फ़ॉलोअर
मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009
स्कूल के प्रति बच्चों में बढ़ती बेरूखी के लिए जिम्मेदार कौन ?
जहां अधिकांश बच्चे स्कूल छोड़ने का कारण शिक्षक का भय बताते है, वहीं अधिकांश शिक्षक इसका दोष माता-पिता की उदासीनता और लापरवाही पर मढ़ते हैं। जब यही प्रश्न मातापिता से पूछा जाता है तो उनमें से अधिकांश का कहना है कि उनके बच्चे पढने में सक्षम नहीं है इसलिए उन्होंने स्कूल छोड़ दिया। लेकिन एक बात साफ है कि बच्चे सीखने में अक्षम नहीं होते हैं। वस्तुत स्कूल छोड़ने वाले अधिकांश बच्चों के माता पिता अशिक्षित ग्रामीण होते हैं, जिन्हें शिक्षा के उदेश्यों के बारे में पता नहीं है। वे इस स्थिति में भी नहीं होते है कि स्कूलों के ठीक से चलने की मांग कर सके। वे शिक्षा की अनिवार्यता को समझने हेतु बच्चे पर उसका स्पष्ट असर देखना चाहते हैं। सच पूछिए तो वे अपने बच्चों को स्कूल भेजते भी है तो सिर्फ इसलिए कि समाज में जो अच्छे लोग है वे पढ़े-लिखे है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक मातापिता के दिमाग में यह बात बैठाई जाय कि उनका बच्चा पढ़ सकता है। जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि प्रत्येक बच्चे को अवश्य पढ़ना चाहिए। यह काम सिर्फ सरकारी प्रयासों से संभव नहीं, इसमें स्वयंसेवी संगठनों का योगदान भी अपेक्षित है। अब रही बात शिक्षकों की तो भारत में प्राथमिक शिक्षा की जो स्थिति है उसमें एक शिक्षक की गांवों में पहले जैसी इज्जत नहीं रह गई है। वे महसूस करते है कि प्रोन्नति के रूप में उनकी महत्वकांक्षा के फलीभूत होने की संभावनायें भी क्षीण हैं। ज्यादा से ज्यादा वे अपने कैरियर के अंतिम चरण में कुछ समय के लिए प्राधानाध्यापक बन सकते हैं। इससे उनका उत्साह ठंडा पड़ जाता है। दूसरे अधिकांश स्कूलों में सिर्फ एक ही शिक्षक होने से उनपर काम का बोझ ज्यादा रहता है। तमिलनाडु जैसे राज्य में जहां स्कूल में बच्चों को दोपहर का पौष्टिक आहार और मुफ्त पुस्तकें भी दी जाती है, शिक्षकों पर प्रशासनिक बोझ भी बढ जाता है। फिर अधिकांश शिक्षक अप्रशिक्षित होते हैं, जो प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षक भी होते है उनका प्रशिक्षण अपर्याप्त होने के कारण वे कक्षा को प्रभावकारी ढ़ंग से संचालित नहीं कर पाते हैं। रिफ्रेशर कोर्स आयोजित करने का अनुष्ठान भी बहुत फलदायी सिद्ध नहीं हो पा रहा है। रही-सही कसर शिक्षकों की लापरवाही से पूरी हो जाती है। स्कूल से गायब रहने की प्रवृति उनमें बढ़ती ही जा रही है। गांवों के अभिभावकों के अशिक्षित होने के कारण उनपर कोई सामाजिक अंकुश नहीं रह गया है। इसलिए स्थिति में सुधार हेतु अभिभावक-शिक्षक संघ मंचों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। साथ ही कई संचरनागत परिवर्तन भी करने होंगे। जैसे-स्कूलों और शिक्षकों की संख्या में वृद्धि, बेहतर प्रशिक्षण व्यवस्था, पाठ्यक्रम निर्माण में शिक्षकों की भागीदारी आदि। अगर ये सारे सुधार समय रहते नहीं किए गए तो जब दुनिया के देश मंगल और बृहस्तपति पर पहुंचकर शोध कर रहे होंगे हम दुनिया के निरक्षरों की सबसे बड़ी फौज को साक्षर करते हुए अनौपचारिक शिक्षा के कार्यक्रम चला रहे होंगे। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि प्राथमिक शिक्षा को एक बार फिर से राष्ट्रीय एजेंडे का केंद्रबिंदु बनाया जाए जैसा कि 1990 में नई शिक्षा नीति की समीक्षा के लिए गठित समिति ने सिफारिश की थी। रिपोर्ट में इसके लिए व्यवहारिक सुझाव भी दिए गए है पर सरकार बजाए उस पर अमल करने के अनुच्छेद 45 की मनमानी व्याख्या करके अपनी जिम्मेदारी को कक्षा 1 से 8 तक के बच्चों की शिक्षा देने तक सीमित करती जा रही है। उल्लेखनीय है कि रिपोर्ट में की गई सिफारिश के अनुसार 6 वर्ष तक की आयु के बच्चों की शिक्षा को भी निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के दायरे में शामिल किया जाए। अब देखना यह है कि मानव संसाधन मंत्री इस चुनौती को किस रूप में लेते हैं और अनुच्छेद 45 के संवैधानिक निर्देश को किस तरह पूरा करते हैं।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Seeing our scholar defending his PhD thesis during ODC was a great moment. This was the result of his hard work. Dr. Sanjay Singh, a senior...
-
छपाई एक कलाकृति है। यह प्रारंभिक चित्र के समान प्रकार में लगभग विविधता की अनुमति देती है। भारत में छपाई का इतिहास 1556 से शुरू होता है। इस य...
-
दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में महिलाओं की सामाजिक , आर्थिक और सांस्कृतिक आजादी को सुनिश्चित करने की दिशा में पुरजोर तरीके से ठोस ...
-
राष्ट्रीय सेवा योजना (एनएसएस) एक केंद्र प्रायोजित योजना है। इस योजना की शुरूआत 1969 में की गई थी और इसका प्राथमिक उद्देश्य स्वैच्छिक सामु...
एक अच्छे विषय पर एक अच्छा लेख ....पढ़कर अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंआपका स्वागत है ...
अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
वाकेई हमारी शिक्षा पद्धति में खामियाँ तो हैं। इसी के कारण बहुत से बच्चे स्कूल छोड़ रहे हैं। अध्यापकों का रवैया अध्यापन करवाने जैसा नहीं है। बहुत ख़ूब लिखा है आपने एक नाम तो आपका मुझसे भी मिलता है प्रकाश भाई आपका स्वागत है दूसरे प्रकाश के द्वारा।
जवाब देंहटाएंआपने बेहतर कहा। शिक्षा से जुडे आलेख पर ब्लॉग का इंतजार था।
जवाब देंहटाएंइसलिए आवश्यकता इस बात की है कि प्राथमिक शिक्षा को एक बार फिर से राष्ट्रीय एजेंडे का केंद्रबिंदु बनाया जाए जैसा कि 1990 में नई शिक्षा नीति की समीक्षा के लिए गठित समिति ने सिफारिश की थी। रिपोर्ट में इसके लिए व्यवहारिक सुझाव भी दिए गए है पर सरकार बजाए उस पर अमल करने के अनुच्छेद 45 की मनमानी व्याख्या करके अपनी जिम्मेदारी को कक्षा 1 से 8 तक के बच्चों की शिक्षा देने तक सीमित करती जा रही है। उल्लेखनीय है कि रिपोर्ट में की गई सिफारिश के अनुसार 6 वर्ष तक की आयु के बच्चों की शिक्षा को भी निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के दायरे में शामिल किया जाए.......Rakesh ji sahi kha aapne...!!
जवाब देंहटाएंNice Articel....
जवाब देंहटाएंRegards