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गुरुवार, 26 मार्च 2015
मेगा फूड पार्क से कितना फायदा होगा?
देश में विदेशों की तरह मेगा फूड पार्क बनाने के काम को जल्दी ही अमलीजामा पहना दिया जाएगा। सरकार ने भारत के दूर-दराज के इलाकों में जल्द खराब होने वाले खाद्य पदार्थों की बर्बादी को रोकने के लिए सभी राज्यों में मेगा फूड पार्क बनाने का फैसला किया है। लेकिन अहम सवाल यह है कि इससे आम भारतीय को कितना फायदा पहुंचेगा। क्या छोटे व्यापारियों और किसानों को इससे वाकई फायदा है। जानकारों का कहना है कि इससे जल्द खराब हो जाने वाले खाद्य पदार्थों की बर्बादी में कमी आएगी। इस पर गौर फरमाते हुए इस दिशा में और मूल्यवर्द्धन किया गया है। खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय वर्ष 2008 से ही देश भर में मेगा फूड पार्क योजना क्रियान्वित कर रहा है। सरकार की ओर से मेगा फूड पार्क की स्थापना के लिए 50 करोड़ रुपये तक की वित्तीय सहायता दी जाती है। इसके तहत खेत से लेकर बाजार तक की मूल्य श्रृंखला में खाद्य प्रसंस्करण हेतु आधुनिक बुनियादी ढांचागत सुविधाओं की स्थापना के लिये वित्तीय सहायता दी जाती है। न्यूनतम 50 एकड़ क्षेत्र में स्थापित किये जाने वाला मेगा फूड पार्क क्लस्टर आधारित अवधारणा के तहत काम करता है। यह 'हब एंड स्पोक' मॉडल पर आधारित होता है, जिसके तहत केन्द्रीकृत एवं एकीकृत लॉजिस्टिक प्रणाली का नेटवर्क स्थापित किया जाता है। प्राथमिक प्रसंस्करण केन्द्रों (पीपीसी) के रूप में खेतों के निकट प्राथमिक प्रसंस्करण एवं भंडारण कार्यों के लिए बुनियादी ढांचागत सुविधाएं स्थापित की जाती हैं। केन्द्रीय प्रसंस्करण केन्द्र में अनेक साझा सुविधाओं के साथ-साथ उपयुक्त बुनियादी ढांचागत सुविधाएं भी होती हैं, जिनमें आधुनिक भंडारण, शीत भंडारण, आईक्यूएफ, पैकेजिंग, बिजली, सड़क, जल इत्यादि शामिल हैं। इससे सम्बंधित इकाइयों की लागत काफी हद तक घटाने में मदद मिलती है जिससे वे और ज्यादा लाभप्रद हो जाती हैं। अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करना, बेहतर प्रसंस्करण नियंत्रण के जरिये प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों की उच्च गुणवत्ता सुनिश्चित होना और पर्यावरण एवं सुरक्षा मानकों का पालन किया जाना मेगा फूड पार्कों के अन्य अहम फायदे हैं।
देश भर में स्थापित करने के लिए सरकार द्वारा अब तक 42 मेगा फूड पार्कों को मंजूरी दी गई है। मौजूदा समय में 25 परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। मंत्रालय को 72 प्रस्ताव मिले हैं और इन पर पारदर्शी ढंग से गौर करने के बाद देश के 11 राज्यों के 17 समुचित प्रस्तावों का चयन किया गया है तथा उन पर अमल के लिए मंजूरी भी दे दी गई है।
सरकार के इस कदम से खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र के लिए विशाल अत्याधुनिक बुनियादी ढांचे का निर्माण होगा और इस क्षेत्र के विकास को नई गति मिलेगी। इन 17 नव चयनित मेगा फूड पार्कों से अत्याधुनिक बुनियादी ढांचे में तकरीबन 2000 करोड़ रुपये का निवेश आकर्षित होने का अनुमान है। इसी तरह पार्कों में स्थित 500 खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों में तकरीबन 4000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त सामूहिक निवेश आकर्षित होने का अनुमान है। इनका सालाना कारोबार 8000 करोड़ रुपये रहने का अनुमान लगाया गया है। इन पार्कों के पूरी तरह से कार्यरत हो जाने पर तकरीबन 80000 लोगों के लिए रोजगार सृजित होंगे और इनसे लगभग 5 लाख किसान प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से लाभान्वित होंगे।
इन मेगा फूड पार्कों के समय पर पूरा हो जाने से संबंधित राज्यों में खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र के विकास को काफी बढ़ावा मिलेगा, किसानों को बेहतर मूल्य मिलने में मदद मिलेगी, जल्द खराब होने वाले खाद्य पदार्थों की बर्बादी घटेगी, कृषि उपज का मूल्यवर्द्धन होगा और खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी संख्या में रोजगार अवसर सृजित होंगे। इतना ही नहीं, ये मेगा फूड पार्क खाद्य उत्पादों की कीमतों को स्थिर रखने के साथ-साथ देश में महंगाई को नियंत्रण में रखने में भी मददगार साबित होंगे।
264 नए शहरों में 831 एफएम चैनलों का बिछेगा जाल
देश के सभी छोटे बड़े शहरों में एफएम रेडियो का जाल बिछाने की तैयारी का काम जोरों पर है। सरकार ने इसके लिए सभी ज़रुरी तैयारियां लगभग कर ली है। इसके तहत 264 नए शहरों में
एफएम रेडियो चैनल खोलने का प्रस्ताव है। जल्द ही ई नीलामी के जरिए इन शहरों में 831 एफएम रेडियो स्टेशन के लिए नीलामी की प्रक्रिया भी पूरी कर ली जाएगी। दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (टीआरएआई) ने नए शहरों में एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी के लिए आरक्षित मूल्यों की सिफारिश कर दी है।
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने 16 दिसंबर, 2014 को भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण को पत्र लिखकर 264 नए शहरों में एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी के लिए आरक्षित मूल्यों पर सिफारिश मांगी थी। इन नए शहरों में तीसरे चरण के नीतिगत निर्देशों के तहत एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी की जाएगी। तीसरे चरण की नीति के मुताबिक इन शहरों में सभी 831 एफएम चैनलों की नीलामी बढ़ते हुए क्रम में ई-नीलामी प्रक्रिया के तहत होनी है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने नीलामी के लिए संबंधित श्रेणी में शहरों की सूची और चैनलों की संख्या मुहैया कराई है।
2011 के जनसंख्या आंकड़ों के मुताबिक 264 नए शहरों में से 253 शहरों की जनसंख्या एक लाख से ज्यादा है। इन सभी शहरों को बी, सी, और डी श्रेणी में बांटा गया है। इन 253 शहरों में 798 एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी होनी है। बाकी 11 शहरों की आबादी एक लाख से कम है और वे जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर क्षेत्र के सीमाई इलाकों में स्थित हैं। इन 11 शहरों में भी 33 एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी प्रस्तावित है। दूरसंचार नियामक प्राधिकरण ने 6 फरवरी, 2015 को नए शहरों में एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी के लिए आरक्षित मूल्यों पर एक परामर्शपत्र जारी किया था। इसके लिए सभी हिस्सेदारों (पक्षों) से 25 फरवरी, 2015 तक लिखित टिप्पणियां मंगाई गई थीं। सभी टिप्पणियों को भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण की वेबसाइट पर डाल दिया गया था। इसके बाद भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण ने नई दिल्ली में 9 मार्च, 2015 सभी हिस्सेदारों की ओपनहाउस बैठक बुलाई थी।
i) परामर्श प्रक्रिया में सभी हिस्सेदारों की टिप्पणियों और इन जुड़े मुद्दों के विश्लेषण के बाद भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण चैनलों के मूल्य तय करने के लिए तीन सरल रूख तय किए। ये निम्नलिखित आधारों पर तय किए गए।
• शहरों की आबादी
• प्रति व्यक्ति सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी)
• एफएम रेडियो के श्रोताओँ की संख्या
• मौजूदा एफएम रेडियो संचालकों की ओर से कमाया गया प्रति व्यक्ति सकल राजस्व
(ii) हरेक शहर में नीलाम होने वाले रेडियो चैनलों का आरक्षित मूल्य कुल मूल्य का 80 प्रतिशत निर्धारित किया गया है।
(iii) 253 नए एफएम रेडियो चैनलों की नीलामी के लिए जो आरक्षित मूल्य तय किए गए हैं वे अनुलग्नक-1 में दिए गए हैं।
(iv) जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के सीमाई क्षेत्र में एक लाख से कम की आबादी वाले जिन अन्य श्रेणी के ग्यारह शहरों में एफएम चैनलों की नीलामी होनी है वहां तीसरे चरण नीति के तहत प्रति शहर प्रति चैनल के लिए आरक्षित मूल्य 5 लाख रुपये रखा गया है।
इन सिफारिशों को विस्तृत तौर भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण की वेबसाइट www.trai.gov.in. पर देख सकते हैं।
बुधवार, 25 मार्च 2015
दिल्ली पुलिस, एफआईआर और बंदर
दिल्ली पुलिस ने एक ऐसे आरोपी के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया है, जो अपने आप में किसी अजूबे से कम नहीं है। दिल्ली पुलिस की एफआईआर डायरी में दर्ज इस आरोपी का नाम सुनकर आप हैरान-परेशान रह जाएंगे। जानकारों की माने तो दिल्ली पुलिस ने इस बार गुनाह का इल्जाम जिसके नाम दर्ज किया है वह इंसान की तरह बोल नहीं सकता। वह इंसान की भाषा समझ नहीं सकता। ना ही इंसान उसकी भाषा समझ सकते हैं। क्योंकि दिल्ली पुलिस का ये नया नवेला आरोपी बंदरों का एक झुंड है। अब आप कहेंगे कि देश की सबसे स्मार्ट माने जाने वाली दिल्ली पुलिस को आखिर क्या हो गया है कि वह अब बंदरों के नाम से भी एफआईआर दर्ज करने लगी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बंदर के अक्ल की तरह पुलिस के कुछ तथाकथित समझदार और तेजतर्रार अफसर और जवान दिल्ली पुलिस की बची-खुची इमेज को भी ठिकाने लगाने की तैयारी कर चुके हैं। अगर ऐसा नहीं है तो दिल्ली पुलिस अक्ल और शक्ल के मामले में बंदरों के साथ मुकाबला क्यों कर रही है। अगर उसे सही मायने में दिल्ली की चिंता है तो वह अपराधियों पर नकेल कसने की हिम्मत क्यों नहीं दिखा रही। दिल्ली के गुनहगारों को सलाखों के पीछे भेजने के बजाए दिल्ली पुलिस बंदरों के पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ी है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या दिल्ली की दिनोंदिन बिगड़ती कानून व्यवस्था के लिए बंदर जिम्मेदार है। काश बंदर अगर इंसान की भाषा बोल पाते तो यहीं कहते कि दिल्ली पुलिस मुझे तो बक्श दो। आइए अब आपको बताते है कि असल में पूरा मामला है क्या और क्यों हम दिल्ली की स्मार्ट पुलिस को सवालों के घेरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं।
देश की राजधानी दिल्ली के पांडव नगर थाने के समझदार पुलिस अफसरों ने एक ऐसा मुकदमा दर्ज किया है, जिसमें इलाके के बंदरों को आरोपी बनाया गया है। शायद देश में यह अपनी तरह का पहला मामला होगा, जिसमें आरोप किसी इंसान पर नहीं बल्कि बंदर पर लगाया गया है। मयूर विहार फेज-2 में रहने वाले अरविंद जब रोजाना की तरह सुबह अपने ऑफिस जाने के लिए घर से निकले तो रास्ते में बंदरों के झुंड ने उन पर हमला कर दिया। इलाके के लोगों ने बंदरों के चंगुल से अरविंद को छुड़ाने की पूरी कोशिश की। लेकिन बदमाश बंदरों ने अरविंदों को जगह जगह काटकर बुरी तरह जख्मी कर दिया। पांडव नगर और उसके आसपास के इलाकों में बंदरों के उत्पात मचाने की यह कोई पहली कहानी नहीं है। इलाके की जनता पिछले काफी समय से बंदरों को लेकर परेशान है। लेकिन एमसीडी के अधिकारी कान में तेल डालकर सोने की अपनी वर्षों पुरानी नीति पर आज भी कायम है।
लिहाजा बंदरों के इस उत्पात को लेकर अरविंद पुलिस के पास एमसीडी के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने थान पहुंचे। लेकिन स्मार्ट दिल्ली पुलिस के समझदार अफसर ने बिना कुछ सोचे समझे एफआईआर दर्ज कर ली और वह भी इलाके के बंदरों के खिलाफ। जी हां दिल्ली पुलिस ने इलाके के बंदरों को ही इस मामले में आरोपी बना दिया। हद तो तब हो गई जब इस एफआईआर में पुलिसवालों ने इलाके के बंदरों पर भारतीय दंड संहिता यानि आईपीसी की धारा 124 भी लगा दी। यानि पांडव नगर के बंदरों ने अरविंद के साथ मार-पीट की और किसी घातक हथियार से उन्हें घायल कर दिया। कानून के मुताबिक IPC की धारा 324 के तहत दोषी साबित होने पर 3 साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान है। लेकिन क्या दिल्ली पुलिस इस मामले में किसी बंदर को वाकई में पहचानती है। क्या वह आरोपी बंदर को पकड़ पाएगी। क्या ऐसे मामले में बंदर को आरोपी बनाया जा सकता है। आमतौर पर ऐसे मामले में दिल्ली नगर निगम या उसके संबंधित अधिकारियों के खिलाफ शिकायत दर्ज किया जाता है। लेकिन दिल्ली पुलिस ने एमसीडी या उसके अधिकारियों को आरोपी क्यों नहीं बनाया। क्या दिल्ली पुलिस और एमसीडी के अफसरों के बीच कोई सांठगांठ है? क्या दिल्ली पुलिस एमसीडी से डरती है? क्या दिल्ली पुलिस को ऐसे मामले में किसे आरोपी बनाया जाता है इसका पता नहीं है? अगर ऐसा है तो वाकई में दिल्ली पुलिस के अफसरों और जवानों को सख्त ट्रेनिंग देने की ज़रुरत है। क्योंकि सवाल देश की राजधानी दिल्ली की सुरक्षा का है। ...
