भारत के लोगों के लाभ के लिये सूचना प्रौद्योगिकी को काम में लाने की दृष्टि से 1986 का वर्ष भारतीय रेल के नवीन प्रयासों के लिये काफी महत्वपूर्ण माना जाता है । दूरदर्शी पहल करते हुए रेल मंत्रालय ने रेल सूचना प्रणाली केन्द्र(क्रिस) नाम से एक स्वायत्तशासी संस्था का गठन किया है । क्रिस अब 24 वर्ष पुराना हो चुका है । साधारण सी शुरुआत के बाद अब यह संस्था देश के आईटी मानचित्र पर प्रमुख पहचान बना चुकी है। इसने भारतीय रेल को सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अपनी प्रधानता बनाए रखने में और इस क्षेत्र में मार्गदर्शी कार्य जारी रखने में बड़ी मदद की है ।
व्यापक प्रभाव
भारतीय रेल में आईटी प्रणाली के जरिये जितना लेन-देन किया जाता है, उसकी संख्या और परिमाण से उनकी गुणवत्ता और क्षमताओं का आभास होता है । भारतीय रेल प्रतिदिन लगभग 11000 रेलगाड़ियों का संचालन करती है, इनमें यात्री और मालगाड़ियां दोनों शामिल हैं ।
1.प्रतिदिन लगभग दस लाख यात्री अपनी बर्थ का आरक्षण यात्री आरक्षण प्रणाली के माध्यम से कराते हैं । 2.अनारक्षित टिकट प्रणाली के जरिये प्रतिदिन लगभग एक करोड़ 40 लाख यात्रियों के टिकट बेचे जाते हैं । प्रतिवर्ष इनकी संख्या में वृद्धि हो रही है ।3.क्रिस द्वारा विकसित मालभाड़ा प्रचालन सूचना प्रणाली का निरंतर विस्तार और विकास हो रहा है और माल का कारोबार करने वाले ग्राहकों को मूल्यवर्धित सेवायें प्रदान कर रही है । इस प्रणाली के तहत जो ई-भुगतान सुविधा प्रदान की जा रही है, उसके जरिये राजस्व प्राप्त होता है । वह कुल माल भाड़े का करीब 50 प्रतिशत है। माल भाड़े से प्रतिवर्ष करीब 7 खरब रूपये का राजस्व प्राप्त होता है।4.5.भारतीय रेल के सभी 67 मंडलों में कम्प्यूटरीकृत नियंत्रण कार्यालय है जो कंट्रोल आफिस ऐप्लीकेशन नियंत्रण कार्यालय अनुप्रयोग के जरिये प्रत्येक स्टेशन से गुजरने वाली हर रेलगाड़ी का आवागमन पर नजर रखता है ।6.7.क्रू (चालक दल) प्रबंधन प्रणाली का उपयोग प्रतिदिन करीब 30 हजार चालक दल के सदस्य अपने कार्य स्थान पर से आने जाने के लिये करते हैं ।8.9.एकीकृत कोचिंग (सवारी डिब्बा) प्रबंधन प्रणाली की सहायता से 40 हजार से अधिक यात्री गाड़ियों के डिब्बों का प्रबंधन किया जाता है ।6.ये आई टी अनुप्रयोग यात्रियों और माल परिवहन व्यापार की आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष रूप से पूर्ति के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं । अभी और भी ऐसे कई अन्य अनुप्रयोग शुरू होने को हैं जिनका परिसंपत्ति प्रबंधन और कार्य क्षमता में सुधार पर ज्यादा जोर रहेगा ।
नवाचारी संगठनात्मक रूपरेखा
क्रिस भारतीय रेल के स्वायत्तशासी संगठन के रूप में काम करता है । यह अपने मानव संसाधन (कर्मचारी) रेलवे के अलावा कुशल आई टी पेशेवरों के वृहद पूल से प्राप्त करता है । रेलवे की आई टी परियोजनाओं की सफलता का एक कारण इसके क्रिस जैसे विशिष्ट संगठनों द्वारा निर्मित ज्ञान की निरंतरता है । क्रिस में डोमेन ज्ञान के विशेषज्ञों और प्रौद्योगिकीय पेशेवरों का उपयोगी संगम है जो कौशल और क्षमताओं का अनूठा सम्मिश्रण तैयार करता है । इस नवाचारी संगठनात्मक रूपरेखा का परिणाम है, उपयोगकर्ता की आवश्यकताओं के प्रति अनुकूल प्रतिक्रिया जो कि आई टी परियोजनाओं के सफल क्रियान्वयन के लिये निर्णायक होती है । एक ओर उपयोगकर्ता और दूसरी ओर साफ्टवेयर तैयार करने वाले और आईटी सेवा प्रदाता के बीच तो विशेष संबंध होता है, उसी के कारण क्रिस उपभोक्ताओं की बदलती और बढ़ती अपेक्षाओं और आवश्यकताओं को पूरा कर पाती है । चूंकि डोमेन विशेषज्ञों को क्रिस में काम करने से पहले ही रेल प्रबंधन का व्यापक अनुभव रहा है, क्रिस के अनुप्रयोगों में ठहराव नहीं आ पाता । इसके अतिरिक्त बिना इस बात की चिंता किये कि बाहरी सेवा प्रदाता कभी भी संबंधों को ताला लगा सकता है, क्रिस वृहद और महत्वपूर्ण आई टी प्रणालियों की आवश्यकतानुसार उच्चस्तरीय सेवायें प्रदान करना जारी रखता है । जहां तक संगठनात्मक रूपरेखा की बात है, इसके कारण प्रधान संगठन (रेलवे) और एजेंट संगठन (क्रिस) के प्रोत्साहन एक सीध में आ जाते हैं, और नवाचार तथा उन्नति के लिये पर्याप्त गुजांइश भी बनी रहती है ।
प्रौद्योगिकी में अग्रणी
प्रारंभिक वर्षों में यानी अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध और नब्बे के दशक के पूर्वार्ध में दो प्रमुख अनुप्रयोगों पीआरएस और एफओआईएस पर जोर दिया गया था । इस उत्तरदायित्व के कारण इस संगठन में जबर्दस्त विश्वास आया और इन परियोजनाओं (जैसे कन्सर्ट सीओएनसीईआरटी के भीतर विकसित नये आरक्षण तर्क) की सफलता ने क्रिस के बारे में धारणाओं को ही बदल कर रख दिया । जैसे-जैसे आईटी के प्रभावी उपयोग की अपार संभावनाओं का खुलासा होता गया, 21वीं सदी के प्रारंभ से ही रेल उपभोक्ताओं की मांगों और अपेक्षाओं में उल्लेखनीय वृद्धि होने लगी । अकस्मात ही क्रिस के लिये अनुमोदित और निर्धारित परियोजनाओं पर अमल किया जाने लगा । इस समय तक क्रिस ने अपने पूर्व कल्पित आकार से भी आगे जाते हुए विशाल आकार ग्रहण कर लिया था । अत्याधुनिक आईटी समाधानों की खोजकर उनका विकास किया जाने लगा । मार्गदर्शी परियोजनाओं की सफलता से उन्हें देशभर में लागू करने के लिये होड़ जैसी शुरू हो गई । त्वरित क्रियान्वयन के लिये क्रिस ने इस शांत क्रांति में भाग लेने के लिये और संसाधन तथा डोमेन ज्ञान विशेषज्ञों की सेवायें लीं ।
केन्द्रीय भूमिका
रेल मंत्रालय के दूरदर्शी दृष्टिकोण के कारण एक ऐसी सुखद स्थिति बन चुकी है , जिसमें रेल परिचालन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण गतिविधियों का प्रबंधन आई टी जनित प्रणाली के जरिये होने लगा है। परन्तु, आई टी एक गतिशील क्षेत्र है । जैसे-जैसे और अधिक बुद्धिमान यंत्र समाज के सभी वर्गों में अपनी पैठ बनाते जा रहे हैं । ग्राहकों की अधिक सुविधाओं की अपेक्षायें बढ़ती जा रही हें । इसके लिये एक गतिशील और ऊर्जावान आईटी संगठन की आवश्यकता होती है जो सदैव सबसे आगे रहे और आधुनिक प्रौद्योगिकियों का उपयोग ग्राहकों की समस्याओं के समाधान में प्रभावी ढंग से कर सके । क्रिस इस भूमिका को निभाने के लिये पूरी तरह से तैयार है और रेल की कार्यप्रणाली में और अधिक बदलाव के लिये भी तैयार है । सूचना संकलन और प्राथमिक विश्लेषण कंप्यूटर की सहायता से होने लगा है। निर्णय में सहायक तत्व भी मुहैया कराए जा रहे हैं । रेलवे के लिये आज सबसे बड़ी चुनौती, ऐसी प्रणालियां विकसित करने की है जो महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं में पूर्णरूपेण बदलाव ला सकें । संपोषणीय आई टी विकास की दीर्घकालीन दृष्टि विकसित करने के लिये भारतीय रेल ओर क्रिस के पास यही उपयुक्त समय है क्योंकि रेल के कारोबार में आई टी का अनुप्रयोग बहुत महत्वपूर्ण हो गया है और वह उसके बारे में काफी गंभीर है । आज, क्रिस आईटी जनित संगठनात्मक परिवर्तन के साथ-साथ भारतीय रेल के ग्राहकों को त्वरित और अधिक सुविधापूर्ण सेवायें प्रदान करने हेतु आईटी के उपयोग की दहलीज पर खड़ा है । इन लक्ष्यों ने क्रिस को भारतीय रेल के लिये उच्च कोटि की सूचना प्रणाली के सृजन और प्रबंधन के प्रयासों को मूर्त रूप देने के अपने इरादों को और मजबूती प्रदान की है ।
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रविवार, 23 जनवरी 2011
बुधवार, 22 दिसंबर 2010
उड़िया फिल्म निर्माण के 75 वर्ष : पृष्ठभूमि पर एक नजर
28 अप्रैल, 1936 को मोहन सुंदर देब गोस्वामी द्वारा प्रथम बोलती उड़िया फिल्म सीता बिबाह का प्रदर्शन दीर्घकालीन फिल्म आन्दोलन की दिशा में एक विशेष क्षण था और इसने स्थानीय पहचान की अभिव्यक्ति को एक नया आयाम दिया। लंबे समय के संघर्ष के बाद, इसी वर्ष 1 अप्रैल को भाषा विज्ञान के क्षेत्र में एक राष्ट्रीय विचारधारा के गठन से ठीक पहले यह महत्वपूर्ण कार्य हुआ। भारतीय राजतंत्र में बाद के वर्षों में देश के भाषा विषयक राज्यों के लिए यह एक अग्रदूत थी।
ऐतिहासिक 1 अप्रैल से सिर्फ एक सप्ताह पूर्व, सीता बिबाह का 12 रीलों वाला प्रथम प्रिंट पहले से 25 मार्च को तैयार हो चुका था और 29 मार्च को कोलकाता के भ्रमणकारी सिनेमा में दिखाया गया। हालांकि, फिल्म मात्र 29,781 रूपए और 10 आना के छोटे-से बजट में ही तैयार हुई थी और औपचारिक रूप से 28 अप्रैल को ओडीशा के पुरी में लक्ष्मीटाकी में प्रदर्शित की गई।
आज जब हम फिल्म निर्माण के पिछले 75 वर्षों को देखते हैं तो बहुत सी चींजें धुंधली हो सकती हैं पर फिर भी यह एक विशिष्ट उड़िया पहचान का स्पष्ट प्रभाव देती हैं।
