसा करना लंबे समय तक संभव नहीं रहा। अब स्थिति बदल रही है क्योंकि जनसंख्या बढ़ रही है और इस क्षेत्र में भी औसत भूमि जोत का आकार काफी कम हो गया है। तीसरी बात यह है कि यह क्षेत्र वर्षा आधारित है। इसलिए गर्मी के मौसम के दौरान इस क्षेत्र में चारे की सामान्य रूप से कमी हो जाती है। इस कारण किसानों को मजबूरन अपने पशुओं को खेतों में जो भी मिले वही चरने के लिए खुला छोड़ना पड़ता है। धीरे-धीरे यह स्वीकार्य प्रथा बन गयी और किसानों ने बुन्देलखण्ड में खरीफ सीज़न के दौरान अपने खेतों में फसलों की बुआई बंद कर दी। लेकिन इतने बड़े क्षेत्र में फसलों की बुआई न होना देश के लिए एक तरह से राष्ट्रीय अपव्यय भी है। रबी के पिछले दो सीजनों के दौरान बुन्देलखण्ड में बैमौसमी बारिश और ओलावृष्टि के कारण किसानों को 2014-15 में भारी नुकसान उठाना पड़ा। बुन्देलखण्ड में फसल बीमा के तहत किसानों की कवरेज लगभग 15 प्रतिशत है जो राज्य की औसत 4 से 5 प्रतिशत कवरेज की तुलना में काफी अधिक है लेकिन अभी भी यह प्रतिशत बहुत कम है क्योंकि इस क्षेत्र के किसान मुख्य रूप से रबी से प्राप्त आय पर ही निर्भर करते हैं। इस कारण उनके लिए यह बहुत बड़ा झटका था। राज्य सरकार ने एक विशिष्ट नीति की घोषणा की तो किसान कुछ अतिरिक्त आय जुटाने के लिए बहुत उत्सुक नज़र आए। बुन्देलखण्ड में खरीफ के दौरान तिल की खेती की संभावनाओँ को महसूस करते हुए इस क्षेत्र के किसानों के लिए अनुदान पांच गुणा बढ़ाकर 20 रुपये प्रति किलो से 100 रूपय प्रति किलों कर दिया गया था। तिल उत्पादन को बढ़ावा देने का निर्णय इस तथ्य को ध्यान में रखकर लिया गया था कि पशु इस फसल को नहीं खाते हैं। इस क्षेत्र के किसानों में वितरित करने के लिए तिल के बीजों की भारी मात्रा में खरीदारी की गयी। खरीफ के दौरान तिल के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए एक आक्रामक अभियान शुरू किया गया था। विभागीय अधिकारी, गैर-सरकारी संगठन, जिला और सम्भागीय अधिकारी और अन्य संबंधित लोगों ने तिल के अधीन रकबा बढ़ाने और पिछले वर्ष के आँकड़ों की तुलना में सामान्य रूप से अधिक रकबा लाने के लिए सक्रिय रूप से अभियान चलाया। इसका परिणाम बहुत उत्साहजनक रहा। खरीफ 2014 की तुलना में बुन्देलखण्ड में इस वर्ष 2 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त रकबे में बुआई की गयी जिसमें से 1.25 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त रकबे में तिल की बुआई हुई। यह वादा किया गया था कि अगर किसान अन्न प्रथा के बावजूद इस फसल से अच्छा लाभ अर्जित करने में सफल हो जाएंगे तो वे आगे फसल की बुआई करेंगे। यह वादा अब सही सिद्ध हुआ है। स्थानीय प्रशासन के सक्रिय हस्तक्षेप के कारण ही यह संभव हो पाया है। जालौन जिले की अभी हाल में की गयी यात्रा के दौरान मैंने किसानों को प्रशासन का आभारी देखा जिसने किसानों को अपने पशुओं को दूसरों के खेतों में बे-रोकटोक चरने से रोकने के लिए रोका। जिसके परिणामस्वरूप बुआई के क्षेत्र में बढ़ोत्तरी हुई। ओरई-झांसी राजमार्ग के दोनों और कई-कई किलोमीटर तक तिल के खेतों को लहराते हुए देखना एक सुःखद अनुभव रहा। पशुओं के लिए चारे का प्रबंध करना एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जिसका निश्चित रूप से समाधान किए जाने की जरूरत है। जिस किसान की क्रय शक्ति है वह बाजार से निश्चित रूप आवश्यक मात्रा में चारा खरीद सकता है। तिल उत्पादन की अर्थव्यवस्था बहुत महत्वपूर्ण है। यह फसल वर्षा आधारित क्षेत्रों के लिए है। उत्पाद को बेचने के लिए बाजार की कोई कमी नहीं है। क्योंकि तिल की खेती बहुत कम देशों में की जाता है जबकि हर एक देश में इसकी किसी न किसी रूप में खपत रहती है। तिल का तेल खाना बनाने, मिठाई बनाने, मालिश करने, दवाई के रूप में और सौंदर्य प्रसाधन उद्देश्यों के साथ-साथ अन्य बहुत सी जगह प्रयोग किया जाता है। तिल के बीजों का भारत में गज़क, रेवड़ी, लड्डू और तिलकुट जैसी मिठाइयां बनाने में प्रयोग किया जाता है जबकि मध्य-पूर्व देशों में ताहिनी सॉस और पश्चिमी देशों में बन्स और बर्गरों के ऊपर लगाने में इसका प्रयोग किया जाता है। धार्मिक अवसरों पर विभिन्न अनुष्ठानों में भी इसका उपयोग किया जाता है। बाजार में किसानों को अन्य तिलहनों के मुकाबले में तिल के अधिक दाम मिलते हैं। यह एपिसोड मुझे अलीबाबा और चालीस चोरों की कहानी की याद दिलाता है। जब अलीबाबा कहता है ‘खुल जा सिमसिम’ तो गुफा का मुंह खुल जाता है और गुफा में छिपा खज़ाना दिखाई देता है। यह बुन्देलखण्ड के लिए ‘खुल जा सिमसिम’ वाला ही क्षण हो जो बुन्देलखण्ड के लिए एक वास्तविक मोड़ है। बारिश की बहुत अधिक कमी के कारण इस वर्ष किसानों के लिए आय बहुत ज्यादा आकर्षक नहीं रही लेकिन इसने भविष्य में एक जबरदस्त आशा का संचार कर दिया है। खरीफ के दौरान कृषि की पद्धति ने इस क्षेत्र को हमेशा के लिए परिवर्तित कर दिया है। (श्री अमित मोहन प्रसाद, उत्तर प्रदेश के कृषि विभाग में प्रमुख सचिव है और इस लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। )

शनिवार, 11 अप्रैल 2015

भारतीय रेल फिल्मों के लिए फायदे का सौदा

रेलवे स्टेशन, प्लेटफॉर्म या फिर पटरी पर दौड़ती झुक-झुक करती रेल। फिल्मों के साथ भारतीय रेल का रिश्ता काफी पुराना होने के साथ ही मुनाफे का सौदा भी है। रुपहले पर्दे पर दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे में शाहरुख-काजोल का प्लेटफॉर्म पर दौड़ते हुए ट्रेन के साथ अपने प्रेमी से मिलने की बेताबी हो या फिर अपने जमाने की मशहूर फिल्म शोले में ट्रेन पर फिल्माया गया सीन। भारतीय रेलवे फिल्म के निर्माता से ट्रेन या प्लेफॉर्म पर फिल्माए जाने वाले हर सीन के लिए पैसा वसूल करती है। रेलवे ने बकायदा इसके लिए अलग-अलग किराया भी तय कर रखा है। भारतीय रेलवे देश भर के स्टेशनों को तीन श्रेणियों में बांटा है। स्टेशन के हिसाब से फिल्म निर्माताओँ से लाइसेंस फीस वसूल की जाती है। ए श्रेणी के स्टेशन के लिए फिल्म निर्माताओं को 1 लाख रुपया प्रतिदिन के अनुसार भुगतान करना होता है। बी श्रेणी के स्टेशन पर फिल्मों की शूटिंग के लिए फीस के रुप में प्रतिदिन 50 हज़ार रुपया चुकाना होता है। तीसरी कैटगरी यानि सी श्रेणी के स्टेशनों पर शूटिंग के लिए महज 25 हज़ार रुपया प्रतिदिन के हिसाब से पैसे का भुगतान करना होता है। इसके अलावा किसी भी तरह के जोखिम से निपटने के लिए 5-7 करोड़ का बीमा भी कराना होता है। भारतीय रेलवे फिल्म निर्माताओं से बैंक गारंटी के तौर पर 5 लाख रुपये का इंतजाम करने को कहती है। यह रकम बाद में कोई नुकसान नहीं होने पर लौटा दी जाती है। स्टेशन या प्लेटफॉर्म के मुकाबले ट्रेन के भीतर फिल्मों शूटिंग करना ज्यादा महंगा सौदा है। लेकिन ट्रेन में शूटिंग का अपना अलग ही रोमांच होता है। ट्रेन में फिल्मों की शूटिंग के लिए प्रतिदिन ढ़ाई लाख रुपये खर्च करने होते हैं। आमंतौर पर फिल्मों की शूटिंग के लिए जो ट्रेन मिलती है उसमें 1 इंजन और चार डिब्बे होते हैं। अगर ज्यादा बड़ी ट्रेन की ज़रुरत है तो फिर उसके लिए फिल्म के निर्माता को अतिरिक्त पैसों का भुगतान करना होता है। ट्रेन में शूटिंग के लिए 1 लाख 80 हज़ार रुपये सिक्योरिटी के रुप में जमा कराने होते हैं। इन सबके अलावा यूनिट का खर्चा जो होता है वह अलग से होता है। ये तो बात हुई फिल्मों से रेलवे को होने वाली कमाई की। अब आइए आपको बताते हैं कि किस तरह से रेलवे का इस्तेमाल कर निर्माता देश के कोने-कोने में अपनी फिल्में पहुंचाया करते थे। शुरुआती दौर पर रेलवे ही दूरदराज के शहरों में जल्दी और सुरक्षित तरीके से पहुंचने का एक मात्र जरिया हुआ करती थी। एक लोकेशन से दूसरे लोकेशन जाने के लिए यूनिट के लोग रेलवे का ही इस्तेमाल किया करते थे। तकरीबन 95 वर्षों तक फिल्मों के पचास किलो वाले प्रिंट ट्रेनों से ही पूरे देश भर में भेजे जाते रहे हैं परंतु अब सैटेलाइट बीमिंग के कारण प्रिंट ही खारिज हो गए हैं। फिल्मों में भारतीय रेल आजादी के पहले 1941-42 में मेहबूब खान की ‘रोटी’ में रेलवे प्लेटफॉर्म पर एक जनजाति का आदमी चंद पैसों में ‘हिंदू चाय पीता’ है। फिर एक व्यक्ति उसे ‘मुस्लिम चाय’ बेचता है तो वह दोनों चाय बेचने वालों को मारता है कि एक ही चाय दो नाम से बेच रहे हो। यह अनपढ़ मेहबूब खान का जीनियस है कि धर्मनिरपेक्षता का सबक जनजाति वाला दे रहा है। जनजातियों और आदिवासियों में कोई जाति या धर्म भेद नहीं होता, प्रकृति को पूजते हैं। शादियों का आधार प्रेम है और सबसे गरीब जोड़ा भी मात्र चार कुल्हड़ शराब एक-दूसरे के ऊपर डालकर विवाह सूत्र में बंध जाते हैं। आजादी के पांच वर्ष बाद ‘रेलवे प्लेटफॉर्म’ आई, जिसमें 24 घंटे एक जगह रुकना पड़ा और वहां व्यापार प्रारंभ हो गया। कम्पार्टमेंट का भाईचारा काफूर हो गया। विमल राय का देवदास कम्पार्टमेंट में पहला घूंट शराब का लेता है और इंजन की धधकती आग में कोयला डालने का शाॅट है। इंजन के धुंए का भी कई फिल्मों में प्रतीकात्मक इस्तेमाल हुआ है। विजय आनंद की ‘कालाबाजार’ में ऊपर की बर्थ पर वहीदा रहमान हैं, नीचे देवआनंद गाना गाते हैं, ‘अपनी तोे हर तूफान है, ऊपर वाला जानकर अंजान है।’ मां की मुद्रा उसकी नाराजगी जाहिर करती है तो पति इशारे से कहता है कि ‘ऊपर वाले’ से उसका तात्पर्य ‘ईश्वर’ है, हमारी बेटी नहीं। विजय आनंद तो खूब खेलता था परंतु उम्रदराज सचिन देव बर्मन रेल का गाना बनाना है, सुनते ही प्रसन्न हो जाते थे। रेल की सिटी में माधुर्य खोजना उनके बस की ही बात थी। याद कीजिए आराधना का गीत ‘मेरे सपनों की रानी।’ रेल की छत पर नासिर हुसैन का नायक नाचता था तो मनमोहन देसाई का नायक गुंडों को पीटता था। मेरे लड़कपन की प्रिय नाडिया ट्रेन की छत पर घोड़ा दौड़ाती थी। ट्रेन डकैती का सर्वश्रेष्ठ दृश्य दिलीप की ‘गंगा जमना’ में है, फिर शोले है और बोनी की ‘रूप की रानी’ में भी उत्तेजक दृश्य था। रेल दृश्य कविता की तरह ‘जोकर’ में आया था। एक फिल्म में तलाकशुदा पति-प|ी को जोड़ा समझकर एक कूपा दिया गया और यात्रा में उनके मन में मौजूद प्रेम की चिंगारी ने फिर रिश्ता बना दिया। शाहरुख खान मणिर|म की फिल्म में ट्रेन में ‘छैयां छैयां’ गाते है। ‘दुल्हनिया’ में ट्रेन का इस्तेमाल हुआ है परंतु इम्तियाज अली की ‘जब वी मैट’ के अत्यंत महत्वपूर्ण दृश्य रेल में हैं। चेन्नई एक्सप्रेस’ में भी अनेक हास्य दृश्य ट्रेन में फिल्माए गए हैं। बहरहाल, जावेद अख्तर की एक नज्म में इस आशय की बात है कि चलती ट्रेन से स्थिर दरख्त भागते हुए से लगते हैं। शायद समय भी दरख्त की तरह खड़ा है और हम ही भाग रहे हैं। भारतीय रेल में रोजाना ऑस्ट्रेलिया की पूरी आबादी के बराबर यानी लगभग 2 करोड़ 30 लाख से ज्यादा यात्री सफर करते हैं लेकिन इस पर भी देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा है जिसने अभी तक ट्रेन में पैर तक नहीं रखा. करोड़ों-अरबों में कारोबार करने वाले फिल्म उद्योग के लिए भी रेल मोटी कमाई का जरिया रही है. कई फिल्म निर्माताओं ने रेल को अपनी फिल्म का अनिवार्य हिस्सा बना कर बॉक्स ऑफिस पर खूब नोट बटोरे हैं. शोले, गदर, चेन्नई एक्सप्रेस रेल को ही पृष्ठभूमि में रख कर बनायी गयी फिल्में हैं, जो अपने-अपने समय की सर्वाधिक कमाई करने वाली फिल्म है. फिल्मों में ट्रेन पर फिल्माया क्लाइमेक्स दृश्य फिल्में समाज का आईना होती हैं. हमारे फिल्म निर्माताओं ने रेल को बड़ी खूबसूरती से अपनी कहानी में पेश किया है. कई अहम फिल्में जिनकी कहानी रेल पर शुरू हुई या रेल के दृश्य ने फिल्म को एक अलग दिशा में मोड़ दिया. हो सकता है कि फिल्मों की शूटिंग रेल पर करने में ज्यादा पैसे खर्च होते हो लेकिन इन दृश्यों के दम पर ही कई फिल्मों ने तगड़ी कमाई की है. चेन्नई एक्सप्रेस- फिल्म चेन्नई एक्सप्रेस का नाम ही बड़े रोचकता के साथ लिया जाता है फिल्म के कई महत्वपूर्ण दृश्य और कहानी की शुरुआत ही ट्रेन से होती है. इस फिल्म को लोगों ने खुब पसंद किया और कमाई के मामले में भी फिल्म ने कई रिकोर्ड तोड़ दिये. राजधानी एक्सप्रेस- टेनिस लिएंडर पेस ने राजधानी एक्सप्रेस नाम की फिल्म से बॉलीवुड में कदम रखा लेकिन राजधानी एक्सप्रेस की रफ्तार से फिल्म पटरी से उतर गयी. फिल्म में पेस ने दमदार भूमिका निभायी लेकिन उनका यह अंदाज लोगों को पसंद नहीं आया. साल 2013 में फिल्म कब रिलीज हुई और कब फ्लॉप हो गयी किसी को पता नहीं चला. द बर्निग ट्रेन- इस फिल्म का स्टारकॉस्ट बहुत बड़ा था धमेन्द्र, जितेन्द्र, विनोद खन्ना, डैनी के अलावा हिरोईनों की भी एक लंबी फेहरिस्त थी. यह फिल्म 1980 में रिलीज हुई थी. पहली बार ट्रेन के कई शानदार दृश्यों को इस फिल्म के जरिये दिखाया गया. इस फिल्म में स्टारकॉस्ट और कहानी इतनी दमदार थी कि फिल्म आज भी अपना अलग मुकाम बनाने में सफल है. एक चालीस की लास्ट लोकल - मुंबई की लोकल ट्रेन को आधार बनाकर बनायी गयी इस फिल्म को भी लोगों ने कम पसंद किया. अभय देओल और नेहा धूपिया ने इस फिल्म में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. ऐसी फिल्मों की एक लंबी फेहरिस्त है. इसके अलावा ट्रेन पर कई ऐसे सीन शूट किये गये हैं जिसे लोग काफी पंसद करते हैं. फिल्म गदर का वो दृश्य जिसमें हीरो अपनी प्रेमिको को पाकिस्तान से हिंदुस्तान ला रहा है ट्रेन पर पाक फौजी उसे रोकने की कोशिश कर रहे हैं. फिल्म शोले को वो दृश्य जिसमें जय और बीरू को थानेदार गिरफ्तार करके जेल ले जा रहा है और ठीक उसी वक्त ट्रेन लूटने के लिए डाकू ट्रेन पर हमला कर देते हैं. जय और बीरू इस लूट को रोकने की कोशिश करते हैं. शाहरुख खान की फिल्म दिल से का गाना छैया , छैया. आमिर की फिल्म गुलाम को वो दृश्य जिसमें आमिर ट्रेन से रेस लगाते हैं. इन सभी दृश्यों को बाद महानायक राजेश खन्ना की फिल्म अराधना का वो गाना जिसमें शर्मिला टैगोर ट्रेन से जा रही हैं और राजेश मेरे सपनों की रानी कब आयेगी तू गाना गा रहे हैं. हमारे पास ऐसे कई उदाहण है जो दर्शाते हैं कि कहानी को सरल और साधारण ढंग से बयां करने के लिए ट्रेन कितनाा महत्वपूर्ण है. एक्शन, रोमांस, इमोशन सभी तरह के दृश्य बड़े सहज ढंग से ट्रेनों पर फिल्माये गये हैं. सुनने में तो यह भी आया है कि जितना प्रॉफिट इंडियन रेलवे को बॉलीवुड से होता है उतना तो यात्रियों से भी नहीं होता, और मजे की बात तो यह है कि हर साल बॉलीवुड में किसी न किसी डायरेक्टंर को छुक-छुक गाड़ी की जरूरत पड़ ही जाती है फिर चाहे हिरोइन को ट्रेन की छत पर नचाना हो या फिर हीरो को ट्रेन के आगे दौड़ाना हो. छुक-छुक गाड़ी के इस फंडे पर बॉलीवुड की कई फिल्मों के सीन शूट किए जा चुके हैं, हम आज आपको कुछ ऐसे ही सीन्स के बारे में बताएंगे जिन्हें शूट करना न तो डायरेक्ट के लिए इजी था और न हीरो के लिए. लेकिन आज बॉलीवुड के लिए यह यादगार सीन बन चुके हैं, गुलाम इस फिल्म में आमिर खान को ट्रेन के ऑपोजिट डिरेक्शन में दौड़ लगानी थी. यह स्‍टंट आमिर से जब कहा गया की इस स्टंट के लिए किसी स्टंटमैन को ले लिया जाए तो उन्हों ने ने साफ इंकार करते हुए कहा कि नहीं वह खुद इसे करेंगे और बेहतरीन तरीके से उन्हों ने यह सीन शूट किया। लेकिन हां, शूट के बाद आमिर इतना नर्वस हो गए थे कि कुछ बोल भी नहीं पा रहे थे. रोबोट फिल्म के एक सीन में रजनीकांत को ऐश्‍वर्या राय को गुंडों से बचाना था. सीन ट्रेन के एक कोच मे शूट किया गया था. बदमाशों से बचाने में रजनीकांत को जो स्टंट देने पड़े उनमें कम्‍प्‍यूटर टेक्‍नोलॉजी का भी इस्तेनमाल किया गया है. लेकिन सीन इतना रियलिस्टिक है की इसे देख कर किसी के भी रोंगटे खड़े हो जाएं. लक इमरान खान ने अपनी तीसरी ही फिल्म में यह साबित कर दिया था की वो बॉलीवुड में सिर्फ चॉकलेटी बॉय के रोल करने ही नहीं आए बल्कि वो स्‍टंट सीन में भी खुद को काफी कम्फर्टेबल महसूस करते हैं. इस बात को उन्हों ने लक फिल्म में चलती हुई माल गाड़ी पर दौड़ने वाले सीन को कर के साबित भी कर दिया. दिल से इस फिल्म का एक गाना ट्रेन पर ही शूट किया गया है. गाने में किंग खान मलाइका अरोड़ा के साथ ठुमके लगा रहे हैं. आलोचकों की माने तो फिल्म का यह एक ऐसा गाना था जिसे देखने के लिए लोगों की भीड़ थिएटर में इक्‍टठा हुई थी. बाकी यह फिल्‍म तो बॉक्‍स ऑफिस पर कोई कमाल नहीं दिखा पाई. द बर्निंग ट्रेन यह पूरी फिल्म में ही ट्रेन के पर बनी है. इस फिल्म में एक नहीं बल्कि इतने स्‍टंट है जिन्‍होंने गिना नहीं जा सकता. फिल्म में पूरी ट्रेन में आग लग जाती और फिर कैसे तीन मेचोमैन सारे यात्रियों को बचाते हैं यही इस फिल्म का क्लाइमेक्स है। भारतीय रेल और हिंदी फिल्मों के कनेक्शन की बात की जाए तो दोनों के बीच दशकों पुराना संबध हैं। आजादी से पहले भी ट्रेनों को लेकर फिल्में बनी और आज भी यह सिलसिला जारी है। सिनेमा के हर दौर में ट्रेन उसका हिस्सा रही है। ट्रेनों को लेकर फिल्मों में सीन फिल्माए गए। रोमेंटिक गाने पेश किए गए। ट्रेन की सीटी की आवाज ने कई फिल्म निर्माताओं को लुभाया। ऎसे सीन की हम कल्पना कर सकते है जब शर्मिला टैगोर टॉय ट्रेन की खिड़की की ओर देखती है और सुपर स्टार राजेश खन्ना गाना गाते है 'मेरे सपनों की रानी कब आएगी तु'। रोमेंटिक फिल्मों के बादशाह निर्देशक यश चोपड़ा की रोमेंटिक फिल्म 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे' में काजोल व शाहरूख के बीच ऎसे सीन फिल्माए गए। जहां हीरो से मिलने के लिए हीरोइन चलती ट्रेन के पीछे-पीछे काफी देर तक दौड़ती है। इसके अलावा फिल्म 'दिल से' में शाहरूख और मलाइका अरोड़ा खान के बीच 'छैयां-छैयां' गाना शूट किया गया। ट्रेन की छत पर शूट हुआ यह गाना काफी पॉपुलर हुआ। नए की तलाश में फिल्मनिर्माता फिल्म 'रूप की रानी चोरो का राजा,शोले,दबंग,अजनबी,आपकी कसम और चेन्नई एक्सप्रेस आदि इस बात का गवाह है कि फिल्मों का ट्रेन से खासा कनेक्शन रहा है।