सोमवार, 23 मार्च 2015
राष्ट्रीय सेवा योजना एक अनोखी शुरुआत
राष्ट्रीय सेवा योजना (एनएसएस) एक केंद्र प्रायोजित योजना है। इस योजना की शुरूआत 1969 में की गई थी और इसका प्राथमिक उद्देश्य स्वैच्छिक सामुदायिक सेवा के जरिये युवा छात्रों का व्यक्तित्व एवं चरित्र निर्माण था। एनएसएस की वैचारिक अनुस्थापना महात्मा गांधी के आदर्शों से प्रेरित है और इसका आदर्श वाक्य ''मैं नहीं, लेकिन आप'' हैं।
एनएसएस को उच्चतर माध्यमिक स्कूलों, कॉलेजों एवं विश्वविद्यायल में कार्यान्वित किया जा रहा है। एनएसएस की परिकल्पना में इस बात पर ध्यान दिया गया है कि इस योजना के दायरे में आने वाले प्रत्येक शैक्षिक संस्थान में एनएसएस की कम से कम एक इकाई हो और उसमें सामान्यत: 100 छात्र स्वयंसेवक हों। इस इकाई की अगुवाई एक शिक्षक करता है जिसे कार्यक्रम अधिकारी का दर्जा दिया जाता है। प्रत्येक एनएसएस की इकाई एक गांव अथवा मलिन बस्ती (स्लम) को गोद लेती है। एक एनएसएस कार्यकर्ता को निम्न कार्य अथवा गतिविधियों को पूरा करना होता है।
·नियमित एनएसएस गतिविधि – प्रत्येक एनएसएस स्वयंसेवक को सामुदायिक सेवा के लिए दो वर्षों की अवधि में प्रतिवर्ष न्यूनतम 120 घंटे और दो वर्षों में 240 घंटे काम करना होता है। इस कार्य को अध्ययन की अवधि समाप्त होने अथवा सप्ताहांत के दौरान किया जाना है और एनएसएस की स्कूल/कॉलेज इकाई जिन गांवों अथवा स्लम को गोद लेती है वहां जाकर यह छात्र अपनी गतिविधियों को पूरा करते हैं।
·विशेष शिविर कार्यक्रम- प्रत्येक एनएसएस इकाई जिन गांवों और शहरी स्लम बस्तियों को गोद लेती है वहां के स्थानीय समुदायों को शामिल करके कुछ विशेष परियोजनाओं के लिए सात दिन का विशेष शिविर आयोजित करती है। यह शिविर छात्रों की अवकाश अवधि के दौरान भी आयोजित किया जाता है। प्रत्येक छात्र स्वयंसेवक को दो वर्ष की अवधि में कम से कम एक बार इस तरह के विशेष शिविर में हिस्सा लेना जरूरी है।
एनएसएस के तहत गतिविधियों का ब्यौरा- संक्षेप में एनएसएस कार्यकर्ता सामाजिक प्रासंगिकता से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर कार्य करते हैं। जिसके जरिये समुदाय की आवश्यकताओं की प्रतिक्रिया हासिल की जाती है। यह गतिविधियां नियमित एवं विशेष शिविर गतिविधियों के रूप में होती हैं। ऐसे विषयों में (1) साक्षरता एवं शिक्षा (2) स्वास्थ्य, परिवार कल्याण एवं पोषण (3) पर्यावरण संरक्षण (4) सामाजिक सेवा कार्यक्रम (5) महिला सशक्तिकरण कार्यक्रम (6) आर्थिक विकासात्मक गतिविधियों से जुडे कार्यक्रम (7) प्राकृतिक आपदाओं के दौरान राहत एवं बचाव कार्यक्रम आदि, शामिल हैं।