व्यापक रूप में, उड़िया फिल्म निर्माण से जुड़े वर्षों को 25 वर्षों के तीन बराबर चरणों में विभाजित किया जा सकता है-पहला चरण संघर्ष और विकास का था, द्वितीय स्वर्णिम समय रहा और तृतीय एक भरपूर निर्माण के साथ गुणवत्तापूर्ण मानकों और सौन्दर्यपरकता से भी समझौते का समय था।
दूसरी उड़िया फिल्म ललिता 1949 में बनी और इसके बाद 1960 के दशक की शुरूआत तक करीब 1 दर्जन फिल्में बनाई गईं। यदि हम पिछले एक वर्ष में फिल्म निर्माण पर गुणात्मक दृष्टि डालते हैं तो अंतिम चरण में पिछले वर्षों में फिल्म निर्माण की संख्या एकल अंक से बढ़कर दो अंकों में पहुंच गई है।
पिछले ढाई दशकों में, 1960 से 1985 के बीच, मनीकजोड़ी (प्रभात मुखर्जी, 1964), अम्दाबता (अमर गांगुली, 1964), अभिनेत्री (अमर गांगुली, 1965), मालान्जन्हा;(निताई पलित, 1965), मैत्रा मनीषा (मृणाल सेन, 1966), अरूंधति (प्रफुल्ल सेनगुप्ता, 1967), काई कहारा (निताई पलित, 1968), अदिना मेघ (अमित मैत्रा, 1970), घर बहुधा, (सोना मुखर्जी, 1973), धरित्री, (निताई पलित, 1973), जाजाबारा, (त्रिमूर्ति, 1975), गापा हेले बी साता (नागेन रे, 1976), शेष श्रवण (प्रशांत नंदा, 1976), अभिमान, (साधु मेहर, 1977), चिल्का टायर (बिप्लब रॉय चौधरी, 1978), सितारती, (मनमोहन महापात्रा, 1983), माया मृग, (निरद महापात्रा, 1984) और धारे अलुआ, (सगीर अहमद, 1984) जैसी फिल्में कलापूर्ण श्रेष्ठता और व्यवसायिक रूप से परिपूर्ण थीं और इन्होंने स्वर्णिम युग कहे जाने में अपना योगदान दिया ।
अस्सी के दशक में, उड़िया सिनेमा के कलापूर्ण और सौन्दर्यपरक विषयों ने अपने आप को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में ढाल लिया। 1984 में, निरद महापात्रा की फिल्म माया मृग राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने वाली फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ रही और विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में भी इसे आधारिक तौर पर शामिल किया गया। हालांकि राष्ट्रीय पहचान पाने में इसे एक और दशक लगा। 1994 में, सुसान्त मिश्रा की इन्द्रधर्नुर छाई पर राष्ट्रीय स्तर पर जूरी का विशेष ध्यान गया और कान फिल्म महोत्सव के अन-सरटेन रिगार्ड सैक्शन में यह प्रतिस्पर्धात्मक दौर में रही। फिर इसे रूस के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव एसओसीएचआई में ग्रैंड प्रिक्स हासिल हुआ।
फिर से करीब 15 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद, प्रशांत नंदा की जिंन्ता भूटा ने 2009 में पिछले वर्ष पर्यावरण श्रेणी में राष्ट्रीय पुरस्कार जीता। इस प्रकार से राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय स्तरों पर उड़िया फिल्म की स्थिति का मूल्यांकन हुआ। हालांकि उड़िया फिल्में लगभग निरंतर हर वर्ष सर्वश्रेष्ठ क्षेत्रीय श्रेणी में राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुकी हैं। उनके निर्देशक जैसे मनमोहन महापात्रा, सगीर अहमद, ए.के. बिर, शांतनु मिश्रा, प्रणब दास, हिमांशु खतुआ और सुबास दास विशेष श्रेणी में आते हैं।
राष्ट्रीय संदर्भ में उपस्थिति दर्ज कराने के लिए भारतीय पैनोरमा में कदम रखना एक मील का पत्थर है। मनमोहन महापात्रा की सितारती पहली बार 1983 में भारतीय पैनोरमा में शामिल हुई और वर्तमान वर्ष में, सुधांशु साहू की स्वयंसिध्दा; ए गर्ल ऑन द रैड कॉरीडोर को इसमें 12वां स्थान मिला। निरद महापात्रा, सगीर अहमद,, बिप्लब रॉय चौधरी, सुसान्त मिश्रा, बिजय केतन मिश्रा और प्रफुल्ल मोहन्ती जैसे अन्य निर्देशकों ने सिनेमा को उच्च आयाम तक पहुंचा दिया।
जब 1970 के मध्य दशक के दौरान फिल्म देखने के मामले में बहुत रूझान नहीं था ऐसे में प्रशांत नंदा की शेष श्रवण, 1976, और साधु मेहर की अभिमान, 1977 लोगों को वापस सिनेमा हॉल की तरफ लेकर आईं। गीत और संगीत भी उड़िया सिनेमा में एक महत्वपूर्ण उपस्थिति रखता है। पहली फिल्म सीता बिबाह में कुल 14 गाने थे सभी को क्षेत्रीय लोकगायन अंदाज में पारंपरिक संगीत साजों के साथ कलाकारों द्वारा गाया गया था। हालांकि ललिता में, पार्श्वगायकी की पहल संगीतकार गौरी गोस्वामी और सुरेन पाल के निर्देशन में की गई थी और गीत खासतौर पर कबिचंद्रा कालीचरण पाठक द्वारा लिखे गये थे। 1950 में बनी तीसरी फिल्म श्री जगन्नाथ में रंजीत रॉय और बालकृष्ण दास के संयुक्त संगीत निर्देशन में चार पार्श्वगायक थे। 1959 में अक्षय मोहन्ती ने भुवनेश्वर मिश्र के संगीत निर्देशन के साथ पार्श्वगायक के तौर पर मां फिल्म बनाई। एक अन्य पार्श्वगायक सिकन्दर आलम ने 1963 में बालकृष्ण दास के संगीत निर्देशन में सूर्यमुखी बनाई। नारायण प्रसाद सिंह और देबदास छोटरे ने गीतकारों के साथ-साथ 1962 में नुआबाउ और 1967 में का के साथ अपनी शानदार उपस्थिति दर्ज कराई। इस समय तक गीत और संगीत पूरी तरह से पारंपरिक और देसी रागों पर आधारित था।
पश्चिमी संगीत से प्रभावित होकर, शांतनु महापात्रा ने 1963 में सूर्यमुखी में एक आधुनिक रूख को प्रस्तुत किया जबकि अक्षय मोहन्ती ने 1965 में मालाजन्हा में संगीत निर्देशक के तौर पर कदम रखा। प्रफुल्ल कर 1975 में बनी ममता में पहली बार संगीतकार के रूप में सामने आये। जबकि बालकृष्ण दास उड़िया लोकसंगीत गायकी और बोली के साथ प्रयोग कर रहे थे, भुवनेश्वर मिश्र, शांतनु महापात्रा और अक्षय मोहन्ती ने उड़िया पारंपरिक धुन को पश्चिमी धुनों से जोड़ा। उन्होंने उड़िया फिल्म गीतों में आधुनिक गायकी को बढ़ावा दिया।
प्रफुल्ल सेनगुप्ता की 1967 में बनी अरूंधती, उड़िया फिल्म परंपरा में एक मील का पत्थर बनी क्योंकि इसमें संगीतकार शांतनु महापात्रा के निर्देशन में गीतकार जीबननंदा के गीतों को मौ. रफी और लता मंगेशकर ने अपनी आवाज के जादू से अमर कर दिया।
मलय मिश्र और बिकास दास जैसे संगीतकारों के हाथों में उड़िया फिल्मों का भविष्य उज्ज्वल नजर आता है क्योंकि वे नेईजारे मेघ माटे और अजि आकाशे की रंग लगिला में हिट संगीत देकर अपनी योग्यता को सिध्द कर चुके हैं।
जहां एक तरफ शुरूआती दौर में, विषयपरक कहानियों की पंक्तियां पौराणिक कथाओं पर आधारित होती थीं वहीं 1953 की अमारी गान जुहा और 1956 की भाई-भाई के बाद से यह समाजिक संदर्भो से जुड़ें विषयों की तरफ मुड़ गईं। 1960 के दशक के दौरान, मनिकाजोडी, अमदा बता, अभिनेत्री, मालाजन्हा, मैत्रा मनीषा और अदिना मेघा काफी लोकप्रिय लेखन पर आधारित थीं। 1960 और 1970 दोनों दशकों में, महिलाएं ही उड़िया सिनेमा में अपनी व्यथा, प्रसन्नता, भावनाओं और बॉक्स ऑफिस के रैंक पर आधारित बाहरी और आंतरिक मूल्यांकनों में मुख्य भूमिका में रहीं।
पिछले 75 वर्षों में समृध्द उड़िया फिल्म इतिहास और अपने हरफनमोला व्यक्तित्वों के साथ विचारणीय विषयों और स्टाईलिश परिवर्तनों से गुजर चुका है। इससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे ओडीशा देश में एक प्रमुख फिल्म निर्माण केन्द्र के रूप में विकसित हो चुका है।
ऐतिहासिक 1 अप्रैल से सिर्फ एक सप्ताह पूर्व, सीता बिबाह का 12 रीलों वाला प्रथम प्रिंट पहले से 25 मार्च को तैयार हो चुका था और 29 मार्च को कोलकाता के भ्रमणकारी सिनेमा में दिखाया गया। हालांकि, फिल्म मात्र 29,781 रूपए और 10 आना के छोटे-से बजट में ही तैयार हुई थी और औपचारिक रूप से 28 अप्रैल को ओडीशा के पुरी में लक्ष्मीटाकी में प्रदर्शित की गई।
आज जब हम फिल्म निर्माण के पिछले 75 वर्षों को देखते हैं तो बहुत सी चींजें धुंधली हो सकती हैं पर फिर भी यह एक विशिष्ट उड़िया पहचान का स्पष्ट प्रभाव देती हैं।
व्यापक रूप में, उड़िया फिल्म निर्माण से जुड़े वर्षों को 25 वर्षों के तीन बराबर चरणों में विभाजित किया जा सकता है-पहला चरण संघर्ष और विकास का था, द्वितीय स्वर्णिम समय रहा और तृतीय एक भरपूर निर्माण के साथ गुणवत्तापूर्ण मानकों और सौन्दर्यपरकता से भी समझौते का समय था।
दूसरी उड़िया फिल्म ललिता 1949 में बनी और इसके बाद 1960 के दशक की शुरूआत तक करीब 1 दर्जन फिल्में बनाई गईं। यदि हम पिछले एक वर्ष में फिल्म निर्माण पर गुणात्मक दृष्टि डालते हैं तो अंतिम चरण में पिछले वर्षों में फिल्म निर्माण की संख्या एकल अंक से बढ़कर दो अंकों में पहुंच गई है।
पिछले ढाई दशकों में, 1960 से 1985 के बीच, मनीकजोड़ी (प्रभात मुखर्जी, 1964), अम्दाबता (अमर गांगुली, 1964), अभिनेत्री (अमर गांगुली, 1965), मालान्जन्हा;(निताई पलित, 1965), मैत्रा मनीषा (मृणाल सेन, 1966), अरूंधति (प्रफुल्ल सेनगुप्ता, 1967), काई कहारा (निताई पलित, 1968), अदिना मेघ (अमित मैत्रा, 1970), घर बहुधा, (सोना मुखर्जी, 1973), धरित्री, (निताई पलित, 1973), जाजाबारा, (त्रिमूर्ति, 1975), गापा हेले बी साता (नागेन रे, 1976), शेष श्रवण (प्रशांत नंदा, 1976), अभिमान, (साधु मेहर, 1977), चिल्का टायर (बिप्लब रॉय चौधरी, 1978), सितारती, (मनमोहन महापात्रा, 1983), माया मृग, (निरद महापात्रा, 1984) और धारे अलुआ, (सगीर अहमद, 1984) जैसी फिल्में कलापूर्ण श्रेष्ठता और व्यवसायिक रूप से परिपूर्ण थीं और इन्होंने स्वर्णिम युग कहे जाने में अपना योगदान दिया ।
अस्सी के दशक में, उड़िया सिनेमा के कलापूर्ण और सौन्दर्यपरक विषयों ने अपने आप को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में ढाल लिया। 1984 में, निरद महापात्रा की फिल्म माया मृग राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने वाली फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ रही और विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में भी इसे आधारिक तौर पर शामिल किया गया। हालांकि राष्ट्रीय पहचान पाने में इसे एक और दशक लगा। 1994 में, सुसान्त मिश्रा की इन्द्रधर्नुर छाई पर राष्ट्रीय स्तर पर जूरी का विशेष ध्यान गया और कान फिल्म महोत्सव के अन-सरटेन रिगार्ड सैक्शन में यह प्रतिस्पर्धात्मक दौर में रही। फिर इसे रूस के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव एसओसीएचआई में ग्रैंड प्रिक्स हासिल हुआ।
फिर से करीब 15 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद, प्रशांत नंदा की जिंन्ता भूटा ने 2009 में पिछले वर्ष पर्यावरण श्रेणी में राष्ट्रीय पुरस्कार जीता। इस प्रकार से राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय स्तरों पर उड़िया फिल्म की स्थिति का मूल्यांकन हुआ। हालांकि उड़िया फिल्में लगभग निरंतर हर वर्ष सर्वश्रेष्ठ क्षेत्रीय श्रेणी में राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुकी हैं। उनके निर्देशक जैसे मनमोहन महापात्रा, सगीर अहमद, ए.के. बिर, शांतनु मिश्रा, प्रणब दास, हिमांशु खतुआ और सुबास दास विशेष श्रेणी में आते हैं।
राष्ट्रीय संदर्भ में उपस्थिति दर्ज कराने के लिए भारतीय पैनोरमा में कदम रखना एक मील का पत्थर है। मनमोहन महापात्रा की सितारती पहली बार 1983 में भारतीय पैनोरमा में शामिल हुई और वर्तमान वर्ष में, सुधांशु साहू की स्वयंसिध्दा; ए गर्ल ऑन द रैड कॉरीडोर को इसमें 12वां स्थान मिला। निरद महापात्रा, सगीर अहमद,, बिप्लब रॉय चौधरी, सुसान्त मिश्रा, बिजय केतन मिश्रा और प्रफुल्ल मोहन्ती जैसे अन्य निर्देशकों ने सिनेमा को उच्च आयाम तक पहुंचा दिया।
जब 1970 के मध्य दशक के दौरान फिल्म देखने के मामले में बहुत रूझान नहीं था ऐसे में प्रशांत नंदा की शेष श्रवण, 1976, और साधु मेहर की अभिमान, 1977 लोगों को वापस सिनेमा हॉल की तरफ लेकर आईं। गीत और संगीत भी उड़िया सिनेमा में एक महत्वपूर्ण उपस्थिति रखता है। पहली फिल्म सीता बिबाह में कुल 14 गाने थे सभी को क्षेत्रीय लोकगायन अंदाज में पारंपरिक संगीत साजों के साथ कलाकारों द्वारा गाया गया था। हालांकि ललिता में, पार्श्वगायकी की पहल संगीतकार गौरी गोस्वामी और सुरेन पाल के निर्देशन में की गई थी और गीत खासतौर पर कबिचंद्रा कालीचरण पाठक द्वारा लिखे गये थे। 1950 में बनी तीसरी फिल्म श्री जगन्नाथ में रंजीत रॉय और बालकृष्ण दास के संयुक्त संगीत निर्देशन में चार पार्श्वगायक थे। 1959 में अक्षय मोहन्ती ने भुवनेश्वर मिश्र के संगीत निर्देशन के साथ पार्श्वगायक के तौर पर मां फिल्म बनाई। एक अन्य पार्श्वगायक सिकन्दर आलम ने 1963 में बालकृष्ण दास के संगीत निर्देशन में सूर्यमुखी बनाई। नारायण प्रसाद सिंह और देबदास छोटरे ने गीतकारों के साथ-साथ 1962 में नुआबाउ और 1967 में का के साथ अपनी शानदार उपस्थिति दर्ज कराई। इस समय तक गीत और संगीत पूरी तरह से पारंपरिक और देसी रागों पर आधारित था।
पश्चिमी संगीत से प्रभावित होकर, शांतनु महापात्रा ने 1963 में सूर्यमुखी में एक आधुनिक रूख को प्रस्तुत किया जबकि अक्षय मोहन्ती ने 1965 में मालाजन्हा में संगीत निर्देशक के तौर पर कदम रखा। प्रफुल्ल कर 1975 में बनी ममता में पहली बार संगीतकार के रूप में सामने आये। जबकि बालकृष्ण दास उड़िया लोकसंगीत गायकी और बोली के साथ प्रयोग कर रहे थे, भुवनेश्वर मिश्र, शांतनु महापात्रा और अक्षय मोहन्ती ने उड़िया पारंपरिक धुन को पश्चिमी धुनों से जोड़ा। उन्होंने उड़िया फिल्म गीतों में आधुनिक गायकी को बढ़ावा दिया।
प्रफुल्ल सेनगुप्ता की 1967 में बनी अरूंधती, उड़िया फिल्म परंपरा में एक मील का पत्थर बनी क्योंकि इसमें संगीतकार शांतनु महापात्रा के निर्देशन में गीतकार जीबननंदा के गीतों को मौ. रफी और लता मंगेशकर ने अपनी आवाज के जादू से अमर कर दिया।
मलय मिश्र और बिकास दास जैसे संगीतकारों के हाथों में उड़िया फिल्मों का भविष्य उज्ज्वल नजर आता है क्योंकि वे नेईजारे मेघ माटे और अजि आकाशे की रंग लगिला में हिट संगीत देकर अपनी योग्यता को सिध्द कर चुके हैं।
जहां एक तरफ शुरूआती दौर में, विषयपरक कहानियों की पंक्तियां पौराणिक कथाओं पर आधारित होती थीं वहीं 1953 की अमारी गान जुहा और 1956 की भाई-भाई के बाद से यह समाजिक संदर्भो से जुड़ें विषयों की तरफ मुड़ गईं। 1960 के दशक के दौरान, मनिकाजोडी, अमदा बता, अभिनेत्री, मालाजन्हा, मैत्रा मनीषा और अदिना मेघा काफी लोकप्रिय लेखन पर आधारित थीं। 1960 और 1970 दोनों दशकों में, महिलाएं ही उड़िया सिनेमा में अपनी व्यथा, प्रसन्नता, भावनाओं और बॉक्स ऑफिस के रैंक पर आधारित बाहरी और आंतरिक मूल्यांकनों में मुख्य भूमिका में रहीं।
पिछले 75 वर्षों में समृध्द उड़िया फिल्म इतिहास और अपने हरफनमोला व्यक्तित्वों के साथ विचारणीय विषयों और स्टाईलिश परिवर्तनों से गुजर चुका है। इससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे ओडीशा देश में एक प्रमुख फिल्म निर्माण केन्द्र के रूप में विकसित हो चुका है।
पर्यावरणीय प्रभाव का मूल्यांकन
राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2006 पर्यावरण सुरक्षा को विकास प्रक्रिया के अभिन्न अंग और सभी विकास गतिविधियों में पर्यावरणीय प्राथमिकता के रूप में पहचान प्रदान करती है। इस नीति का मुख्य ध्येयवाक्य है कि पर्यावारणीय संसाधनों का संरक्षण जीविका, सुरक्षा और सभी के कल्याण के लिए जरूरी है। इसके साथ ही संरक्षण के लिए मुख्य आधार यह होना चाहिए कि किन्हीं खास संसाधनों पर आश्रित लोग संसाधनों के क्षरण से नहीं बल्कि उसके संरक्षण से अपनी जीविका चलाएं। यह नीति विभिन्न हितधारकों को अपने संबंधित संसाधन का दोहन करने और पर्यावरण प्रबंधन का जरूरी कौशल हासिल करने के लिए उनके बीच साझेदारी को बढावा देती है।
पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन अधिसूचना, 2006 के तहत विकास परियोजनाओं, गतिविधियों, प्रक्रियाओं आदि के लिए पूर्व पर्यावरणीय अनापत्ति प्रमाण पत्र हासिल करना आवश्यक है।
विधायी ढांचा
पर्यावरण संरक्षण के लिए मौजूदा विधायी ढांचा मुख्य रूप से पर्यावरण संरक्षण अधिनियम,1986 , जल (प्रदूषण की रोकथाम एवं नियंत्रण) अधिनियम,1974 , जल प्रभार अधिनियम, 1977 और वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 में सन्निहित है। वन और जैव विविधता के प्रबंधन से संबंधित विनियम भारतीय वन अधिनियम, 1927, वन संरक्षण अधिनियम, 1980 ,वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम,1972, और जैवविविधता अधिनियम, 2002 में निहित हैं। इसके अलावा भी कई और नियम हैं जो इन मूल अधिनियमों के पूरक हैं।
तकनीकी कौशल एवं निगरानी अवसंरचना के अभाव और पर्यावरणीय नियमों को लागू करने वाले संस्थानों में प्रशिक्षित कर्मचारियों की कमी के कारण ये नियम पूरी तरह लागू नहीं हो पा रहे हैं। इसके अलावा सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले स्थानीय समुदाय की भी नियमों के अनुपालन की निगरानी में पर्याप्त भागीदारी नहीं होती है। निगरानी अवसंरचना में संस्थागत सार्वजनिक निजी साझेदारी का भी अभाव है।
पंचायती राज संस्थानों और शहरी निकायों को पर्यावरण प्रबंधन योजनाओं की निगरानी के योग्य बनाने के लिए कौशल विकास कार्यक्रम चलाए गए तथा कई और कदम भी उठाए गए। इसके साथ ही नगरपालिकाओं को पर्यावरण के मोर्चे पर अपने कार्य की रिपोर्ट पेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। मजबूत निगरानी अवसंरचना खड़ी करने के लिए व्यवहारिक सार्वजनिक निजी साझेदारी पर पर्याप्त बल दिया जाएगा।