शनिवार, 28 मार्च 2015

बच्चों की शिक्षा से खिलवाड़ कब तक?

देश के बेहतर कल के लिए स्कूलों में शिक्षा नीति कैसी होनी चाहिए। इस बात को लेकर आज़ादी से लेकर आज तक मंथन का दौर जारी है। लेकिन सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर बेहद खराब है। इस बात का खुलासा खुद दिल्ली के उप मुख्यमंत्री ने किया। लेकिन शिक्षा नीति को लेकर मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने पूरी तरह से चुप्पी साध रखी है। यहां तक कि मनीष सिसोदिया समेत कई दूसरे नेताओं की ओर से पत्र भेजकर सभी बच्चों को पास करने की नो डिटेंशन नीति को लेकर सवाल उठाए जाने के बाद भी अभी तक स्मृति ईरानी ने किसी भी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। यह जानते हुए भी कि सवाल देश के करोड़ों स्कूली बच्चों के भविष्य से जुड़ा है। ऐसे में अगर दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर ठीक नहीं है तो देश के दूर-दराज के स्कूलों की हालत क्या होगी। इस बात का बेहतर अंदाजा लगाया जा सकता है। देश में बुनियादी शिक्षा और खासकर गांव में शिक्षा के प्रचार प्रसार को लेकर अनगिनत योजनाएं बनाई गई। इन्हीं में से एक नाम है सर्व शिक्षा अभियान। इस पर करोड़ों रुपये खर्च किए गए। लेकिन कोई ठोस परिणाम निकल कर सामने नहीं आया। गांवों में स्कूली शिक्षा को लेकर राज्यों के शिक्षा विभाग की अपनी अलग-अलग राय है। दिल्ली सरकार के मुताबिक स्कूली शिक्षा के गिरते स्तर के लिए टीचर और स्कूल प्रबंधन से ज्यादा देश की शिक्षा नीति जिम्मेदार है। वर्तमान में देश में लागू नो डिटेंशन पॉलिसी यानि सभी बच्चों को पास करने की नीति के कारण कक्षा आठ तक बच्चों की पढ़ाई को लेकर कोई चेक बैलेंस नहीं है। दिल्ली में स्कूली शिक्षा से संबंधित एक आंकड़े के मुताबिक पिछले 3 साल का रिकॉर्ड यह बताता है कि करीब 25 फीसदी अपने उस क्लास की परीक्षा में फेल हो जाते हैं लेकिन नो डिटेंशन पॉलिसी यानि सभी बच्चों को पास करने की नीति के तहत सभी बच्चों को पास करना पड़ता है। इस आंकड़े के मुताबिक 2012 में अपने क्लास में फेल होने का आंकड़ा 14 प्रतिशत, जबकि 2013 में यह आंकड़ा 20 प्रतिशत और 2014 में यह आंकड़ा तकरीबन 24 फीसदी तक पहुंच चुका है, यानि करीब 25 फीसदी बच्चे हर साल फेल होते हुए भी पास होते हैं। यह चौकाने वाला आंकड़ा दिल्ली के स्कूलों का है तो देश के दूसरे पिछड़े राज्यों के स्कूली बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। आज भी ग्रामीण इलाको में कई ऐसे स्कूल है जहां शिक्षक नहीं है। अगर शिक्षक है तो स्कूल में बच्चों को बैठने के लिए क्लास रुम नहीं है। बच्चे पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ाई करते हैं। ऐसे में सभी बच्चों को बिना उचित शिक्षा और बगैर किसी मापदंड के सीधे-सीधे पास करना किस हद तक उचित है। इससे बच्चों में पढ़ने की जिज्ञासा कम होती जा रही है। शिक्षकों में जिम्मेदारी की भावना में कमी आ रही है, क्योंकि सभी बच्चों को पास करना है, लिहाजा शिक्षक भी गंभीरता से बच्चों को नहीं पढ़ाते हैं। पूरे पाठ्यक्रम को लेकर बच्चों में पढाई के प्रति उदासीनता का भाव देखने को मिलता है। इसकी वजह यह है कि उन्हें पता है कि पास तो होना ही है। हमारे यहां पूरी शिक्षा व्यवस्था परीक्षा पद्धति पर आधारित है। लेकिन सबको पास करने की नीति की वजह से अब बच्चों में पढ़ाई के साथ ही परीक्षा को लेकर भी उदासीनता बढ़ती जा रही है। बावजूद इसके बच्चे आसानी से आठवीं क्लास तक तो पास कर जाते हैं। लेकिन 9वीं क्लास में आते ही उनके सामने मुसीबत खड़ी हो जाती है। यही कारण है कि 9वीं क्लास में सबसे ज्यादा बच्चे फेल हो रहे हैं। इससे नई पीढ़ी को ज्यादा नुकसान उठाना पड़ रहा है। साथ ही देश और समाज में भी ऐसे बच्चों की संख्या बढ़ती जा रही है जो पढ़ लिखे तो है लेकिन समझदार नहीं है। लिहाजा शिक्षा के अधिकार कानून में बदलाव लाने की ज़रुरत है, जिसके तहत सभी बच्चों को पास करने की नीति तीसरी क्लास तक ही लागू रहनी चाहिए। इसके बाद चौथी क्लास से शिक्षा के गुणवत्ता के स्तर पर विशेष ध्यान देने की ज़रुरत है। इस बात को ध्यान में रखकर यूपीए सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून में बदलाव करने की तैयारी की थी। लेकिन अभी तक इस दिशा में कुछ भी नहीं किया गया है। केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की एक सब-कमेटी ने इस मामलों में कुछ सिफारिशें की थी। इस सब कमेटी की अध्यक्ष हरियाणा की पूर्व शिक्षा मंत्री गीता भुक्कल थी। लेकिन इस सब-समिति की सिफारिशों पर मोदी सरकार का मंथन जारी है। यूपीए सरकार ने मार्च 2010 में शिक्षा का अधिकार कानून लागू किया था। इस कानून में पहली से लेकर आठवीं तक के छात्रों के लिए फेल नहीं करने की नीति लागू की गई थी। इसके बाद छात्रों में पढ़ाई के प्रति बढ़ती लापरवाही को कम करने के लिए पंजाब जैसे राज्यों में दो बार बच्चों को मूल्यांकन परीक्षा से गुजरना होगा। हलांकि ऐसे मूल्यांकन के जरिए भी छात्रों को फेल नहीं किया जाएगा। लेकिन इसके जरिए यह जानने की कोशिश की जाएगी कि बच्चों में पढ़ाई का स्तर क्या है। हाल के सालों में देखने में आया है कि पहली से आठवीं कक्षा तक सभी बच्चों को पास करने की नीति अपनाने के बाद शिक्षक और छात्र पढ़ाई के प्रति गंभीर नहीं हो रहे हैं। इसका असर दसवीं और बारहवीं कक्षा के परिणाम पर भी पड़ा है। पहले जहां दोनों कक्षाओं का वार्षिक रिजल्ट 70 से 75 प्रतिशत तक रहता था, वह अब 50 से 60 फीसदी के बीच पहुंच गया है। देश में शिक्षा के गिरते स्तर को लेकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय भी अच्छी तरह से वाकिफ है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता को बेहतर करने की कोशिशें केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से हाल के दिनों में की गई है। लेकिन उससे भी कही ज्यादा ज़रुरी प्राथमिक स्कूलों में बच्चों की पढ़ाई के गिरते स्तर को सुधारने की है। हलांकि सेंट्रल एडवाइजरी बोर्ड तो नो-डिटेंशन पॉलिसी की विफलता को देखते हुए दोबारा से पांचवीं और आठवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा शुरू करने की सिफारिश तक कर चुका है। लेकिन देखना है कि सरकार बच्चों की शिक्षा से जुड़े इस संवेदनशील मुद्दे पर कब कारगर कदम उठाती है।

गुरुवार, 26 मार्च 2015

मेगा फूड पार्क से कितना फायदा होगा?

देश में विदेशों की तरह मेगा फूड पार्क बनाने के काम को जल्दी ही अमलीजामा पहना दिया जाएगा। सरकार ने भारत के दूर-दराज के इलाकों में जल्द खराब होने वाले खाद्य पदार्थों की बर्बादी को रोकने के लिए सभी राज्यों में मेगा फूड पार्क बनाने का फैसला किया है। लेकिन अहम सवाल यह है कि इससे आम भारतीय को कितना फायदा पहुंचेगा। क्या छोटे व्यापारियों और किसानों को इससे वाकई फायदा है। जानकारों का कहना है कि इससे जल्‍द खराब हो जाने वाले खाद्य पदार्थों की बर्बादी में कमी आएगी। इस पर गौर फरमाते हुए इस दिशा में और मूल्‍यवर्द्धन किया गया है। खाद्य प्रसंस्‍करण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए खाद्य प्रसंस्‍करण उद्योग मंत्रालय वर्ष 2008 से ही देश भर में मेगा फूड पार्क योजना क्रियान्वित कर रहा है। सरकार की ओर से मेगा फूड पार्क की स्‍थापना के लिए 50 करोड़ रुपये तक की वित्तीय सहायता दी जाती है। इसके तहत खेत से लेकर बाजार तक की मूल्‍य श्रृंखला में खाद्य प्रसंस्‍करण हेतु आधुनिक बुनियादी ढांचागत सुविधाओं की स्‍थापना के लिये वित्तीय सहायता दी जाती है। न्‍यूनतम 50 एकड़ क्षेत्र में स्‍थापित किये जाने वाला मेगा फूड पार्क क्लस्‍टर आधारित अवधारणा के तहत काम करता है। यह 'हब एंड स्‍पोक' मॉडल पर आधारित होता है, जिसके तहत केन्‍द्रीकृत एवं एकीकृत लॉजिस्टिक प्रणाली का नेटवर्क स्‍थापित किया जाता है। प्राथमिक प्रसंस्‍करण केन्‍द्रों (पीपीसी) के रूप में खेतों के निकट प्राथमिक प्रसंस्‍करण एवं भंडारण कार्यों के लिए बुनियादी ढांचागत सुविधाएं स्‍थापित की जाती हैं। केन्‍द्रीय प्रसंस्‍करण केन्‍द्र में अनेक साझा सुविधाओं के साथ-साथ उपयुक्‍त बुनियादी ढांचागत सुविधाएं भी होती हैं, जिनमें आधुनिक भंडारण, शीत भंडारण, आईक्‍यूएफ, पैकेजिंग, बिजली, सड़क, जल इत्‍यादि शामिल हैं। इससे सम्‍बंधित इकाइयों की लागत काफी हद तक घटाने में मदद मिलती है जिससे वे और ज्‍यादा लाभप्रद हो जाती हैं। अत्‍याधुनिक तकनीक का इस्‍तेमाल करना, बेहतर प्रसंस्‍करण नियंत्रण के जरिये प्रसंस्‍कृत खाद्य उत्‍पादों की उच्‍च गुणवत्ता सुनिश्चित होना और पर्यावरण एवं सुरक्षा मानकों का पालन किया जाना मेगा फूड पार्कों के अन्‍य अहम फायदे हैं। देश भर में स्‍थापित करने के लिए सरकार द्वारा अब तक 42 मेगा फूड पार्कों को मंजूरी दी गई है। मौजूदा समय में 25 परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। मंत्रालय को 72 प्रस्‍ताव मिले हैं और इन पर पारदर्शी ढंग से गौर करने के बाद देश के 11 राज्‍यों के 17 समुचित प्रस्‍तावों का चयन किया गया है तथा उन पर अमल के लिए मंजूरी भी दे दी गई है। सरकार के इस कदम से खाद्य प्रसंस्‍करण क्षेत्र के लिए विशाल अत्‍याधुनिक बुनियादी ढांचे का निर्माण होगा और इस क्षेत्र के विकास को नई गति मिलेगी। इन 17 नव चयनित मेगा फूड पार्कों से अत्‍याधुनिक बुनियादी ढांचे में तकरीबन 2000 करोड़ रुपये का निवेश आकर्षित होने का अनुमान है। इसी तरह पार्कों में स्थित 500 खाद्य प्रसंस्‍करण इकाइयों में तकरीबन 4000 करोड़ रुपये का अतिरिक्‍त सामूहिक निवेश आकर्षित होने का अनुमान है। इनका सालाना कारोबार 8000 करोड़ रुपये रहने का अनुमान लगाया गया है। इन पार्कों के पूरी तरह से कार्यरत हो जाने पर तकरीबन 80000 लोगों के लिए रोजगार सृजित होंगे और इनसे लगभग 5 लाख किसान प्रत्‍यक्ष एवं परोक्ष रूप से लाभान्वित होंगे। इन मेगा फूड पार्कों के समय पर पूरा हो जाने से संबंधित राज्‍यों में खाद्य प्रसंस्‍करण क्षेत्र के विकास को काफी बढ़ावा मिलेगा, किसानों को बेहतर मूल्‍य मिलने में मदद मिलेगी, जल्‍द खराब होने वाले खाद्य पदार्थों की बर्बादी घटेगी, कृषि उपज का मूल्‍यवर्द्धन होगा और खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी संख्‍या में रोजगार अवसर सृजित होंगे। इतना ही नहीं, ये मेगा फूड पार्क खाद्य उत्‍पादों की कीमतों को स्थिर रखने के साथ-साथ देश में महंगाई को नियंत्रण में रखने में भी मददगार साबित होंगे।