प्रशासनिक ढांचा- एनएसएस को केंद्र एवं राज्यों द्वारा संयुक्त रूप से कार्यान्वित किया जा रहा है। केंद्रीय स्तर पर एनएसएस का कार्यान्वयन, एनएसएस संगठन के जरिये किया जाता है जो युवा मामलों के विभाग से सम्बद्ध कार्यालय है। राष्ट्रीय स्तर पर एनएसएस का एक कार्यक्रम सलाहकार प्रकोष्ठ और क्षेत्रीय स्तर पर 15 क्षेत्रीय कार्यालय हैं। राज्यों/संघ शासित प्रदेशों में राज्य सरकार के विभागों में से एक विभाग को एनएसएस की गतिविधियों का संचालन करने का जिम्मा सौंपा जाता है। इस विभाग के पास एक राज्य एनएसस प्रकोष्ठ और एनएसएस के लिए एक राज्य जन संपर्क अधिकारी होता है। एनएसएस की विभिन्न गतिविधियों के लिए केंद्र सरकार, राज्यों को धनराशि जारी करती है जहां से इसे अन्य कार्यान्वयन एजेंसियों को आवंटित किया जाता है। राज्य स्तर से नीचे एनएसएस का प्रशासनिक ढांचा इस प्रकार है।
·विश्वविद्यालय/+2 परिषद स्तर पर- प्रत्येक विश्वविद्यालय में एक एनएसएस प्रकोष्ठ और एक मनोनीत कार्यक्रम समन्वयक की व्यवस्था है जो विश्वविद्यालय एवं उससे सम्बद्ध कॉलेजों में एनएसएस की सभी इकाईयों में उससे जुडी गतिविधियों के समन्वय का कार्य करती हैं। इसी प्रकार वरिष्ठ माध्यमिक स्कूलों में एनएसएस प्रकोष्ठ, वरिष्ठ माध्यमिक शिक्षा निदेशालय में होता है।
·एनएसएस इकाई स्तर पर: प्रत्येक शिक्षण संस्थान में प्रत्येक एनएसएस प्रकोष्ठ का नेतृत्व एक शिक्षक करता है जिसे कार्यक्रम अधिकारी (पीओ) का दर्जा दिया जाता है। इसके अलावा राष्ट्रीय, राज्य, विश्वविद्यालय और शिक्षण संस्थानों के स्तर पर एनएसएस सलाहकार समितियां होती हैं जिनमे अधिकारी एवं गैर अधिकारी सदस्य होते हैं और यह एनएसएस संबंधी गतिविधियों को आवश्यक निर्देश प्रदान करते हैं। इनके अतिरिक्त कार्यक्रम अधिकारियों को प्रशिक्षण देने के लिए विभिन्न कॉलेजों/ विश्वविद्यालयों में 19 पैनल प्रशिक्षण संस्थान ईटीआई भी हैं।
वित्तीय व्यवस्था- यह स्थिति इस प्रकार है
·एनएसएस के तहत प्रमुख गतिविधियों की वित्तीय व्यवस्था- एनएसएस की गतिविधियों के लिए प्रत्येक स्वयंसेवक को ढाई सौ रूपये प्रतिवर्ष (नियमित गतिविधियों के लिए) और साढे चार सौ रूपये (दो वर्ष में एक बार) विशेष शिविर गतिविधियों के लिए प्रदान किए जाते हैं। इस प्रकार एनएसएस कार्यक्रम की कुल लागत 475 रूपये प्रति कार्यकर्ता प्रति वर्ष है (क्योंकि किसी विशेष वर्ष में विशेष शिविर अभियान में केवल 50 प्रतिशत कार्यकर्ताओं को ही शामिल किया जाता है)। इन गतिविधियों पर आने वाले खर्च को राज्य एवं संघशासित सरकारें एक निर्धारित अनुपात में वहन करती हैं।
·एनएसएस के तहत अन्य गतिविधियों/खर्चों के लिए धनराशि- उपरोक्त के अलावा एनएसएस के तहत अन्य घटकों पर राशि व्यय की जाती है जो पूरी तरह से केंद्र सरकार द्वारा वहन की जाती है। इसके तहत आने वाला खर्च इस प्रकार है।(1) एनएसएस के कार्यक्रम अधिकारियों का ईटीआई के जरिये प्रशिक्षण (2) राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम जैसे स्वतंत्रता दिवस परेड कैंप, मेगा कैंप, जोखिम कैंप, आईजीएनएसएस अवार्ड (3) एनएसएस के एसएलओ के लिए प्रतिस्थापन व्यय (4) एनएसएस कार्यक्रम सलाहकार प्रकोष्ठ और एनएसएस के क्षेत्रीय केंद्रों के लिए प्रतिस्थापन व्यय।