अधिसूचना, 2006
पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए) अधिसूचना, 2006 देश के विभिन्न हिस्सों में विकास परियोजनाओं और उनकी विस्तारआधुनिकीरण गतिविधियों को विनियमित करती है। इसके तहत अधिसूचना की अनुसूची में दर्ज परियोजनाओं के लिए पूर्व अनापत्ति ग्रहण करना अनिवार्य है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम, 1986 के उप अनुच्छेद (1) तथा अनुच्छेद 3 के उप अनुच्छेद(2) के तहत प्राप्त अधिकारों के अंतर्गत ईआईए अधिसचूना जारी की है।
इआईए अधिसूचना, 2006 के प्रावधानों के तहत परियोजना के लिए निर्माण कार्य शुरू या जमीन को तैयार करने से पहले अनापत्ति प्रमाण पत्र हासिल करना जरूरी है। केवल भूमि अधिग्रहण इसका अपवाद है।
चरण
ईआईए अधिसूचना, 2006 के तहत पर्यावरणीय अनापत्ति के चार चरण हैं-जांच, कार्यक्षेत्र, जन परामर्श और मूल्यांकन।
परियोजनाएं
जिन परियोजनाओं के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र आवश्यक हैं उनमें पनबिजली परियोजनाएं, तापविद्युत परियोजनाएं, परमाणु बिजली परियोजनाएं, कोयला और गैर कोयला उत्पादों से संबंधित खनन परियोजनाएं, हवाई अडडे, राजमार्ग, बंदरगाह, सीमेंट, पल्प एंड पेपर, धातुकर्म आदि जैसी औद्योगिक परियोजनाएं शामिल हैं।
केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ए श्रेणी की परियोजनाओं के लिए विनियामक प्राधिकरण है जबकि राज्य एवं संघशासित स्तरीय पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन प्राधिकरण अपने अपने राज्यों और संघशासित क्षेत्रों की बी श्रेणी की परियोजनाओं के लिए विनियामक प्राधिकरण हैं। अबतक 23 राज्यों के लिए 22 राज्यसंघशासित पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन प्राधिकरण अधिसूचित किए गए हैं। उनमें पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मेघालय, कर्नाटक, पंजाब, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, राजस्थान और दमन एवं दीव शामिल हैं।
विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति (ईएसी)
ईएसी बहुविषयक क्षेत्रीय समितियां होती हैं जिसमें विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ होते हैं। इनका गठन क्षेत्र विशेष की परियोजनाओं के मूल्यांकन के लिए ईआईए अधिसूचना, 2006 के तहत किया जाता है। ये अपनी सिफारिशें देती हैं।
शीघ्र फैसले के लिए कदम
ईआईए अधिसूचना, 2006 जारी होने के बाद पर्यावरणीय मूल्यांकन के लिए परियोजनाओं की बाढ अा गयी। शीघ्र निर्णय के लिए कई कदम उठाए गए जिनमें लंबित परियोजनाओं की स्थिति की सतत निगरानी, अधिकाधिक परियोजनाओं पर विचार के लिए विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति की लंबी बैठकें, प्रक्रिया को सुसंगत बनाना तथा परियोजना स्थिति को आम लोगों के लिए उसे वेबसाइट पर डालना आदि शामिल हैं।
ईसी के लिए समय सीमा
ईआईए अधिसूचना, 2009 पर्यावरणीय अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी करने के लिए 105 दिनों की समय सीमा तय करती है जिनमें से 65 दिन ईएसी द्वारा मूल्यांकन के लिए तथा 45 दिन जरूरी प्रक्रिया एवं फैसले से अवगत कराने के लिए होते हैं।
2006 की ईआईए अधिसूचना में दिसंबर, 2009 में संशोधन किया गया था ताकि प्रक्रिया को और आसान एवं सुसंगत बनाया जा सके।
पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन अधिसूचना, 2006 के तहत विकास परियोजनाओं, गतिविधियों, प्रक्रियाओं आदि के लिए पूर्व पर्यावरणीय अनापत्ति प्रमाण पत्र हासिल करना आवश्यक है।
विधायी ढांचा
पर्यावरण संरक्षण के लिए मौजूदा विधायी ढांचा मुख्य रूप से पर्यावरण संरक्षण अधिनियम,1986 , जल (प्रदूषण की रोकथाम एवं नियंत्रण) अधिनियम,1974 , जल प्रभार अधिनियम, 1977 और वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 में सन्निहित है। वन और जैव विविधता के प्रबंधन से संबंधित विनियम भारतीय वन अधिनियम, 1927, वन संरक्षण अधिनियम, 1980 ,वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम,1972, और जैवविविधता अधिनियम, 2002 में निहित हैं। इसके अलावा भी कई और नियम हैं जो इन मूल अधिनियमों के पूरक हैं।
तकनीकी कौशल एवं निगरानी अवसंरचना के अभाव और पर्यावरणीय नियमों को लागू करने वाले संस्थानों में प्रशिक्षित कर्मचारियों की कमी के कारण ये नियम पूरी तरह लागू नहीं हो पा रहे हैं। इसके अलावा सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले स्थानीय समुदाय की भी नियमों के अनुपालन की निगरानी में पर्याप्त भागीदारी नहीं होती है। निगरानी अवसंरचना में संस्थागत सार्वजनिक निजी साझेदारी का भी अभाव है।
पंचायती राज संस्थानों और शहरी निकायों को पर्यावरण प्रबंधन योजनाओं की निगरानी के योग्य बनाने के लिए कौशल विकास कार्यक्रम चलाए गए तथा कई और कदम भी उठाए गए। इसके साथ ही नगरपालिकाओं को पर्यावरण के मोर्चे पर अपने कार्य की रिपोर्ट पेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। मजबूत निगरानी अवसंरचना खड़ी करने के लिए व्यवहारिक सार्वजनिक निजी साझेदारी पर पर्याप्त बल दिया जाएगा।
अधिसूचना, 2006
पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए) अधिसूचना, 2006 देश के विभिन्न हिस्सों में विकास परियोजनाओं और उनकी विस्तारआधुनिकीरण गतिविधियों को विनियमित करती है। इसके तहत अधिसूचना की अनुसूची में दर्ज परियोजनाओं के लिए पूर्व अनापत्ति ग्रहण करना अनिवार्य है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम, 1986 के उप अनुच्छेद (1) तथा अनुच्छेद 3 के उप अनुच्छेद(2) के तहत प्राप्त अधिकारों के अंतर्गत ईआईए अधिसचूना जारी की है।
इआईए अधिसूचना, 2006 के प्रावधानों के तहत परियोजना के लिए निर्माण कार्य शुरू या जमीन को तैयार करने से पहले अनापत्ति प्रमाण पत्र हासिल करना जरूरी है। केवल भूमि अधिग्रहण इसका अपवाद है।
चरण
ईआईए अधिसूचना, 2006 के तहत पर्यावरणीय अनापत्ति के चार चरण हैं-जांच, कार्यक्षेत्र, जन परामर्श और मूल्यांकन।
परियोजनाएं
जिन परियोजनाओं के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र आवश्यक हैं उनमें पनबिजली परियोजनाएं, तापविद्युत परियोजनाएं, परमाणु बिजली परियोजनाएं, कोयला और गैर कोयला उत्पादों से संबंधित खनन परियोजनाएं, हवाई अडडे, राजमार्ग, बंदरगाह, सीमेंट, पल्प एंड पेपर, धातुकर्म आदि जैसी औद्योगिक परियोजनाएं शामिल हैं।
केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ए श्रेणी की परियोजनाओं के लिए विनियामक प्राधिकरण है जबकि राज्य एवं संघशासित स्तरीय पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन प्राधिकरण अपने अपने राज्यों और संघशासित क्षेत्रों की बी श्रेणी की परियोजनाओं के लिए विनियामक प्राधिकरण हैं। अबतक 23 राज्यों के लिए 22 राज्यसंघशासित पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन प्राधिकरण अधिसूचित किए गए हैं। उनमें पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मेघालय, कर्नाटक, पंजाब, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, राजस्थान और दमन एवं दीव शामिल हैं।
विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति (ईएसी)
ईएसी बहुविषयक क्षेत्रीय समितियां होती हैं जिसमें विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ होते हैं। इनका गठन क्षेत्र विशेष की परियोजनाओं के मूल्यांकन के लिए ईआईए अधिसूचना, 2006 के तहत किया जाता है। ये अपनी सिफारिशें देती हैं।
शीघ्र फैसले के लिए कदम
ईआईए अधिसूचना, 2006 जारी होने के बाद पर्यावरणीय मूल्यांकन के लिए परियोजनाओं की बाढ अा गयी। शीघ्र निर्णय के लिए कई कदम उठाए गए जिनमें लंबित परियोजनाओं की स्थिति की सतत निगरानी, अधिकाधिक परियोजनाओं पर विचार के लिए विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति की लंबी बैठकें, प्रक्रिया को सुसंगत बनाना तथा परियोजना स्थिति को आम लोगों के लिए उसे वेबसाइट पर डालना आदि शामिल हैं।
ईसी के लिए समय सीमा
ईआईए अधिसूचना, 2009 पर्यावरणीय अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी करने के लिए 105 दिनों की समय सीमा तय करती है जिनमें से 65 दिन ईएसी द्वारा मूल्यांकन के लिए तथा 45 दिन जरूरी प्रक्रिया एवं फैसले से अवगत कराने के लिए होते हैं।
2006 की ईआईए अधिसूचना में दिसंबर, 2009 में संशोधन किया गया था ताकि प्रक्रिया को और आसान एवं सुसंगत बनाया जा सके।
नीलगिरि का जनजातीय हस्तशिल्प
नीलगिरि अथवा ब्ल्यू माउंटेन का नाम जितना काव्यात्मक है, वह एक स्थान के रूप में भी वैसा ही है । तमिलनाडु के नीलगिरि जिले में टोडा, कोटा, कुरूम्बा, इरूला, पनियान और कट्टूनइक्कन जनजातियां रहती हैं । भारत सरकार ने इन छ: जनजातियों की प्राथमिक जनजातीय समूहों के रूप में पहचान की है । युगों-युगों से नीले पहाड़ों के जंगल उनके घर रहे हैं । सुंदर परिवेश में रहने के कारण ही वे उतने ही सुंदर हस्तशिल्पों के रचनाकार बने ।
इन छ: समूहों में टोडा जनजाति के लोग कसीदा संबंधी अपने कार्यों के लिए मशहूर हैं । टोडा जनजाति की महिलाएं कसीदाकारी में दक्ष होती हैं । उनका पारंपरिक परिधान मोटे -उजले सूती कपड़े से बना होता है और उस पर लाल, काली अथवा नीली पट्टी लगी होती है, जिस पर हाथ से कसीदा किया जाता है । कसीदाकारी में ऊनी अथवा सूती धागे का इस्तेमाल किया जाता है । आधुनिक आवश्यकताओं के अनुसार सेल फोन की थैली, टेबल क्लाथ, स्कार्फ और शॉल, स्कर्ट और टॉप, पर्स और बैग, फ्रॉक आदि भी बनाए जाते हैं । अम्बेडकर हस्तशिल्प विकास योजना के अधीन यह संभव हो पाया है । कई महिला स्व-सहायता समूह बनाए गए हैं, जिन्हें मिलाकर एक संघ बना दिया गया है । हालांकि टोडा जनजाति के लोग भैंसों का झुंड रखते थे और दूध के उत्पादों का व्यापार करते थे, किंतु कालांतर में भूमि के इस्तेमाल में आए बदलावों के कारण वे इससे वंचित हो गए । हालांकि उनका बेजोड़ हस्तशिल्प का आस्तित्व समय के साथ कायम रहा ।
कोटा जनजाति के लोग सात बस्तियों में रहते है जिन्हें आमतौर पर कोटागिरी या कोकल कहा जाता है । गांव के ये शिल्पकार बढ़ईगिरी, लुहार और मिट्टी के बर्तन बनाने का काम अच्छी तरह कर लेते हैं । समय बदलने के साथ सिर्फ कुछ ही परिवार ऐसे हैं जो इन कौशलों पर निर्भर हैं। ये पट्टा भूमि के छोटे टुकड़ों पर खेती करके अपना जीवन बसर करते हैं ।
कुरुम्बा जनजाति के लोग बांस की टोकरियां बनाने तथा बांस से संबंधित अन्य कार्यों में निपुण हैं । कुरूम्बा जनजाति के लोगों का पारंपरिक कार्य, शहद और वनों में उत्पन्न अन्य चीजों को एकत्र करना है । ये जड़ी-बूटियों से औषधियां बनाने और पारंपरिक चीजों से उपचार करने में भी माहिर हैं । अब ये ज्यादातर खेती बाड़ी ही करते हैं और जिनके पास अपनी भूमि नहीं है वो यदा-कदा कृषि मजदूर की तरह काम करते हैं।
अन्य तीन समूह – इरूला, पनियान और कट्टूनइक्कन की दस्तकारी में कोई पारंपरिक विरासत नहीं है । ये आमतौर पर खाद्य पदार्थों या वन में उत्पन्न चीजों को एकत्रित करते हैं । अब ये कृषि क्षेत्र में अस्थायी मजदूरों के रूप में कार्य कर रहे हैं ।
2001 की गणना के अनुसार तमिलनाडु में कुल लगभग 651321 आदिवासी हैं जो कि कुल जनसंख्या का 1.02 प्रतिशत हैं । तमिलनाडु में 36 जनजातियां और उपजातियां हैं। लगभग हर जिले में इनकी उपस्थिति है और वन प्रबंध में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।
इन समूहों में साक्षरता की दर 27.9 प्रतिशत है । राज्य में ज्यादातर जनजातियां जीविका के लिए खेती बाड़ी तथा कृषि मजदूर के रूप में काम करती हैं या वे अपनी आजीविका के लिए वनों पर भी निर्भर रहती हैं । सिर्फ इन 6 समूहों को ही प्राचीन जनजाति का दर्जा दिया गया है ।
इन छ: समूहों में टोडा जनजाति के लोग कसीदा संबंधी अपने कार्यों के लिए मशहूर हैं । टोडा जनजाति की महिलाएं कसीदाकारी में दक्ष होती हैं । उनका पारंपरिक परिधान मोटे -उजले सूती कपड़े से बना होता है और उस पर लाल, काली अथवा नीली पट्टी लगी होती है, जिस पर हाथ से कसीदा किया जाता है । कसीदाकारी में ऊनी अथवा सूती धागे का इस्तेमाल किया जाता है । आधुनिक आवश्यकताओं के अनुसार सेल फोन की थैली, टेबल क्लाथ, स्कार्फ और शॉल, स्कर्ट और टॉप, पर्स और बैग, फ्रॉक आदि भी बनाए जाते हैं । अम्बेडकर हस्तशिल्प विकास योजना के अधीन यह संभव हो पाया है । कई महिला स्व-सहायता समूह बनाए गए हैं, जिन्हें मिलाकर एक संघ बना दिया गया है । हालांकि टोडा जनजाति के लोग भैंसों का झुंड रखते थे और दूध के उत्पादों का व्यापार करते थे, किंतु कालांतर में भूमि के इस्तेमाल में आए बदलावों के कारण वे इससे वंचित हो गए । हालांकि उनका बेजोड़ हस्तशिल्प का आस्तित्व समय के साथ कायम रहा ।
कोटा जनजाति के लोग सात बस्तियों में रहते है जिन्हें आमतौर पर कोटागिरी या कोकल कहा जाता है । गांव के ये शिल्पकार बढ़ईगिरी, लुहार और मिट्टी के बर्तन बनाने का काम अच्छी तरह कर लेते हैं । समय बदलने के साथ सिर्फ कुछ ही परिवार ऐसे हैं जो इन कौशलों पर निर्भर हैं। ये पट्टा भूमि के छोटे टुकड़ों पर खेती करके अपना जीवन बसर करते हैं ।
कुरुम्बा जनजाति के लोग बांस की टोकरियां बनाने तथा बांस से संबंधित अन्य कार्यों में निपुण हैं । कुरूम्बा जनजाति के लोगों का पारंपरिक कार्य, शहद और वनों में उत्पन्न अन्य चीजों को एकत्र करना है । ये जड़ी-बूटियों से औषधियां बनाने और पारंपरिक चीजों से उपचार करने में भी माहिर हैं । अब ये ज्यादातर खेती बाड़ी ही करते हैं और जिनके पास अपनी भूमि नहीं है वो यदा-कदा कृषि मजदूर की तरह काम करते हैं।
अन्य तीन समूह – इरूला, पनियान और कट्टूनइक्कन की दस्तकारी में कोई पारंपरिक विरासत नहीं है । ये आमतौर पर खाद्य पदार्थों या वन में उत्पन्न चीजों को एकत्रित करते हैं । अब ये कृषि क्षेत्र में अस्थायी मजदूरों के रूप में कार्य कर रहे हैं ।
2001 की गणना के अनुसार तमिलनाडु में कुल लगभग 651321 आदिवासी हैं जो कि कुल जनसंख्या का 1.02 प्रतिशत हैं । तमिलनाडु में 36 जनजातियां और उपजातियां हैं। लगभग हर जिले में इनकी उपस्थिति है और वन प्रबंध में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।
इन समूहों में साक्षरता की दर 27.9 प्रतिशत है । राज्य में ज्यादातर जनजातियां जीविका के लिए खेती बाड़ी तथा कृषि मजदूर के रूप में काम करती हैं या वे अपनी आजीविका के लिए वनों पर भी निर्भर रहती हैं । सिर्फ इन 6 समूहों को ही प्राचीन जनजाति का दर्जा दिया गया है ।
बुधवार, 10 नवंबर 2010
पटरी पर लौट रही है अर्थव्यवस्था
हाल ही में नई दिल्ली में संपन्न आर्थिक सम्पादकों के सम्मेलन में वित्त मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी ने जो कहा, उससे यह बात साफ हो जाती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पुन: रफ्तार पकड़ रही है और ऐसा लगता है कि वह शीघ्र ही आर्थिक संकट के पूर्व की स्थिति में आ जाएगी । उन्होंने अपने कथन के समर्थन में आंकड़े भी पेश किये । उन्हें पूरा भरोसा था कि अर्थव्यवस्था निकट भविष्य में ही लगभग 9 प्रतिशत की विकास दर को छू लेगी ।
कई वर्षों तक विकास की दर 9 प्रतिशत पर टिकी रही, परन्तु 2008-09 में वैश्विक मंदी के कारण अचानक यह गिर कर 6.5 प्रतिशत पर आ गई । परन्तु भारतीय अर्थव्यवस्था के झटके सहने की क्षमता के कारण विकास दर में प्रतिवर्ष बढ़ोतरी होती रही । शीघ्र ही यह 7.4 पर आ गई, फिर 8.8 प्रतिशत पर पहुंची और हमें आशा है कि अगले वर्ष तक विकास दर 9 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी, जिसके बाद हम विकास दर को दहाई अंकों तक ले जाने के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए आगे बढ़ सकेंगे ।
वित्त मंत्री ने इस उपलब्धि के लिए कई कारण गिनाएं । अर्थव्यवस्था के आधारभूत तत्वों की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रही है । श्री मुखर्जी ने कहा कि यह विकास एक ऐसे वर्ष में संभव हो सका, जब पूरा देश कम वर्षा के कारण चिंतित था, इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियाद और उसमें अंतर्निहित गतिशीलता कितनी सुदृढ़ है । सरकार द्वारा उठाए गए विभिन्न राजकोषीय और मौद्रिक नीतिगत उपायों ने भी इसे सहारा दिया । वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार हालांकि धीरे-धीरे हो रहा था, परन्तु इससे भी भारत को प्रोत्साहन मिला ।
श्री प्रणव मुखर्जी ने कहा कि मौजूदा विकास अधिक व्यापक है और सभी तीनों क्षेत्रों उद्योग, सेवा और कृषि में सुधार हो रहा है । उन्होंने संकेत किया कि सवाल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि के अंश में गिरावट से भारतीय अर्थव्यवस्था में समय समय पर आने वाले बदलावों को सहने की क्षमता में और भी वृद्धि हुई है । कृषि क्षेत्र में भी हम वर्षा के अभाव के प्रभाव को संतुलित करने में सफल रहे हैं । अतीत के विपरीत मानसूनी वर्षा की कमी का विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़े , ऐसा जरूरी नहीं रह गया है । कृषि उत्पादन में गिरावट नहीं आने से हमारा भरोसा बढ़ा है ।