264 नए शहरों में 831 एफएम चैनलों का बिछेगा जाल

देश के सभी छोटे बड़े शहरों में एफएम रेडियो का जाल बिछाने की तैयारी का काम जोरों पर है। सरकार ने इसके लिए सभी ज़रुरी तैयारियां लगभग कर ली है। इसके तहत 264 नए शहरों में एफएम रेडियो चैनल खोलने का प्रस्ताव है। जल्द ही ई नीलामी के जरिए इन शहरों में 831 एफएम रेडियो स्टेशन के लिए नीलामी की प्रक्रिया भी पूरी कर ली जाएगी। दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (टीआरएआई) ने नए शहरों में एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी के लिए आरक्षित मूल्यों की सिफारिश कर दी है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने 16 दिसंबर, 2014 को भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण को पत्र लिखकर 264 नए शहरों में एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी के लिए आरक्षित मूल्यों पर सिफारिश मांगी थी। इन नए शहरों में तीसरे चरण के नीतिगत निर्देशों के तहत एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी की जाएगी। तीसरे चरण की नीति के मुताबिक इन शहरों में सभी 831 एफएम चैनलों की नीलामी बढ़ते हुए क्रम में ई-नीलामी प्रक्रिया के तहत होनी है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने नीलामी के लिए संबंधित श्रेणी में शहरों की सूची और चैनलों की संख्या मुहैया कराई है। 2011 के जनसंख्या आंकड़ों के मुताबिक 264 नए शहरों में से 253 शहरों की जनसंख्या एक लाख से ज्यादा है। इन सभी शहरों को बी, सी, और डी श्रेणी में बांटा गया है। इन 253 शहरों में 798 एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी होनी है। बाकी 11 शहरों की आबादी एक लाख से कम है और वे जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर क्षेत्र के सीमाई इलाकों में स्थित हैं। इन 11 शहरों में भी 33 एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी प्रस्तावित है। दूरसंचार नियामक प्राधिकरण ने 6 फरवरी, 2015 को नए शहरों में एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी के लिए आरक्षित मूल्यों पर एक परामर्शपत्र जारी किया था। इसके लिए सभी हिस्सेदारों (पक्षों) से 25 फरवरी, 2015 तक लिखित टिप्पणियां मंगाई गई थीं। सभी टिप्पणियों को भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण की वेबसाइट पर डाल दिया गया था। इसके बाद भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण ने नई दिल्ली में 9 मार्च, 2015 सभी हिस्सेदारों की ओपनहाउस बैठक बुलाई थी। i) परामर्श प्रक्रिया में सभी हिस्सेदारों की टिप्पणियों और इन जुड़े मुद्दों के विश्लेषण के बाद भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण चैनलों के मूल्य तय करने के लिए तीन सरल रूख तय किए। ये निम्नलिखित आधारों पर तय किए गए। • शहरों की आबादी • प्रति व्यक्ति सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) • एफएम रेडियो के श्रोताओँ की संख्या • मौजूदा एफएम रेडियो संचालकों की ओर से कमाया गया प्रति व्यक्ति सकल राजस्व (ii) हरेक शहर में नीलाम होने वाले रेडियो चैनलों का आरक्षित मूल्य कुल मूल्य का 80 प्रतिशत निर्धारित किया गया है। (iii) 253 नए एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी के लिए जो आरक्षित मूल्य तय किए गए हैं वे अनुलग्नक-1 में दिए गए हैं। (iv) जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के सीमाई क्षेत्र में एक लाख से कम की आबादी वाले जिन अन्य श्रेणी के ग्यारह शहरों में एफएम चैनलों की नीलामी होनी है वहां तीसरे चरण नीति के तहत प्रति शहर प्रति चैनल के लिए आरक्षित मूल्य 5 लाख रुपये रखा गया है। इन सिफारिशों को विस्तृत तौर भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण की वेबसाइट www.trai.gov.in. पर देख सकते हैं।