·एनएसएस की शुरूआत 1969 में 37 विश्वविद्यालयों में 40,000 कार्यकर्ताओं को लेकर की गई थी। आज 336 विश्वविद्यालयों, 15,908 कॉलेजों/तकनीकी संस्थानों और 11,809 वरिष्ठ माध्यमिक स्कूलों में एनएसएस के लगभग 33 लाख कार्यकर्ता हैं। विश्व के इस सबसे बड़े छात्र स्वयंसेवक कार्यक्रम से अभी तक 4.25 करोड़ छात्र लाभान्वित हुए हैं। इसके अतिरिक्त एनएसएस ने सामूहिक साक्षरता, पर्यावरण संरक्षण, स्वास्थ्य शिक्षा और सामुदायिक शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया है। प्राकृतिक आपदाओं के समय एनएसएस कार्यकर्ताओं ने राहत एवं पुनर्वास कार्यक्रम में हमेशा अग्रणी भूमिका निभाई है।
रविवार, 19 अक्टूबर 2014
भारत में छपाई की शुरुआत कैसे हुई?
छपाई एक कलाकृति है। यह प्रारंभिक चित्र के समान प्रकार में लगभग विविधता की अनुमति देती है। भारत में छपाई का इतिहास 1556 से शुरू होता है। इस युग में गोवा में पुर्तगालियों ने छपाई की मशीन लगाई। अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देखने पर यह ज्ञात होता है कि कला की यह विधा ग्यूटेर्नबर्ग की बाइबल की एक शताब्दी बाद भारत में आई। प्रसिद्ध कालाकार थोमस डैनियल (1749-1840) तथा विलियम डैनियल (1769-1837) ने ओरियन्टल सिनरी शीर्षक से कलमकारी की 6 श्रृंखलाओं को प्रस्तुत किया। 1786 में डैनियल ने ट्वेल्व व्यूज ऑफ कलकत्ता शीर्षक वाले एक रंग की कालमकारी का एलबम प्रकाशित किया। यह पहला मौका था जब भारत में लिथोग्राफी एक ही कागज पर छपाई की संभावना की तलाश की गई। 1822 में फ्रांसीसी कलाकार डी. सैविगनैक ने एक ही कागज पर लिथोग्राफी रूप में छपाई की।
1870 के दशक में कैलेन्डर, पुस्तक तथा अन्य प्रकाशनों के लिए छपी हुई तस्वीरों की मांग बढ़ी। इसके परिणाम स्वरूप एक ही कागज परछपाई की लोकप्रियता बढ़ी। आगे पूरे भारत में अनेक आर्ट स्टूडियो तथा छापेखाने तैयार हुए। कोलकाता के शोवा बाजार और चितपुर बट-ताला को 19वीं शताब्दी के प्रमुख छपाई केंद्र के रूप में देखा गया। मुंशी नवल किशोर ने 1858 में लखनऊ में नवल किशोर प्रेस तथा बुक डिपो की स्थापना की। इसे एशिया में सबसे पुराने छपाई और प्रकशन प्रतिष्ठान के रूप में मान्यता मिली और यहीं स्टोनब्लॉक के साथ अखबार और किताबों की छपाई होने लगी। इसके अतिरिक्त 19वीं शताब्दी के अंत में राजा रवि वर्मा ने मुंबई केघाटकोपर में लिथोग्राफी प्रेस स्थापित किया। रवि वर्मा के प्रेस को प्रसिद्धि मिली और उनके अनेक धार्मिक और धर्म निस्पेक्ष चित्रों की कॉपियों तैयार हुई और आम जनता के लिए तैल चित्र रूप में इनकी छपाई हुई।
20वीं शताब्दी के दूसरे दशक में अबनींद्रनाथ टैगोर, गगनेंद्रनाथ टैगोर तथा समरेंद्रनाथ टैगोर द्वारा छपाई को सृजनात्मक माध्यम का रूप दिया गया। इन तीनों ने सामूहिक रूप से बिचित्र क्लब की स्थापना की ताकि कटी हुई लकड़ी तथा कटे हुए पत्थरों से चित्रकारी और छपाई हो सके। इस क्लब के एक अन्य प्रमुख व्यक्ति थे मुकुलचंद्र डे,जिन्हें 1916 में रवींद्रनाथ टैगोर ने जेम्स ब्लाइंडिंग स्लोन से नक्काशी तकनीक सीखने के लिए अमेरिका भेजा। 1921 में शांति निकेतन में नंदलाल बोस ने कला भवन की स्थापना की। इसके साथ भारत में छपाई कला लोकप्रिय हुई। 