राजकोषीय घाटा भी कम हो रहा है । आशा है कि वर्तमान में यह घटकर जीडीपी के 5.5 प्रतिशत तक आ जाएगा । पिछले वर्ष यह 6.7 प्रतिशत पर था । मध्यावधि राजकोषीय नीति वक्तव्य 2010-11 में अनुमान लगाया गया है कि 2011-12 में राजकोषीय घाटा जीडीपी के 4.8 प्रतिशत के बराबर आ जाएगा और 2012-13 में 4.1 प्रतिशत तक रह जाएगा । इससे पता चलता है कि सरकार विवेकपूर्ण उपायों के जरिये राजकोषीय सुदृढ़ता के प्रति कितनी चिंचित है । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत वित्तीय प्रोत्साहन युग से वापस निकल रहा है और करों में दी गई छूट की आंशिक समाप्ति, व्यय में कमी, ऊर्जा की नीलामी से प्राप्त राजस्व और विनिवेश से इस वित्त वर्ष के लक्ष्यों को पूरा किया जा सकेगा ।
पिछले वर्ष के ऋणात्मक (-) 11.6 प्रतिशत की विकास दर के मुकाबले इस वर्ष के सकल कर राजस्व में 27.3 प्रतिशत की वृद्धि अब तक हो चुकी है । कुल राजस्व प्राप्तियां बढ़कर 85 प्रतिशत तक पहुंच चुकी हैं । गत वर्ष (-)2.7 प्रतिशत ऋणात्मक प्राप्तियां रहीं । पिछले वर्ष के कुल 22.8 प्रतिशत के परिव्यय के मुकाबले इस वर्ष यह बढ़कर 30.4 प्रतिशत पर पहुंच गया है ।
मुद्रास्फीति के मोर्चे पर भी कुछ प्रगति हुई है । इस वर्ष (2010-11) के प्रारंभ में मुद्रास्फीति की दर 11 प्रतिशत थी । जून 2010 तक दहाई अंकों में बनी रहने के बाद यह सितम्बर 2010 में गिरकर 8.6 प्रतिशत तक पहुंच गई थी । तीनों प्रमुख क्षेत्रों- ओद्योगिक श्रमिकों कृषि श्रमिकों और ग्रामीण श्रमिकों के मामले में मुद्रास्फीति की दर इकाई अंक में बनी रही । मुद्रास्फीति का मुख्य कारण खाद्य पदार्थों की ऊंची कीमत रही है । इस समस्या के समाधान के लिये सरकार ने जो कदम उठाए हैं उनमें निर्यात पर चयनात्मक प्रतिबंध, चावल और कुछ प्रकार की दालों के वायदा कारोबार पर रोक, चुनिंदा खाद्य सामग्रियों पर आयात शुल्क पूरी तरह से हटाना और लाइसेंसिंग तथा आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत खाद्य सामग्रियों के आवागमन एवं भंडारण सीमा पर लगे प्रतिबंधों को समाप्त करना शामिल है। सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा दालों और चीनी के आयात की अनुमति दी तथा गैर लेवी चीनी के कोटे में वृद्धि की गई ।
निर्यात क्षेत्र में भी प्रदर्शन समानरूप से शानदार रहा है । सितम्बर में निर्यात में 23 प्रतिशत का उछाल आया, जो कि पिछले दो वर्षों में सबसे तेज वृद्धि कही जाएगी । अप्रैल से सितम्बर के बीच कुल मिलाकर 1 खरब 3 अरब 3 करोड़ यूएस डालर मूल्य का निर्यात किया गया जो कि पिछले वर्ष की उसी अवधि से 27.6 प्रतिशत अधिक था । इसी कामयाबी के कारण ही वाणिज्य मंत्री श्री आनन्द शर्मा ने हाल ही में विश्वास व्यक्त किया था कि भारत वर्तमान वित्त वर्ष में 2 खरब अमेरिकी डालर के निर्यात के लक्ष्य को हासिल कर लेगा । निश्चय ही आयात में भी वृद्धि हो रही है, जिससे व्यापार घाटा अगस्त में 13 अरब अमेरिकी डालर तक पहुंच गया परन्तु यह एक अस्थायी लक्षण है ।
भारतीय रिजर्व बैंक ने भी अपनी मौद्रिक नीति के अंतर्गत कतिपय कदम उठाए हैं । बैंक ने अप्रैल, 2009 से अपनी प्रमुख दरों में वृद्धि की है । गत 16 सितम्बर को इसने रिपो दर बढ़ाकर 6 प्रतिशत और रिवर्स रिपोदर 5 प्रतिशत कर दी ताकि बाजार में नकदी के प्रवाह पर रोक लग सके ।
देश में मांग और निवेश के वातावरण में आई तेजी से पूंजी के अंर्तप्रवाह में भारी तेजी आई है, जिसके कारण रूपये पर दबाव बढ़ा है । नतीजतन पिछले कुछ महीनों में उसकी कमी भी बढ़ी है । परन्तु वित्त मंत्री इससे जरा भी विचलित नहीं हैं । उनका कहना है कि भारी विदेशी संस्थागत प्रवेश भारत की विकास गाथा में विदेशियों का विश्वास दर्शाता है । श्री मुखर्जी को विश्वास है कि रूपये के मूल्य में वृद्धि कोई असामान्य बात नहीं है । अत: स्थिति से निपटने के लिये सरकार को कोई बड़े कदम उठाने की जरूरत नहीं है ।
इस सबसे स्पष्ट है कि भारतीय अर्थव्यवस्था सही रास्ते पर बढ़ रही है । परन्तु मुद्रास्फीति हालांकि अभी इकाई अंक में ही है, चिंता का विषय बनी हुई है । परन्तु अंधेरे में उजाले की किरण दिखने लगी है ।
कई वर्षों तक विकास की दर 9 प्रतिशत पर टिकी रही, परन्तु 2008-09 में वैश्विक मंदी के कारण अचानक यह गिर कर 6.5 प्रतिशत पर आ गई । परन्तु भारतीय अर्थव्यवस्था के झटके सहने की क्षमता के कारण विकास दर में प्रतिवर्ष बढ़ोतरी होती रही । शीघ्र ही यह 7.4 पर आ गई, फिर 8.8 प्रतिशत पर पहुंची और हमें आशा है कि अगले वर्ष तक विकास दर 9 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी, जिसके बाद हम विकास दर को दहाई अंकों तक ले जाने के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए आगे बढ़ सकेंगे ।
वित्त मंत्री ने इस उपलब्धि के लिए कई कारण गिनाएं । अर्थव्यवस्था के आधारभूत तत्वों की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रही है । श्री मुखर्जी ने कहा कि यह विकास एक ऐसे वर्ष में संभव हो सका, जब पूरा देश कम वर्षा के कारण चिंतित था, इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियाद और उसमें अंतर्निहित गतिशीलता कितनी सुदृढ़ है । सरकार द्वारा उठाए गए विभिन्न राजकोषीय और मौद्रिक नीतिगत उपायों ने भी इसे सहारा दिया । वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार हालांकि धीरे-धीरे हो रहा था, परन्तु इससे भी भारत को प्रोत्साहन मिला ।
श्री प्रणव मुखर्जी ने कहा कि मौजूदा विकास अधिक व्यापक है और सभी तीनों क्षेत्रों उद्योग, सेवा और कृषि में सुधार हो रहा है । उन्होंने संकेत किया कि सवाल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि के अंश में गिरावट से भारतीय अर्थव्यवस्था में समय समय पर आने वाले बदलावों को सहने की क्षमता में और भी वृद्धि हुई है । कृषि क्षेत्र में भी हम वर्षा के अभाव के प्रभाव को संतुलित करने में सफल रहे हैं । अतीत के विपरीत मानसूनी वर्षा की कमी का विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़े , ऐसा जरूरी नहीं रह गया है । कृषि उत्पादन में गिरावट नहीं आने से हमारा भरोसा बढ़ा है ।
राजकोषीय घाटा भी कम हो रहा है । आशा है कि वर्तमान में यह घटकर जीडीपी के 5.5 प्रतिशत तक आ जाएगा । पिछले वर्ष यह 6.7 प्रतिशत पर था । मध्यावधि राजकोषीय नीति वक्तव्य 2010-11 में अनुमान लगाया गया है कि 2011-12 में राजकोषीय घाटा जीडीपी के 4.8 प्रतिशत के बराबर आ जाएगा और 2012-13 में 4.1 प्रतिशत तक रह जाएगा । इससे पता चलता है कि सरकार विवेकपूर्ण उपायों के जरिये राजकोषीय सुदृढ़ता के प्रति कितनी चिंचित है । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत वित्तीय प्रोत्साहन युग से वापस निकल रहा है और करों में दी गई छूट की आंशिक समाप्ति, व्यय में कमी, ऊर्जा की नीलामी से प्राप्त राजस्व और विनिवेश से इस वित्त वर्ष के लक्ष्यों को पूरा किया जा सकेगा ।
पिछले वर्ष के ऋणात्मक (-) 11.6 प्रतिशत की विकास दर के मुकाबले इस वर्ष के सकल कर राजस्व में 27.3 प्रतिशत की वृद्धि अब तक हो चुकी है । कुल राजस्व प्राप्तियां बढ़कर 85 प्रतिशत तक पहुंच चुकी हैं । गत वर्ष (-)2.7 प्रतिशत ऋणात्मक प्राप्तियां रहीं । पिछले वर्ष के कुल 22.8 प्रतिशत के परिव्यय के मुकाबले इस वर्ष यह बढ़कर 30.4 प्रतिशत पर पहुंच गया है ।
मुद्रास्फीति के मोर्चे पर भी कुछ प्रगति हुई है । इस वर्ष (2010-11) के प्रारंभ में मुद्रास्फीति की दर 11 प्रतिशत थी । जून 2010 तक दहाई अंकों में बनी रहने के बाद यह सितम्बर 2010 में गिरकर 8.6 प्रतिशत तक पहुंच गई थी । तीनों प्रमुख क्षेत्रों- ओद्योगिक श्रमिकों कृषि श्रमिकों और ग्रामीण श्रमिकों के मामले में मुद्रास्फीति की दर इकाई अंक में बनी रही । मुद्रास्फीति का मुख्य कारण खाद्य पदार्थों की ऊंची कीमत रही है । इस समस्या के समाधान के लिये सरकार ने जो कदम उठाए हैं उनमें निर्यात पर चयनात्मक प्रतिबंध, चावल और कुछ प्रकार की दालों के वायदा कारोबार पर रोक, चुनिंदा खाद्य सामग्रियों पर आयात शुल्क पूरी तरह से हटाना और लाइसेंसिंग तथा आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत खाद्य सामग्रियों के आवागमन एवं भंडारण सीमा पर लगे प्रतिबंधों को समाप्त करना शामिल है। सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा दालों और चीनी के आयात की अनुमति दी तथा गैर लेवी चीनी के कोटे में वृद्धि की गई ।
निर्यात क्षेत्र में भी प्रदर्शन समानरूप से शानदार रहा है । सितम्बर में निर्यात में 23 प्रतिशत का उछाल आया, जो कि पिछले दो वर्षों में सबसे तेज वृद्धि कही जाएगी । अप्रैल से सितम्बर के बीच कुल मिलाकर 1 खरब 3 अरब 3 करोड़ यूएस डालर मूल्य का निर्यात किया गया जो कि पिछले वर्ष की उसी अवधि से 27.6 प्रतिशत अधिक था । इसी कामयाबी के कारण ही वाणिज्य मंत्री श्री आनन्द शर्मा ने हाल ही में विश्वास व्यक्त किया था कि भारत वर्तमान वित्त वर्ष में 2 खरब अमेरिकी डालर के निर्यात के लक्ष्य को हासिल कर लेगा । निश्चय ही आयात में भी वृद्धि हो रही है, जिससे व्यापार घाटा अगस्त में 13 अरब अमेरिकी डालर तक पहुंच गया परन्तु यह एक अस्थायी लक्षण है ।
भारतीय रिजर्व बैंक ने भी अपनी मौद्रिक नीति के अंतर्गत कतिपय कदम उठाए हैं । बैंक ने अप्रैल, 2009 से अपनी प्रमुख दरों में वृद्धि की है । गत 16 सितम्बर को इसने रिपो दर बढ़ाकर 6 प्रतिशत और रिवर्स रिपोदर 5 प्रतिशत कर दी ताकि बाजार में नकदी के प्रवाह पर रोक लग सके ।
देश में मांग और निवेश के वातावरण में आई तेजी से पूंजी के अंर्तप्रवाह में भारी तेजी आई है, जिसके कारण रूपये पर दबाव बढ़ा है । नतीजतन पिछले कुछ महीनों में उसकी कमी भी बढ़ी है । परन्तु वित्त मंत्री इससे जरा भी विचलित नहीं हैं । उनका कहना है कि भारी विदेशी संस्थागत प्रवेश भारत की विकास गाथा में विदेशियों का विश्वास दर्शाता है । श्री मुखर्जी को विश्वास है कि रूपये के मूल्य में वृद्धि कोई असामान्य बात नहीं है । अत: स्थिति से निपटने के लिये सरकार को कोई बड़े कदम उठाने की जरूरत नहीं है ।
इस सबसे स्पष्ट है कि भारतीय अर्थव्यवस्था सही रास्ते पर बढ़ रही है । परन्तु मुद्रास्फीति हालांकि अभी इकाई अंक में ही है, चिंता का विषय बनी हुई है । परन्तु अंधेरे में उजाले की किरण दिखने लगी है ।
रविवार, 19 सितंबर 2010
आशानुकूल रही रिजर्व बैंक की दरों में वृध्दि
भारतीय रिजर्व बैंक ने मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही की मौद्रिकनीति की समीक्षा के बाद प्रमुख दरों में एक बार फिर वृध्दि की है । दरों में इस वर्ष यह चौथी वृध्दि है । रिजर्व बैंक ने रिपो दर में 25 अंकों अर्थात चौथाई प्रतिशत की वृध्दि की है । अब यह दर 5.57 प्रतिशत हो गई है । इसी प्रकार रिवर्स रिपो दर में 50 अंकों की यानी आधा प्रतिशत की बढोतरी की गई है । यह दर अब 4.5 प्रतिशत हो गई है । रिपो दर वह दर है जिस पर रिजर्व बैंक वाणिज्यिक बैंकों को त्रऽण देता है और रिवर्स रिपो दर वह दर है जिस पर आरबीआई वाणिज्यिक बैंकों से कर्ज लेता है ।
दोनों दरों में वृध्दि से बाजार में तरलता में कमी आएगी , क्योंकि वाणिज्यिक बैंकों को रिजर्व बैंक से त्रऽण वापस लेने के लिये ज्यादा पैसे चुकाने होंगे । इससे बैंकों को अपना पैसा रिजर्व बैंक के पास जमा रखने को प्रोत्साहन मिलता है, क्योंकि जमा धन पर अधिक लाभ (ब्याज) मिलता है । इस प्रकार न्यूनतम दरों में वृध्दि से बाजार में नकदी के प्रवाह में कमी आएगी और उसे बाहर निकालने के प्रयास में तेजी आएगी । उद्देश्य यह है कि मुद्रास्फीति पर मांग का दबाव कम हो, जो पिछले पांच महीनों से लगातार दहाई अंकों में बनी हुई है और जो सरकार के लिये चिंता का विषय बनी हुई है । जून में मुद्रास्फीति की दर 10.55 प्रतिशत थी ।
नई दरों से मुद्रास्फीति से सख्ती से निपटने और स्थायी विकास के अनुकूल वातावरण के निर्माण के बारे में सरकार के संकल्प का आभास होता है । नई दर आशानुरुप ही हैं । रिजर्व बैंक की समीक्षा से पहले ही अनुमान लगाया जा रहा था कि मुख्य दरों में 25 अंकों की वृध्दि की जा सकती है परन्तु रिवर्स रिपो दर में आधा प्रतिशत की वृध्दि आशा से कुछ अधिक है । आरबीआई ने दरों में कोई ज्यादा वृध्दि नहीं की, इससे यह पता चलता है कि केन्द्रीय बैंक विकास प्रक्रिया को किसी भी प्रकार से प्रभावित किये बिना बाजार में नकदी के प्रवाह को रोकने के लिये धीरे-धीरे सोच समझकर कदम उठा रहा है । ब्याज दरों में अधिक वृध्दि से आर्थिक सुधार की प्रक्रिया तो प्रभावित होती ही साथ ही बैंकिंग प्रणाली में नकदी की समस्या भी आ सकती थी ।
अधिसूचित बैंकों द्वारा रिजर्व बैंक में अनिवार्य रूप से जमा की जाने वाली राशि के अनुपात सी आर आर में कोई घट बढ न क़रते हुए केन्द्रीय बैंक ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि उसकी नीति पिछले दो वर्षों की वैश्विक मंदी के प्रभाव से ऊपर रही अर्थव्यवस्था से किसी भी प्रकार की छेडछाड़ नहीं करने की है । साधारणत: अर्थशास्त्रियों का विश्वास है कि प्रमुख दरों में हालिया मामूली वृध्दि से बैंको की त्रऽण दरों में वृध्दि नहीं होगी क्योंकि बैंक इतनी वृध्दि तो मान कर ही चल रहे थे । कुछ अर्थशास्त्रियों का विश्वास है कि इससे बैंकों की त्रऽण दरों में मामूली वृध्दि होगी । आर बी आई ने स्पष्ट संकेत दिये है कि वह जमा और उधार दोनों ही दरों में वृध्दि देखना चाहता है ताकि जहां एक ओर बैंकों से कर्ज लेना थोड़ा मंहगा हो वहीं बैंकों में लोगों की जमा राशि में वृध्दि भी हो ।
रिजर्व बैंक की तिमाही समीक्षा से दो और बातें साफ होती हैं । इसने मौजूदा वित्त वर्ष में विकास दर का लक्ष्य 8 से बढाक़र 8.5 प्रतिशत कर दिया है, वहीं आशा जताई है कि मार्च 2011 तक मुद्रास्फीति की दर 5.5 से 6 प्रतिशत के आसपास रहेगी । वित्त मंत्रालय को भी आशा है कि अच्छे मानसून की संभावना को देखते हुए मुद्रास्फीति दिसम्बर तक कम होकर 6 प्रतिशत रह जाएगी ।
मुद्रास्फीति में इन दिनों जो बढोतरी हो रही है, वह मुख्यत: पिछले वर्ष अच्छी वर्षा न होने के कारण ही है । वर्षा के अभाव में देश में प्राय: सभी कृषि उत्पादनों में कमी आई जिससे खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति में वृध्दि हुई । खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति शैन: शनै:-शनै: अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों को भी प्रभावित करने लगी और थोक मूल्य सूचकांक में वृध्दि के साथ ही स्थिति संकट पूर्ण होने लगी ।
रिजर्व बैंक का कहना है कि मुद्रास्फीति का दबाव बढ रहा है और इस पर मांग का दबाव स्पष्ट दिखाई देता है, जिससे मंहगाई आम हो गई है । बैंक का कहना है कि मुद्रास्फीति के विस्तार और उसके बने रहने के स्वभाव को देखते हुए मांग पक्ष की मुद्रास्फीति के दबाव को काबू में करना होगा ।
वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी का कहना है कि आरबीआई की नीति से पहले से ही कम हो रही मुद्रास्फीति में और भी कमी आएगी । उनका विचार है कि इससे हम विकास के रास्ते पर भी भलीभांति बने रहेंगे । आरबीआई की मौद्रिक नीति इस दिशा में उठाया गया सोचा समझा कदम है ।
परन्तु सच्चाई यह है कि ब्याज दरों में वृध्दि केवल मांग पक्ष की मुद्रास्फीति को काबू में कर सकती है, जो कि समस्या का केवल एक अंश है । मुद्रास्फीति पर प्रभावी नियंत्रण के लिये हमें विशेष तौर पर खाद्यान्न उत्पादन बढाने के साथ-साथ आपूर्ति पक्ष के दबावों में भी कमी लानी होगी। इसके लिये हमें मुख्यत: इंद्र देव की कृपा का ही आसरा होता है । दीर्घकालिक दृष्टि से कृषि पर और गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है।
इसी संदर्भ में प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह ने हाल ही में हुई राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में राज्य सरकारों से कृषि क्षेत्र पर और अधिक ध्यान देने का आग्रह किया ताकि मंहगाई पर प्रभावी रोक लगाई जा सके । कृषि चूंकि राज्यों का विषय है, इस विषय पर उन्हें ही अधिक ध्यान देना होगा । उन पर यह बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है । यद्यपि सफल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर में कृषि का योगदान मात्र 18 से 20 प्रतिशत ही है, तथापि अपने देशव्यापी विस्तार और अपनी गतिविधियों से देश की लगभग 65 प्रतिशत जनसंख्या को प्रभावित करने के कारण इसकी भूमिका निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है ।
कृषि क्षेत्र पर अधिक ध्यान देना और ढीली-ढाली मौद्रिक नीति से योनजाबध्द ढंग से बाहर आना, देश में मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के महत्वपूर्ण सूत्र हैं । आपूर्ति पक्ष के अभावों पर भी और तेजी से ध्यान देने की जरूरत है ।
जैसा कि अन्य देशों के केन्द्रीय बैंकों द्वारा किया जाता है, आर बी आई ने भी अपनी मध्यावधि समीक्षाओं से चौंकाने वाला तत्व समाप्त करने का निर्णय लिया है । ये समीक्षायें तिमाही समीक्षाओं के डेढ महीने बाद की जाया करेंगी ताकि आवश्यकतानुसार बीच रास्ते ही सुधार किया जा सके । इससे अर्थव्यवस्था को मौजूदा स्थिति को समझने और तदनुसार कदम उठाने में मदद मिलेगी ।