बुधवार, 25 मार्च 2015

दिल्ली पुलिस, एफआईआर और बंदर

दिल्ली पुलिस ने एक ऐसे आरोपी के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया है, जो अपने आप में किसी अजूबे से कम नहीं है। दिल्ली पुलिस की एफआईआर डायरी में दर्ज इस आरोपी का नाम सुनकर आप हैरान-परेशान रह जाएंगे। जानकारों की माने तो दिल्ली पुलिस ने इस बार गुनाह का इल्जाम जिसके नाम दर्ज किया है वह इंसान की तरह बोल नहीं सकता। वह इंसान की भाषा समझ नहीं सकता। ना ही इंसान उसकी भाषा समझ सकते हैं। क्योंकि दिल्ली पुलिस का ये नया नवेला आरोपी बंदरों का एक झुंड है। अब आप कहेंगे कि देश की सबसे स्मार्ट माने जाने वाली दिल्ली पुलिस को आखिर क्या हो गया है कि वह अब बंदरों के नाम से भी एफआईआर दर्ज करने लगी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बंदर के अक्ल की तरह पुलिस के कुछ तथाकथित समझदार और तेजतर्रार अफसर और जवान दिल्ली पुलिस की बची-खुची इमेज को भी ठिकाने लगाने की तैयारी कर चुके हैं। अगर ऐसा नहीं है तो दिल्ली पुलिस अक्ल और शक्ल के मामले में बंदरों के साथ मुकाबला क्यों कर रही है। अगर उसे सही मायने में दिल्ली की चिंता है तो वह अपराधियों पर नकेल कसने की हिम्मत क्यों नहीं दिखा रही। दिल्ली के गुनहगारों को सलाखों के पीछे भेजने के बजाए दिल्ली पुलिस बंदरों के पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ी है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या दिल्ली की दिनोंदिन बिगड़ती कानून व्यवस्था के लिए बंदर जिम्मेदार है। काश बंदर अगर इंसान की भाषा बोल पाते तो यहीं कहते कि दिल्ली पुलिस मुझे तो बक्श दो। आइए अब आपको बताते है कि असल में पूरा मामला है क्या और क्यों हम दिल्ली की स्मार्ट पुलिस को सवालों के घेरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। देश की राजधानी दिल्ली के पांडव नगर थाने के समझदार पुलिस अफसरों ने एक ऐसा मुकदमा दर्ज किया है, जिसमें इलाके के बंदरों को आरोपी बनाया गया है। शायद देश में यह अपनी तरह का पहला मामला होगा, जिसमें आरोप किसी इंसान पर नहीं बल्कि बंदर पर लगाया गया है। मयूर विहार फेज-2 में रहने वाले अरविंद जब रोजाना की तरह सुबह अपने ऑफिस जाने के लिए घर से निकले तो रास्ते में बंदरों के झुंड ने उन पर हमला कर दिया। इलाके के लोगों ने बंदरों के चंगुल से अरविंद को छुड़ाने की पूरी कोशिश की। लेकिन बदमाश बंदरों ने अरविंदों को जगह जगह काटकर बुरी तरह जख्मी कर दिया। पांडव नगर और उसके आसपास के इलाकों में बंदरों के उत्पात मचाने की यह कोई पहली कहानी नहीं है। इलाके की जनता पिछले काफी समय से बंदरों को लेकर परेशान है। लेकिन एमसीडी के अधिकारी कान में तेल डालकर सोने की अपनी वर्षों पुरानी नीति पर आज भी कायम है। लिहाजा बंदरों के इस उत्पात को लेकर अरविंद पुलिस के पास एमसीडी के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने थान पहुंचे। लेकिन स्मार्ट दिल्ली पुलिस के समझदार अफसर ने बिना कुछ सोचे समझे एफआईआर दर्ज कर ली और वह भी इलाके के बंदरों के खिलाफ। जी हां दिल्ली पुलिस ने इलाके के बंदरों को ही इस मामले में आरोपी बना दिया। हद तो तब हो गई जब इस एफआईआर में पुलिसवालों ने इलाके के बंदरों पर भारतीय दंड संहिता यानि आईपीसी की धारा 124 भी लगा दी। यानि पांडव नगर के बंदरों ने अरविंद के साथ मार-पीट की और किसी घातक हथियार से उन्हें घायल कर दिया। कानून के मुताबिक IPC की धारा 324 के तहत दोषी साबित होने पर 3 साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान है। लेकिन क्या दिल्ली पुलिस इस मामले में किसी बंदर को वाकई में पहचानती है। क्या वह आरोपी बंदर को पकड़ पाएगी। क्या ऐसे मामले में बंदर को आरोपी बनाया जा सकता है। आमतौर पर ऐसे मामले में दिल्ली नगर निगम या उसके संबंधित अधिकारियों के खिलाफ शिकायत दर्ज किया जाता है। लेकिन दिल्ली पुलिस ने एमसीडी या उसके अधिकारियों को आरोपी क्यों नहीं बनाया। क्या दिल्ली पुलिस और एमसीडी के अफसरों के बीच कोई सांठगांठ है? क्या दिल्ली पुलिस एमसीडी से डरती है? क्या दिल्ली पुलिस को ऐसे मामले में किसे आरोपी बनाया जाता है इसका पता नहीं है? अगर ऐसा है तो वाकई में दिल्ली पुलिस के अफसरों और जवानों को सख्त ट्रेनिंग देने की ज़रुरत है। क्योंकि सवाल देश की राजधानी दिल्ली की सुरक्षा का है। ...

सोमवार, 23 मार्च 2015

राष्ट्रीय सेवा योजना एक अनोखी शुरुआत

राष्‍ट्रीय सेवा योजना (एनएसएस) एक केंद्र प्रायोजित योजना है। इस योजना की शुरूआत 1969 में की गई थी और इसका प्राथमिक उद्देश्‍य स्‍वैच्छिक सामुदायिक सेवा के जरिये युवा छात्रों का व्‍यक्तित्‍व एवं चरित्र निर्माण था। एनएसएस की वैचारिक अनुस्‍थापना महात्‍मा गांधी के आदर्शों से प्रेरित है और इसका आदर्श वाक्‍य ''मैं नहीं, लेकिन आप'' हैं। एनएसएस को उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍कूलों, कॉलेजों एवं विश्‍वविद्यायल में कार्यान्वित किया जा रहा है। एनएसएस की परिकल्‍पना में इस बात पर ध्‍यान दिया गया है कि इस योजना के दायरे में आने वाले प्रत्‍येक शैक्षिक संस्‍थान में एनएसएस की कम से कम एक इकाई हो और उसमें सामान्‍यत: 100 छात्र स्‍वयंसेवक हों। इस इकाई की अगुवाई एक शिक्षक करता है जिसे कार्यक्रम अधिकारी का दर्जा दिया जाता है। प्रत्‍येक एनएसएस की इकाई एक गांव अथवा मलिन बस्‍ती (स्‍लम) को गोद लेती है। एक एनएसएस कार्यकर्ता को निम्‍न कार्य अथवा गतिविधियों को पूरा करना होता है। ·नियमित एनएसएस गतिविधि – प्रत्‍येक एनएसएस स्‍वयंसेवक को सामुदायिक सेवा के लिए दो वर्षों की अवधि में प्रतिवर्ष न्‍यूनतम 120 घंटे और दो वर्षों में 240 घंटे काम करना होता है। इस कार्य को अध्‍ययन की अवधि समाप्‍त होने अथवा सप्‍ताहांत के दौरान किया जाना है और एनएसएस की स्‍कूल/कॉलेज इकाई जिन गांवों अथवा स्‍लम को गोद लेती है वहां जाकर यह छात्र अपनी गतिविधियों को पूरा करते हैं। ·विशेष शिविर कार्यक्रम- प्रत्‍येक एनएसएस इकाई जिन गांवों और शहरी स्‍लम बस्तियों को गोद लेती है वहां के स्‍थानीय समुदायों को शामिल करके कुछ विशेष परियोजनाओं के लिए सात दिन का विशेष शिविर आयोजित करती है। यह शिविर छात्रों की अवकाश अवधि के दौरान भी आयोजित किया जाता है। प्रत्‍येक छात्र स्‍वयंसेवक को दो वर्ष की अवधि में कम से कम एक बार इस तरह के विशेष शिविर में हिस्‍सा लेना जरूरी है। एनएसएस के तहत गतिविधियों का ब्‍यौरा- संक्षेप में एनएसएस कार्यकर्ता सामाजिक प्रासंगिकता से जुड़े विभिन्‍न मुद्दों पर कार्य करते हैं। जिसके जरिये समुदाय की आवश्‍यकताओं की प्रतिक्रिया हासिल की जाती है। यह गतिविधियां नियमित एवं विशेष शिविर गतिविधियों के रूप में होती हैं। ऐसे विषयों में (1) साक्षरता एवं शिक्षा (2) स्‍वास्‍थ्‍य, परिवार कल्‍याण एवं पोषण (3) पर्यावरण संरक्षण (4) सामाजिक सेवा कार्यक्रम (5) महिला सशक्तिकरण कार्यक्रम (6) आर्थिक विकासात्‍मक गतिविधियों से जुडे कार्यक्रम (7) प्राकृतिक आपदाओं के दौरान राहत एवं बचाव कार्यक्रम आदि, शामिल हैं। प्रशासनिक ढांचा- एनएसएस को केंद्र एवं राज्‍यों द्वारा संयुक्‍त रूप से कार्यान्वित किया जा रहा है। केंद्रीय स्‍तर पर एनएसएस का कार्यान्‍वयन, एनएसएस संगठन के जरिये किया जाता है जो युवा मामलों के विभाग से सम्‍बद्ध कार्यालय है। राष्‍ट्रीय स्‍तर पर एनएसएस का एक कार्यक्रम सलाहकार प्रकोष्‍ठ और क्षेत्रीय स्‍तर पर 15 क्षेत्रीय कार्यालय हैं। राज्‍यों/संघ शासित प्रदेशों में राज्‍य सरकार के विभागों में से एक विभाग को एनएसएस की गतिविधियों का संचालन करने का जिम्‍मा सौंपा जाता है। इस विभाग के पास एक राज्‍य एनएसस प्रकोष्‍ठ और एनएसएस के लिए एक राज्‍य जन संपर्क अधिकारी होता है। एनएसएस की विभिन्‍न गतिविधियों के लिए केंद्र सरकार, राज्‍यों को धनराशि जारी करती है जहां से इसे अन्‍य कार्यान्‍वयन एजेंसियों को आवंटित किया जाता है। राज्‍य स्‍तर से नीचे एनएसएस का प्रशासनिक ढांचा इस प्रकार है। ·विश्‍वविद्यालय/+2 परिषद स्‍तर पर- प्रत्‍येक विश्‍वविद्यालय में एक एनएसएस प्रकोष्‍ठ और एक मनोनीत कार्यक्रम समन्‍वयक की व्‍यवस्‍था है जो विश्‍वविद्यालय एवं उससे सम्‍बद्ध कॉलेजों में एनएसएस की सभी इकाईयों में उससे जुडी गतिविधियों के समन्‍वय का कार्य करती हैं। इसी प्रकार वरिष्‍ठ माध्‍यमिक स्‍कूलों में एनएसएस प्रकोष्‍ठ, वरिष्‍ठ माध्‍यमिक शिक्षा निदेशालय में होता है। ·एनएसएस इकाई स्‍तर पर: प्रत्‍येक शिक्षण संस्‍थान में प्रत्‍येक एनएसएस प्रकोष्‍ठ का नेतृत्‍व एक शिक्षक करता है जिसे कार्यक्रम अधिकारी (पीओ) का दर्जा दिया जाता है। इसके अलावा राष्‍ट्रीय, राज्‍य, विश्‍वविद्यालय और शिक्षण संस्‍थानों के स्‍तर पर एनएसएस सलाहकार समितियां होती हैं जिनमे अधिकारी एवं गैर अधिकारी सदस्‍य होते हैं और यह एनएसएस संबंधी गतिविधियों को आवश्‍यक निर्देश प्रदान करते हैं। इनके अतिरिक्‍त कार्यक्रम अधिकारियों को प्रशिक्षण देने के लिए विभिन्‍न कॉलेजों/ विश्‍वविद्यालयों में 19 पैनल प्रशिक्षण संस्‍थान ईटीआई भी हैं। वित्‍तीय व्‍यवस्‍था- यह स्थिति इस प्रकार है ·एनएसएस के तहत प्रमुख गतिविधियों की वित्‍तीय व्‍यवस्‍था- एनएसएस की गतिविधियों के लिए प्रत्‍येक स्‍वयंसेवक को ढाई सौ रूपये प्रतिवर्ष (नियमि‍त गतिविधियों के लिए) और साढे चार सौ रूपये (दो वर्ष में एक बार) विशेष शिविर गतिविधियों के लिए प्रदान किए जाते हैं। इस प्रकार एनएसएस कार्यक्रम की कुल लागत 475 रूपये प्रति कार्यकर्ता प्रति वर्ष है (क्‍योंकि किसी विशेष वर्ष में विशेष शिविर अभियान में केवल 50 प्रतिशत कार्यकर्ताओं को ही शामिल किया जाता है)। इन गतिविधियों पर आने वाले खर्च को राज्‍य एवं संघशासित सरकारें एक निर्धारित अनुपात में वहन करती हैं। ·एनएसएस के तहत अन्‍य गतिविधियों/खर्चों के लिए धनराशि- उपरोक्‍त के अलावा एनएसएस के तहत अन्‍य घटकों पर राशि व्‍यय की जाती है जो पूरी तरह से केंद्र सरकार द्वारा वहन की जाती है। इसके तहत आने वाला खर्च इस प्रकार है।(1) एनएसएस के कार्यक्रम अधिकारियों का ईटीआई के जरिये प्रशिक्षण (2) राष्‍ट्रीय स्‍तर के कार्यक्रम जैसे स्‍वतंत्रता दिवस परेड कैंप, मेगा कैंप, जोखिम कैंप, आईजीएनएसएस अवार्ड (3) एनएसएस के एसएलओ के लिए प्रतिस्‍थापन व्‍यय (4) एनएसएस कार्यक्रम सलाहकार प्रकोष्‍ठ और एनएसएस के क्षेत्रीय केंद्रों के लिए प्रतिस्‍थापन व्‍यय। ·एनएसएस की शुरूआत 1969 में 37 विश्‍वविद्यालयों में 40,000 कार्यकर्ताओं को लेकर की गई थी। आज 336 विश्‍वविद्यालयों, 15,908 कॉलेजों/तकनीकी संस्‍थानों और 11,809 वरिष्‍ठ माध्‍यमिक स्‍कूलों में एनएसएस के लगभग 33 लाख कार्यकर्ता हैं। विश्‍व के इस सबसे बड़े छात्र स्‍वयंसेवक कार्यक्रम से अभी तक 4.25 करोड़ छात्र लाभान्वित हुए हैं। इसके अतिरिक्‍त एनएसएस ने सामूहिक साक्षरता, पर्यावरण संरक्षण, स्‍वास्‍थ्‍य शिक्षा और सामुदायिक शिक्षा के क्षेत्र में महत्‍वपूर्ण योगदान किया है। प्राकृतिक आपदाओं के समय एनएसएस कार्यकर्ताओं ने राहत एवं पुनर्वास कार्यक्रम में हमेशा अग्रणी भूमिका निभाई है।

 Seeing our scholar defending his PhD thesis during ODC was a great moment. This was the result of his hard work. Dr. Sanjay Singh, a senior...