1924 में चीन और जापान की यात्रा से वह चीनी घिसाई तथा जापानी रंग वाली लकड़ी से छपाई का माध्यम लेकर आए। इस कारण कला भवन के विद्यार्थियों ने सुदूर पूर्व की मौलिक छपाई के साथ सीधा संपर्क स्थापित किया। 1930 से 40 के बीच बिनोदबिहारी मुखर्जी तथा रामकिंकर बैज ने इस माध्यम का उपयोग किया। चित्तप्रसाद तथा सोमनाथ होर ने वामपंथी विचारों, सुधारवादी विषयों तथा 1943 केबंगाल अकाल और तेभाग आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक-आर्थिक आलोचनाओं का प्रसार लाइनोकट तथा वुडकट के इस्तेमाल से किया।
सोमनाथ होर 1979 में शांति निकेतन के ग्राफिक आर्ट विभाग के अध्यक्ष बने। सनत कार, लालू प्रसाद शॉ, पुलक दत्त, निर्मलेंदू दास, अजित सियाल और सलिल साहनी जैसे विशेषज्ञों ने शांति निकेतन के इस विभाग को बाद के वर्षों में समृद्ध बनाया। इसी तरह दिल्ली में जगमोहन चोपड़ा, (ग्रुप 8 के संस्थापक)जय स्वामीनाथन अनुपम सुध, परमजीत सिंह, मंजीत बाबा तथा कृष्ण आहूजाने योगदान दिया। 1955 में कमलकृष्ण तथादेवयानी कृष्ण द्वारा छापेखाने लगाने से दिल्ली में नई ऊर्जाका संचार हुआ और बहुरंगी इंटेग्लियों तथा कॉलेग्राफी की तकनीक आई। विलियम हेटर (एटीलियर 17 के संस्थापक) तथा कृष्णा रेड्डी के मार्ग निर्देशन में अनेक युवा बहुरंगी इंटेग्लियों तकनीक सीखने पेरिस गए।
के. जी. सुब्रह्मण्यम ने अपनी कला में लिथोग्राफी, कलमकारी और सेरीग्राफी को शामिल किया। महाराजा सयाजी राव विश्वविद्यालय बड़ोदरा के शिक्षक के रूप में उन्होंने बच्चों की पुस्तकों की व्याख्या में इन विधाओं का उपयोग किया। इस क्षेत्र में एम बी जोगलेकर,ज्योतिभट्टजयराम पटेल, शांति दबे, वी. आर. पटेल तथा पीडीधूमल जैसे प्रमुख कलाकारों ने योगदान दिया। इटली तथा न्यूयॉर्क के प्रैट ग्राफिक सेंटर में अध्ययन के बाद 1960 में ज्योतिभट्ट बडोदरा के कलासंकाय में शामिल हुए और विजुअल अभिव्यक्ति के क्षेत्र में युवाओं को प्रोत्साहित किया।
1970 से लक्ष्मा गौड़, देवराज डाकोजीतथा डीएलएन रेड्डी ने हैदराबाद, आरएम पलनियप्पन तथा आरपी भास्करण ने चेन्नई में तथा चित्त प्रसाद भट्टाचार्य अतिन बसाक में तथा अमिताभ बनर्जी ने कोलकाता में इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण छाप छोड़े। इंटैग्लियोतकनीक ने चित्रकारों तथा शिल्पकारों को प्रभावित किया। इनमें दत्तात्रेय आपटे, नैना दलाल, जयंत पारीख, विजय बगोडी, वाल्टर डिशूजा प्रमुख हैं।
अहमादाबद में रॉबर्ट राउसनबर्ग तथा नई दिल्ली के एनजीएमए की छपाई संग्रह से पूरी दुनिया में अपनाए गए विभिन्न व्यवहारों की छाप दिखाई दी। 1990 के दशक में भारतीय प्रिंट मेकर्स गिल्ड की स्थापना के साथ आशा की नई किरण जगी। गिल्ड के सदस्यों में आनंदमय बनर्जी, दत्तात्रेय आप्टे,जयंतगजेरा, के. आर. सुबन्ना, बुलाभट्टाचार्य, कविता नायर, कंचन चंदर, मोती झरोटिया, सुशांत गुहा, सुखविंदर सिंह, सुब्बाघोस तथा शुक्लसावंत शामिल हैं।
छपाई के क्षेत्र में डिजीटल टेक्नोलॉजी तथा मेकेनाईज्ड सॉफ्वेटर के आगमन से क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। प्रायोगिक तौर पर इसमें विजुअल शब्दावली आई जिसे ज्योतिभट्ट, नटराज शर्मा, रविकाशी, गुलमोहम्मद शेख, रणवीर कलेका, वैजू परथन, पुष्पमाला एन, अकबर पद्माजी, रामेश्वर ब्रुटा तथा गोगी सरोजपाल ने तैयार किया।
गुरुवार, 18 सितंबर 2014
क्या है जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 126
शुक्रवार, 8 अगस्त 2014
1 करोड़ के गोल्डन शर्ट की कहानी
हर किसी की चाहत करोड़पति बनने की होती है। कोई एक करोड़ में घर या फ्लैट खरीदता है तो टाटा या अंबानी परिवार का वारिस 2 करोड़ रुपये की महंगी गाड़ी में घूमता है। मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाले हर किसी का सपना किसी भी तरह से करोड़पति बनने की होती है। लेकिन ज़ी न्यूज़ टीवी चैनल के जरिए एक ऐसे शख्स के बारे में जानने और देखने का मौका मिला, जो एक करोड़ रुपये की शर्ट पहनता है। उस इंसान के बारे में जानकारी देने से पहले आपको बता दूं कि उस 1 करोड़ के शर्ट की असलियत क्या है। आखिर ऐसा क्या है उस शर्ट में कि उसकी कीमत 1 करोड़ रुपये है। दरअसल एक करोड़ की कीमत वाला शर्ट सौ फीसदी सोने का बना हुआ है। इस शर्ट को बनाने में कुल 4 किलो सोना खर्च किया गया है। इसे तैयार करने का जिम्मा मुंबई के एक मशहूर ज्वैलरी के शो रुम को दिया गया था। इस शो रुम के 18 कर्मचारियों ने इसे तकरीबन 1 महीने की कड़ी मेहनत के बाद तैयार किया। एक करोड़ की शर्ट पहनने वाले व्यक्ति का नाम पंकज पारिख है। पंकज महाराष्ट्र के नासिक जिले के रहने वाले है और इनका लंबा चौड़ा व्यवसाय है। इनके व्यवसाय का दायरे की शुरूआत रेडिमेड कपड़े के शो रुम से शुरू होती है और फिर एक सहकारी बैंक में भी इनकी अहम भूमिका है। इसके अलावा यह एक स्कूल के चेयरमैन है और नगर परिषद के भी चेयरमैन है। इन सबके अलावा फिल्मी कलाकारों बप्पी लहरी और हनी सिंह की तरह सोने के गहने पहनने का बहुत शौक है। जिस तरह से बॉलीवुड में बप्पी लाहिड़ी को लोग गोल्डनमैन के नाम से जानते है। उसी तरह से पंकज पारिख भी अपने इलाके में गोल्डमैन के रुप में मशहूर है। पंकज 45 साल के है और अपने 45वें जन्मदिन पर खासतौर से सोने की शर्ट बनवाई है। पंकज सोने की शर्ट पहनने के बाद सबसे पहले सिद्धिविनायक के दर्शन करने मुंबई पहुंचे। इनके जानकारों का कहना है कि पंकज को बचपन से ही सोने के आभूषण पहनने का बहुत शौक है। अपनी शादी में भी पंकज पारिख ने अपनी पत्नी से ज्यादा सोने के गहने खुद पहने थे। सोने की प्रति बचपन से जारी लगाव अब दीवानगी का रुप ले चुकी है। पहले सोने की अंगूठी, फिर सोने के कंगन, उसके बाद सोने के हार और फिर न जाने बदलते समय के साथ पंकज अपनी हर पसंदीदा चीज को सोने के रुप में ढालने लगे। यह सिलसिला काफी लंबे समय से जारी है और अब पंकज ने सोने की शर्ट पहनना शुरू कर दिया है। संभावना यह भी जताई जा रही है कि अगले कुछ सालों में पंकज सोने की शर्ट के साथ साथ सोने के पैंट पहने हुए भी नज़र आ सकते हैं।
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