दोनों दरों में वृध्दि से बाजार में तरलता में कमी आएगी , क्योंकि वाणिज्यिक बैंकों को रिजर्व बैंक से त्रऽण वापस लेने के लिये ज्यादा पैसे चुकाने होंगे । इससे बैंकों को अपना पैसा रिजर्व बैंक के पास जमा रखने को प्रोत्साहन मिलता है, क्योंकि जमा धन पर अधिक लाभ (ब्याज) मिलता है । इस प्रकार न्यूनतम दरों में वृध्दि से बाजार में नकदी के प्रवाह में कमी आएगी और उसे बाहर निकालने के प्रयास में तेजी आएगी । उद्देश्य यह है कि मुद्रास्फीति पर मांग का दबाव कम हो, जो पिछले पांच महीनों से लगातार दहाई अंकों में बनी हुई है और जो सरकार के लिये चिंता का विषय बनी हुई है । जून में मुद्रास्फीति की दर 10.55 प्रतिशत थी ।
नई दरों से मुद्रास्फीति से सख्ती से निपटने और स्थायी विकास के अनुकूल वातावरण के निर्माण के बारे में सरकार के संकल्प का आभास होता है । नई दर आशानुरुप ही हैं । रिजर्व बैंक की समीक्षा से पहले ही अनुमान लगाया जा रहा था कि मुख्य दरों में 25 अंकों की वृध्दि की जा सकती है परन्तु रिवर्स रिपो दर में आधा प्रतिशत की वृध्दि आशा से कुछ अधिक है । आरबीआई ने दरों में कोई ज्यादा वृध्दि नहीं की, इससे यह पता चलता है कि केन्द्रीय बैंक विकास प्रक्रिया को किसी भी प्रकार से प्रभावित किये बिना बाजार में नकदी के प्रवाह को रोकने के लिये धीरे-धीरे सोच समझकर कदम उठा रहा है । ब्याज दरों में अधिक वृध्दि से आर्थिक सुधार की प्रक्रिया तो प्रभावित होती ही साथ ही बैंकिंग प्रणाली में नकदी की समस्या भी आ सकती थी ।
अधिसूचित बैंकों द्वारा रिजर्व बैंक में अनिवार्य रूप से जमा की जाने वाली राशि के अनुपात सी आर आर में कोई घट बढ न क़रते हुए केन्द्रीय बैंक ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि उसकी नीति पिछले दो वर्षों की वैश्विक मंदी के प्रभाव से ऊपर रही अर्थव्यवस्था से किसी भी प्रकार की छेडछाड़ नहीं करने की है । साधारणत: अर्थशास्त्रियों का विश्वास है कि प्रमुख दरों में हालिया मामूली वृध्दि से बैंको की त्रऽण दरों में वृध्दि नहीं होगी क्योंकि बैंक इतनी वृध्दि तो मान कर ही चल रहे थे । कुछ अर्थशास्त्रियों का विश्वास है कि इससे बैंकों की त्रऽण दरों में मामूली वृध्दि होगी । आर बी आई ने स्पष्ट संकेत दिये है कि वह जमा और उधार दोनों ही दरों में वृध्दि देखना चाहता है ताकि जहां एक ओर बैंकों से कर्ज लेना थोड़ा मंहगा हो वहीं बैंकों में लोगों की जमा राशि में वृध्दि भी हो ।
रिजर्व बैंक की तिमाही समीक्षा से दो और बातें साफ होती हैं । इसने मौजूदा वित्त वर्ष में विकास दर का लक्ष्य 8 से बढाक़र 8.5 प्रतिशत कर दिया है, वहीं आशा जताई है कि मार्च 2011 तक मुद्रास्फीति की दर 5.5 से 6 प्रतिशत के आसपास रहेगी । वित्त मंत्रालय को भी आशा है कि अच्छे मानसून की संभावना को देखते हुए मुद्रास्फीति दिसम्बर तक कम होकर 6 प्रतिशत रह जाएगी ।
मुद्रास्फीति में इन दिनों जो बढोतरी हो रही है, वह मुख्यत: पिछले वर्ष अच्छी वर्षा न होने के कारण ही है । वर्षा के अभाव में देश में प्राय: सभी कृषि उत्पादनों में कमी आई जिससे खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति में वृध्दि हुई । खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति शैन: शनै:-शनै: अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों को भी प्रभावित करने लगी और थोक मूल्य सूचकांक में वृध्दि के साथ ही स्थिति संकट पूर्ण होने लगी ।
रिजर्व बैंक का कहना है कि मुद्रास्फीति का दबाव बढ रहा है और इस पर मांग का दबाव स्पष्ट दिखाई देता है, जिससे मंहगाई आम हो गई है । बैंक का कहना है कि मुद्रास्फीति के विस्तार और उसके बने रहने के स्वभाव को देखते हुए मांग पक्ष की मुद्रास्फीति के दबाव को काबू में करना होगा ।
वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी का कहना है कि आरबीआई की नीति से पहले से ही कम हो रही मुद्रास्फीति में और भी कमी आएगी । उनका विचार है कि इससे हम विकास के रास्ते पर भी भलीभांति बने रहेंगे । आरबीआई की मौद्रिक नीति इस दिशा में उठाया गया सोचा समझा कदम है ।
परन्तु सच्चाई यह है कि ब्याज दरों में वृध्दि केवल मांग पक्ष की मुद्रास्फीति को काबू में कर सकती है, जो कि समस्या का केवल एक अंश है । मुद्रास्फीति पर प्रभावी नियंत्रण के लिये हमें विशेष तौर पर खाद्यान्न उत्पादन बढाने के साथ-साथ आपूर्ति पक्ष के दबावों में भी कमी लानी होगी। इसके लिये हमें मुख्यत: इंद्र देव की कृपा का ही आसरा होता है । दीर्घकालिक दृष्टि से कृषि पर और गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है।
इसी संदर्भ में प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह ने हाल ही में हुई राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में राज्य सरकारों से कृषि क्षेत्र पर और अधिक ध्यान देने का आग्रह किया ताकि मंहगाई पर प्रभावी रोक लगाई जा सके । कृषि चूंकि राज्यों का विषय है, इस विषय पर उन्हें ही अधिक ध्यान देना होगा । उन पर यह बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है । यद्यपि सफल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर में कृषि का योगदान मात्र 18 से 20 प्रतिशत ही है, तथापि अपने देशव्यापी विस्तार और अपनी गतिविधियों से देश की लगभग 65 प्रतिशत जनसंख्या को प्रभावित करने के कारण इसकी भूमिका निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है ।
कृषि क्षेत्र पर अधिक ध्यान देना और ढीली-ढाली मौद्रिक नीति से योनजाबध्द ढंग से बाहर आना, देश में मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के महत्वपूर्ण सूत्र हैं । आपूर्ति पक्ष के अभावों पर भी और तेजी से ध्यान देने की जरूरत है ।
जैसा कि अन्य देशों के केन्द्रीय बैंकों द्वारा किया जाता है, आर बी आई ने भी अपनी मध्यावधि समीक्षाओं से चौंकाने वाला तत्व समाप्त करने का निर्णय लिया है । ये समीक्षायें तिमाही समीक्षाओं के डेढ महीने बाद की जाया करेंगी ताकि आवश्यकतानुसार बीच रास्ते ही सुधार किया जा सके । इससे अर्थव्यवस्था को मौजूदा स्थिति को समझने और तदनुसार कदम उठाने में मदद मिलेगी ।
गुरुवार, 4 मार्च 2010
पंडित गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कारों की घोषणा
केंद्रीय गृह मंत्रालय के पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो (BPRD) ने साल 2009-2010 के लिए पंडित गोविंद बल्लभ पंत पुरस्कारों की घोषणा की है। इसके लिए अलग-अलग विषयों पर पुस्तकें लिखने के लिए बतौर पुरस्कार 30 से 40 हजार रुपए तक की राशि दी जाती है। इसके साथ ही पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो की तरफ से लेखकों की पुस्तकों का प्रकाशन भी किया जाता है। इस बार छह विषयों के तहत पुरस्कार के लिए लेखकों/पत्रकारों का चयन किया गया है। ब्यूरो को प्राप्त आवेदनों में से छह लेखकों का चुनाव किया गया। इस पुरस्कार के लिए लेखकों के नाम को अंतिम रुप देने का काम एक कमेटी करती है। इस चुनाव के लिए ब्यूरो के महानिदेशक प्रसून मुखर्जी की अध्यक्षता में गठित एक कमेटी ने छह लेखकों के नाम पर अंतिम मुहर लगाई। पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो साल 1982 से हिंदी में पुस्तकें उपलब्ध कराने के लिए यह योजना चला रहा है। 'वैध समस्याओं के निदान के लिए हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति' विषय पर पुस्तक के लिए ज़ी न्यूज़ के प्रोड्यूसर राकेश प्रकाश को 40 हजार रुपये का पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। 'अपराधियों का सुधार एवं पुनर्वास' विषय पर पुस्तक लेखन के लिए नीना लांबा को भी 40 हजार रुपये का पुरस्कार दिया गया है। इसके अलावा 'साइबर क्राइम' पर पुस्तक के लिए संतोष शुक्ल, 'चिकित्सीय न्यायशास्त्र एवं विधि विज्ञान' के लिए शैलेंद्र कुमार अवस्थी, 'कानूनी उपचार विधि' के लिए सुरेश ओझा और 'आतंकवाद व मनोवृत्ति का विकृत उन्माद' पुस्तक के लिए ज्योति शंकर चौबे को 30-30 हजार रुपये का पुरस्कार दिया जाएगा। पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो की तरफ से जल्द ही पुरस्कार वितरण समारोह का आयोजन किया जाएगा। जिसमें चुने गए सभी लेखकों को पुरस्कार स्वरूप प्रतीक चिन्ह,प्रमाण पत्र और पुरस्कार राशि भेंट की जाएगी। न्यूज़ चौपाल की तरफ से सभी सफल आवेदकों को बधाई और शुभकामनाएं।
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