फ़ॉलोअर
गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009
प्राथमिक शिक्षा की अनदेखी कब तक?
आओ चलो स्कूल चले हम। प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा देने के मकसद से तैयार किया यह विज्ञापन वाकई में प्रेरणादायी है। लेकिन सरकार की ओर से तैयार कराया गया यह विज्ञापन जितना दमदार है सरकारी स्कूलों की हालत उतनी ही खराब। वास्तव में प्राथमिक विद्यालयों का प्रदर्शन काफी निराशाजनक है। महानगरों और शहरी स्कूलों को छोड़ दे तो ग्रामीण इलाके के स्कलों की हालत देखकर आप देश में प्राथमिक शिक्षा की बदहाली का सहज ही अंदाजा लगा सकते है। देश में प्राथमिक शिक्षा की हकीकत इस सरकारी विज्ञापन में कहीं गई बातों से बिलकुल मेल नहीं खाती है। स्कूल का मतलब सिर्फ स्कूल भवन, किताबें और नियमित उपस्थिति ही नहीं है, इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग तो बच्चे हैं। वस्तुत यह एक ऐसा समय होता है जब बच्चे तेजी से आगे बढ रहे होते है और कई मनोवैज्ञानिकों के अनुसार यह प्रारंभिक काल किसी व्यक्ति के भावी जीवन के लिए बड़ा ही निर्णायक होता है। इसलिए यह जानना बड़ा ही महत्वपूर्ण हो जाता है कि बच्चे खुद इस संबंध में क्या सोचते हैं। क्योंकि अगर बच्चे पढ़ाई से घृणा करते हों और स्कूल जाने को सिर्फ एक अरूचिकर अनुष्ठान मानते हो तो उन्हें स्कूल भेजने का कोई फायदा नहीं है। आखिरकार बच्चा जब तक चाहेगा नहीं तब तक उसे प्रभावकारी शिक्षा कैसे दी जा सकती है। इस संबंध में प्रो रामकृष्णन रिपोर्ट से एक दिलचस्प बात सामने आती है। रिपोर्ट के अनुसार स्कूल छोड़कर काम में लगने वाले अधिकांश बच्चे स्कूल की पढ़ाई से अधिक शारीरिक परिश्रम को पसंद करते हैं और स्कूल वापसी की उनकी कोई इच्छा नहीं है। तो क्या बच्चे सीखने की प्रवृति खो चुके है। नहीं ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि इसे मानना समूचे बाल विज्ञान को नकारने के बराबर होगा। जिसके अनुसार सीखना बच्चे की जन्मजात प्रवृति है और सबसे अच्छी तरह से वे तब सीखते हैं जब वे अपने कृत्य का आनंद लेते हुए सीखते हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण उनके द्वारा मातृभाषा का सीखना है जिसे वे तुतलाते तुतलाते सीख डालते है। प्रख्यात शिक्षाविद मारिया मांटेसरी एवं जान हाल्ट के अनुसार जिज्ञास बच्चे की जन्मजात प्रवृति है। पर जिस ढंग की शिक्षा आज हम बच्चों को दे रहे हैं उससे उनकी मूल प्रवृति पर कुठराघात हो रहा है। शिक्षक और माता पिता पढ़ाई में बच्चों की सफलता और असफलता को क्रमश पारितोषिक और दंड से जोड़ देते हैं जिससे जिज्ञासा का स्थान चिंता ले लेती है। उपर से स्कूल की ओर से अभिभावक को भेजा गया प्रोग्रेस रिपोर्ट तो बच्चों को और आतंकित करता है। बच्चों की गलतियों की बजाए अनदेखी करके उन्हें प्रोत्साहित करने के, गलतियों की ओर उनका ध्यान आकृष्ट कराया जाता है, जिससे शिक्षा के प्रति उनमें अरूचि पैदा होती है। इसका दूसरा महत्वपूर्ण कारण हमारा जर्जर प्राथमिक शिक्षा तंत्र है जिसमें संरचनागत खामियों की भरमार है। हमारे न तो पर्याप्त संख्या में स्कूल है और न ही उचित संख्या में शिक्षक। जो स्कूल है भी उनमें से अधिकांश एक कमरों वाले हैं या फिर पेड़ों के नीचे चलते हैं। इन स्कूलों में ब्लैकबोर्ड और पेयजल जैसी मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं है। जब नई शिक्षा नीति के तहत ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड लागू किया गया था तब सरकार ने यह वादा किया था कि प्रत्येक एक किलोमीटर की परिधि में एक स्कूल खोला जाएगा। इसमें दो कमरे और दो शिक्षक होंगे, जिनमें से एक महिला होगी। तब ब्लैकबोर्ड और खेल सामाग्री सहित पठन-पाठन के आवश्यक उपकरणों के मुहैय्या कराने की बातें भी की गई थी। हलांकि सरकारी आंकड़ों में यह दावा किया गया है कि 64 फीसदी स्कूलों में ये सारी आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध करा दी गई है। लेकिन एनसीईआरटी की एक रिपोर्ट में सरकारी दावे का खोखलापन स्पष्ट हो जाता है। रिपोर्ट के मुताबिक 50 फीसदी से अधिक प्राथमिक स्कूलों के पास अपना भवन नहीं है, 40 प्रतिशत स्कूल फर्निचर और ब्लैकबोर्ड रहित है, 54 प्रतिशत स्कलों में रखरखाव की सुविधाएं नहीं है और 35 प्रतिशत स्कूल ऐसे है जहां सिर्फ एक ही शिक्षक है। जो शिक्षक है भी उनमें से अधिकांश अप्रशिक्षित है। नतीजा यह है कि वे बच्चों को प्रेरित करने के बदले उन्हें भयभीत कर देते हैं, जिससे बच्चे स्कूल को भय की दृष्टि से देखते है। प्राथमिक शिक्षा की बदहाली का एक महत्वपूर्ण कारण वित्तीय संसाधनों की कमी भी है। प्रथम पंचवर्षीय योजना में सकल उत्पाद का 7.86 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया गया था, जिसमें से 56 प्रतिशत खर्च प्राथमिक शिक्षा पर था। सातवीं पंचवर्षीय योजना आते आते यह राशि घटकर क्रमश 2.55 प्रतिशत और 29 प्रतिशत हो गई। आठवीं पंचवर्षीय योजना में यह राशि और भी कम हो गई। यही सिलसिला आगे भी जारी है। प्राथमिक शिक्षा पर कुल खर्च का 96 प्रतिशत तो सीधे सीधे शिक्षकों और शिक्षकेतर कर्मचारियों के वेतन पर खर्च हो जाता है। शेष बची राशि से प्राथमिक शिक्षा की स्थिति में सुधार की आशा नहीं की जा सकती। कोहारी आयोग ने 1986 तक शिक्षा के क्षेत्र में (बढ़ते हुए क्रम में) 6 प्रतिशत निवेश की बात कही थी। लेकिन सरकार ने इस पर सही तरीके से ध्यान नहीं दिया। गरीबी की वजह से खासकर ग्रामीण क्षेत्रों बच्चों के पास न तो किताबें होती है और न ही कॉपियां। जो किताबें उनके पाठ्यक्रम में शामिल की जाती है वे इतना पाण्डित्यपूर्ण होती है कि बच्चे बोर हो जाते हैं। शिक्षाविदों के अनुसार किसी भी क्रिया-कलाप के प्रति बच्चे लगातार 15 मिनट से अधिक देर तक आकर्षित नहीं रह सकते हैं। लेकिन पूरे 45 मिनट तक कक्षा में बैठने हेतु उन्हें विवश किया जाता है, जिससे उनमें पढाई के प्रति ऊब पैदा होती है। खेल आदि की सुविधा न होने के कारण उनकी रचनात्मकता पर बुरा असर पड़ता है। अत: जब तक पठन-पाठन को आनंददायक नहीं बनाया जाएगा तब तक शिक्षा प्रभावकारी नहीं हो सकती।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Seeing our scholar defending his PhD thesis during ODC was a great moment. This was the result of his hard work. Dr. Sanjay Singh, a senior...
-
छपाई एक कलाकृति है। यह प्रारंभिक चित्र के समान प्रकार में लगभग विविधता की अनुमति देती है। भारत में छपाई का इतिहास 1556 से शुरू होता है। इस य...
-
दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में महिलाओं की सामाजिक , आर्थिक और सांस्कृतिक आजादी को सुनिश्चित करने की दिशा में पुरजोर तरीके से ठोस ...
-
राष्ट्रीय सेवा योजना (एनएसएस) एक केंद्र प्रायोजित योजना है। इस योजना की शुरूआत 1969 में की गई थी और इसका प्राथमिक उद्देश्य स्वैच्छिक सामु...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें